Tuesday, February 1, 2011

मैक्समूलर का असली चेहरा

निःसंदेह मैक्समूलर कलम का धनी, पत्र लिखने की कला में सिद्धहस्त एवं मित्र बनाने की क्रिया में पारंगत था जिसके सहारे विदेशी होते हुए भी ब्रिटेन के प्रभावशाली व्यक्तियों व राजनीतिज्ञों में उसकी गहरी पैठ थी। इसीलिए उसके एक नहीं अनेक चेहरे थे। एक तरफ वह ब्रिटिशों के राजनैतिक और ईसाईयत के हितों को प्रमुखतादेता है तो दूसरी ओर भारतीय को वेदों, वैदिक भाषा, धर्म और दर्शन को विश्व का प्राचीनत साहित्य कहकर उनका महत्त्व बढ़ाता है, आदिम विश्व संस्कृति के विकास व इतिहास के अध्ययन के लिए वेदों को अपरिहार्य बताता है। इससे कुछ अधकचरे ज्ञान वाले भारतीय गद्‌गद हो जो हैं। परन्तु साथ ही वह वेदों को बचपना व उनमें कहीं-कहीं गम्भरी चिन्तन के चिन्ह पाता है है। यदि वह हिन्दुओं का सच्चा हितैषी होता तो ऋग्वेद के स्वराज्य सूत्र (१ : ८० : १-१६) पर बल देकर भारतीयों को स्वराज्य पाने की प्रेरणा देता। मगर उसने वैसा नहीं किया बल्कि भारतीयों को शब्द जाल में बहकाकर उनकी सहानुभूति लेता रहा। एक तीसरा चेहरा ऐसा है जिसमें वह पत्रों द्वारा भारतीय धार्मिक नेताओं को सुधारवाद के नाम पर जीवन के आखिरी समय (मार्च १९००) तक उनको ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का प्रयास करता रहा।

मैक्समूलर की विद्वता की सच्चाई को एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (खंड ग्टप्प्, पृ. ९२७-२८, १९११, संस्करण) ने इस प्रकार उजागर किया है-

"Though undoubteldy a great scholar, Max Mullar did not so much represent scholarship pure and simple as her hybrid types­the scholar-author and scholar-courtier. In the former capacity though manifestingly little of the originality of genius, he rendered vast service by popularizing high truths among high minds. In his public and social character, he represented Oriental studies with a brilliancy, and conferred upon them a distinction, which they had not peviously enjoyed in Great Britain. There were drawbacks in both respects: the author was too prone to build upon insecure foundations, and the man of the world incurred censure for failings which may perhaps be best indicated by the remark that he seemd to much of a diplomatist."

(Vol. XVII p. 927-28)

अर्थात्‌ ''हालांकि निःसंदेह वह एक महान विद्वान था, मगर मैक्समूलर उस विद्वता के सरल और शुद्ध रूप का उतना प्रतिनिधित्व नहीं करता है जितना कि उस वर्णसंकर वर्ग यानी विद्वान-लेखक और विद्वान-राजदरबारी का मिश्रण''। पहली श्रेणी में हालांकि एक मेधावी की मौलिकता कत है तथा उसने उच्च सत्यों को उच्च वर्ग में लोकप्रिय बनाने में महान प्रया किया। वह सार्वजनिक और सामाजिक जीवन में, प्राच्य विद्याओं को तेजस्विता के साथ व्यक्तकरता है और उनको श्रेष्ठता देता है जो कि ग्रेट ब्रिटेन के लोगों ने पहले नहीं देखी थी। मगर इन दोनों प्रकार के चरित्रों में कुछ त्रुटियां हैं। लेखक एक असुरक्षित नींव पर विशाल भवन बनाना चाहता है और सांसारिक मनुष्य की भूलों से डरता प्रतीत होता है जिसके परिणामस्वरुप वह एक राजनीतिा जैसा बहुत अधिक हो जाता है।''

इनके अलावा उसका एक चौथा चेहरा भी है। उसने तत्कालीन प्रभावशाली ब्रिटिशों जैसे कार्यायल, सैलर, फ्राड, सर ए. ग्रांट और अन्यों के साथ पत्राचार किया। मगर वे सब पत्र जला दिए गए। श्रीमती जोर्जिना मानती हैं कि ''यह दुःख की बात है कि काफी मूल्यवान पत्र व्यवहार नष्ट कर दिया गया है।'' (जी. प. प्रीफेस)। इससे सुस्पष्ट है ये पत्राचार जोर्जिना ने नहीं बल्कि स्वयं मैक्समूलर ने मरने से पहले नष्ट किए होंगे ताकि भावी इतिहास को उसकी असलियत का पता न चल सके। सम्भव है कि उन पत्रों में उसकी कार्यविधि व निष्कर्षों की कड़ी आलोचना की गई हो। सच्चाई तो यही है कि मैक्समूलर ने धन और अपने नाम के प्रचार के बदले में अपनी कलम और आत्मा को ई. आई. सी. और ब्रिटिशों को गिरवी रखकर भारी कीमत चुकाई। उसने पाया कम, खोया ज्यादा। भारतीयों की आलोचना के बाद जब मैक्समूलर की कलई खुली तो स्वयं अपने देश जर्मनी में भी बड़ा अपमान झेलना पड़ा। उसने स्वयं देखाः

"So angry was the German public that'the Leipzig branch of the Pan-Germanic League (the All-Destscher Vernin) drew up a solemn protest against Max Muller's apologia for England. The protest closed with the words, 'you have no longer the right to call yourself a German; and one Newspaper expressed its wish to see 'Max Muller hanged on the same gallows with Chamberlain and Rhodes; and the Aasvogel (vultures) picking his wicked ones."

(LLMM, Vol, II, p. 408)

अर्थात्‌ ''जर्मनी की पब्लिक मैक्समूलर के ब्रिटिशहितों के लिए समर्पण से इतनी नाराज थी कि 'पैन-जर्मन लीग' की लीपिजिग शाखा ने तीव्र विरोध प्रदर्शित किया। यह विरोध इस नारे के साथ समाप्त हुआ कि ''तुमको जर्मन कहलाने का और अधिक अधिकार नहीं रह गया है'' और एक अखबार ने तो अपनी यह इच्छा प्रगट की कि 'मैक्समूलर के चैम्बरलेन और रोडेस के समान फाँसी दे दी जाए।

(जी. प. खं. २, पृ. ४०८)

मैक्समूलर के व्यक्तितव के बारे में श्री भारती ने लिखा हैः

''मैक्समूलर एक अनेकार्थवादी वक्ता था उसने अपने श्रोताओं के सामने ऐसी भाषा में बोलता था कि उसका अपनी मानसिकता, व सुविधानुसार मन चाहे कुछ भी अर्थ लगा सकते थे। मैक्समूलर मिशनरियों के सामने बौद्धिक कलाबाजी में प्रसन्नता से भाग लेता था और श्रोताओं के अनुरुप बोलता था। वह जानता था कि अधिकांश श्रोताओं में आश्वयक बौद्धिक क्षमता नहीं है ताकि वे सत्यार्थ का पता लगा सकें। संक्षेप में वह गोलमाल भाषा में बोलता था'' (भारती, पृ. ६७) भारती जी आगे लिखते हैं: ''ई. आई. सी. और लंदन का क्रिश्चियन मिशन इस जर्मन विद्वान के सही व्यक्तित्व को गुप्त ही रखना चाहते थे। इनमें से कोई भी नहीं चाहता था कि दुनिया, विशेषकर हिन्दू, यह जानें कि वह एक सैक्यूलर मिशनरी की तरह, ईसाई मिशनरियों के साथ मिलकर भारत के हिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने के लिए कार्य कर रहा है। जैसे कोई हत्यारा, हत्या कने की योजना बनाने में सदैव पूर्ण कुशल व सफल ही नहीं हो पाता है, वैसे ही वे भी इस भेद को बहुत दिनों तक छिपाए न रख सके और मैक्समूलर की मृत्यु के बाद श्रीमती जोर्जिना द्वारा सम्पादित उसकी जीवनी के प्रकाशन के बादवह पूरी तरह नंगा हो गया और अब दुनिा जान गई है कि वह न वेदों का विद्वान था और न भारत का शुभचिन्तक बल्कि एक बहुरुपिया ईसाई मिशनरी था।''

मैक्समूलर ने स्वयं स्वीकारा है कि उसने ऋग्वेद के माध्यम से ब्रिटिश हितों के लिए काम किया है। १३ मई १८७५ को डीन स्टेनली को लिखे पत्र में उसने चाहा कि- ''इंग्लैंड की माहरानी यह जाने के जिस काम के लिए मैं, १८४६ में, इंग्लैंड आया था, वह काम मैंने पूरा कर दिया है। (क्योंकि १८७४ तक ऋग्वेद के सभी खंड छप चुके थे) इंग्लैंड वापिस आने पर मुझे एक पत्र मिला जिसमें लार्ड सैलिसबरी ने मेरी ऋग्वेद सम्बन्धी सेवाओं के सम्मान में मेरे काम के लिए अनुदान राशि बढ़ाने का प्रस्ताव किया है।''

(जी. प., खं. १, पृ. ५१६)

"...I should like the Queen to know that I have now fulfilled the task which brought me to England in 1846 ! On my return to England I found a letter the Lord Salibury had proposed that a further grant should be paid to me in recognition of my services in editing the Rig-veda."

(LLMM vol. 1 : p. 516)

उपरोक्त पत्र में मैक्समूलर द्वारा स्वयं स्वीकृती के बाद भी किसी को किसी प्रकारका सन्देह बाकी रह जाएगा कि उसने, जानबूझकर हिन्दू धर्म की जड़े उखाड़ने के लिए, ऋग्वेद के भाष्य का विकृतीकरण नहीं किया है?

इसी प्रकार १६ दिसम्बर १८८२ को ई. डब्ल्यू. कॉलवेल को लिखे पत्र में उसने कहाः

''यदि मेरे भाषणों को सुनकर और दृढ़ प्रतिज्ञ होकर देखें तो पाएंगे कि ब्रिटिश लोग जीते हुए देशों पर बौद्धिक विजय प्राप्त करने के लिए किसी और को मौका नहीं देंगे तथा वास्तव में मुझे इसमें अति प्रसन्नता होगी और मैं अनुीाव करता हूँ कि मैंने उस कृतज्ञता के भारी कर्ज का बदला चुका दिया है, भले ही कम मात्रा में, जो मुझ पर मेरे द्वारा अपनाए देश, इंग्लैंड, (क्योंकि वह जर्मन था) का, और उसके कुछ राजनीतिज्ञों (जैसे ग्लेडस्टोन, बुनसन, पामरसन, ड्‌यूक ऑफ ऑरगायल आदि, ले.) जिन्होंने मुझे यहाँ कुछ करने, यानी ऋग्वेद की पांडुलिपि का प्रकाशन, सम्पादन और उसका अंग्रेजी भाष्य, और अब 'सैक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट' के अनुवादों के सम्पादन करने का, सपना पूरा करने का अवसर दिया।

(इंडिया, वही पृ.

XXV-XXVI)

"If some of the young candidates for the Indian Civil Service who listened to my Lectures, quitely made up their minds that such a reproach shall be wiped out, if a few of them at least determined to follow in the footsteps of Sir William Jones, and to show to the world that Englishman who have been able to achieve my pruck, by perseverance, and by real political genius the material conquest of India, do not mean to leave the laurels of its intellectual conquest entirely to other countries, then I shall indeed rejoice, and feel that I have paid back, in however small a degree, the large debt of gratitude which I owe to my adopted countnJ and to some of its greatest statesmen, who have given me the opportunity which I could find nowhere else of realising the dreams of my life,-the publication of the text and commentary of the Rigveda, the most ancient book of Sanskrit, aye of Aryan literature and now the edition of the translation of the Sacred. Books of the East." (India, What Can It Teach Us ? by Max Muller, fp. XXV-XXVI)

उपरोक्त समर्पण पत्र में मैक्समूलर १८८२ में 'ऋग्वेद' और 'सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट' (अन्य धर्मों के ग्रंथों) केसम्पादन आदि के लिए अंग्रेजी के प्रति कृतज्ञता बार-बार प्रगट करता है।

''अंग्रेजों ने मैक्समूलर की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति की; इसके बदले में मैक्समूलर ने अपनी आत्मा का ही बलिदान दिया।''

आत्म निरीक्षण का अवसर

हालांकि मैक्समूलर के निधन को आज १०९ वर्ष हो गए हैं और अंग्रेजों का राज्य भी भारत में समाप्त हो गया है। इस काल खंड में मैक्समूलर के सभी सिद्धान्तों की धज्जियाँ उड़ा दी गई हैं। परन्तु फिर भी केवल थोड़े से ही भारतीय मैक्समूलर के असली चेहरे को भली-भांति जानते होंगे। अधिकांश बुद्धिजीवी, जो उसके कार्यों से सुपरिचित होने का दावा करते हैं। वे अक्सर कही-सुनी अप्रामाणिक जानकारी पर दम्भ करते हैं जो कि सामान्यतया विरूपित होती है परन्तु हिन्दू विरोधी सेक्यूलरवादी आज भी योजनाबद्ध ढंग से उसे ही प्रचारित कर रहे हैं। परिणामस्वरूप वे जाने-अनजाने मित्र और शत्रु में भेद करने में असफल रहे हैं।

सच्चाई तो यह कि मैक्समूलर एक बहुरुपिये की तरह भारत और भारतीयों का सच्चा शुभचिन्तक बने रहने का ढोंगकरता रहा जबकि वास्तव में वह अपने नाम, दाम और ईसाईयत की खातिर जीवन भर वेदों और हिन्दू धर्मशास्त्रों को विकृतकरहिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का प्रयास करता रहा जिसे कि ब्रिटिश राज्य का पूर्ण समर्थन मिला। खेद का विषय है कि उसके साहित्य को आज आजादी के बाद भी पहले ही की तरह समर्थन मिल रहा है, जा कि सर्वथा त्याज्य एवं निन्दनीय है।




मैक्समूलर बेनकाब



मैक्समूलर को ब्रिटिश योजनाओं और नीतियों के अनुसार नियुक्त किया गया और उसे यह काम सोंपा गया जिसे उसने पूरा करने के लिए अपने को सच्चाई के साथ बचन-बद्ध अनुभव किया। वह ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशकों के बोर्ड को दिए गए, इन वचनों के प्रति सच्चा सिद्ध करना चाहता था कि, वह वेदों के विकृतीकरण और भारत से हिन्दू धर्म की जड़ से उखाड़ने और उसकी जगह क्राइस्ट के धर्म-ईसाईयत को जमाने को पूरा प्रयास करेगा। उसने जीवन की अन्तिम घड़ी तक वेदों के निम्नीकरण, अवनतिकरण एवं विकृतीकरण, तथा उसकी जगह जीज़स क्राइस्ट और ईसाईयत को जमाने, उसकी प्रशंसा करने और इन्हें प्रतिष्ठित करने के लिए सच्चाई के साथ जी-जान से प्रयास किया। यह एक दूसरी बात रही कि वह अपनी अभिलाषा पूरी करने में स्वयं भी पूरी तरह से बेनकाब हो गया।

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