Tuesday, February 1, 2011

मैक्समूलर के वेद भाष्य पर मैकॉले का प्रभाव

मैक्समूलर के वेद भाष्य पर मैकॉले का प्रभाव

भारत के विषय में ब्रिटिशों की नीतियाँ


उस समय इंग्लैंड में, भारतीयों के प्रति तीन प्रकार की विचारधारा के वर्ग थेः (१) उपयोगितावादी, (२) ईसाई धर्मवादी और (३) उदारवादी। मगर ये सभी वर्ग हिन्दुओं की आस्थाओं और रीतिरिवाजों को रुढ़िवादी और गतिहीन मानते थे। वे हिन्दू सभ्यता को भी मानने को तैयार नहीं थे। जैम्स मिल ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया' (१८१७)में इस विचार की भी आलोचना की कि 'हिन्दू कभी सभ्य थे' (चौधरी, पृ. १३२)। इसका मैकाले पर व्यापक प्रभाव था। इस प्रचार में मैक्समूलर के सहायक रहे, विलियम आर्चर ने अपनी पुस्तक ''इंडिया एण्ड दी फ्यूचर'' (१९१७) में यह अस्वीकारा कि ''यूरोपीय दृष्टि से भारत कभी सभ्य था'' जिसका श्री अरबिन्द ने विरोध किया।
(चौधरी, वही, पृ. १३३)
इस संदर्भ में चौधरी लिखता हैः

"By the end of the nineteenth century the Englishmen had formulated his Thirty-nine Articles of dogma regarding Indians, and the first and second Articles were of course that they were all liars and the dishonest. These assumptions were communicated in advance to any Englishmen who was going to India as an administrator or in any other capacity. Generally speaking they were accepted even before the Englishman saw the country and its people. So the English came with a prefabricated hostility.”

(ibid, p. 303).

यानी ''उन्नीसवीं सदी के अन्त तक उन्होंने भारतीयों के बारे में नीति बना ली थी कि वे सब झूठे और बेईमान होते हैं। प्रत्येग अंग्रेज जो प्रशासकया अन्य किसी हैसियत से भारत आता था, उसके मन में ये धारणाऐं पहले ही से बिठा दी जाती थीं। सामान्यता किसी अंग्रेज के भारत आने और यहाँ के लोगों को मिलने से पहले ही ये बातें उसे स्वीकृत करा दी जाती थीं। इस प्रकार सभी अंग्रेज पूर्वकल्पित द्वेष भाव के साथ आते थे।''

(वही पृ. ३०३)

इस बात में लेशमात्र भी संदेह नहीं है कि ब्रिटिश कूटनीतिज्ञ थॉमस बैबिंगटन मैकॉले का न केवल मैक्समूलर के हिन्दू धर्म संबंधी साहित्य और वेदभाष्य पर बल्कि भारतीय शिक्षा पद्धति पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा है। वह न केवल एक कट्‌टर ईसाई व ब्रिटिश कूटनीतिज्ञ था, बल्कि हिन्दू धर्म, संस्कृति एवं संस्कृत भाषा को हेय दृष्टि से देखता था।

१८०० ई. में जन्में टी.बी. मैकॉले के दादा रेव. जोन मैकॉले प्रस्बिटेरियन चर्च के पादरी थे और उसके पिता जाचरी मैकॉले विललियम बिविरफोर्स के साथी थे, जो एवेंजिकल पार्टी (काल्फाम सम्प्रदाय) के सदस्य थे। इसीलिए मैकॉले की प्रारम्भिक शिक्षा प्रेस्बिटेरियन चर्च के कठोर अनुशासन में हुई थी जिसके कारण मैकॉले में धार्मिक कट्‌टरता बचपन से ही कूट-कूट कर भरी थी। इसके अलावा राजनैतिक दृष्टि से वह लीड्‌स चुनाव क्षेत्र काप्रतिनिधि भी था। इतना ही नहीं, जब १८३३ में, ईस्ट इंडिया कम्पनी के चार्टर का पुनर्गठन किया गया तो, भारत के लिए, सुप्रीम काउंसिल के चौथे सदस्य का पद मैकॉले के लिए विशेष रूप से सुरक्षित रखा गया और उसे कानूनी सलाहकार नियुक्त किया गया। इसके लिए उसे दस हजार पौंड प्रतिवर्ष की विशाल राशि, वेतन के रूप में दी गई। वह १० जून १८३४ को मद्रास पहुँचा और २ फरवरी १८३५ को इसने सभी भारतीय स्कूलों में अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम अपनाए जाने की सिफारिश कर दी तथा साथ ही इन्हें न मानने की स्थिति में उसने काउंसिल की सदस्यता से त्यागपत्र देने की धमकी भी दी। अन्त में मार्च १८३५ से अंग्रेजी को, शिक्षा के माध्यम के रूप में, भारतीय शिक्षा पद्धति पर बड़ी निरंकुशता के साथ थोप दिया गया।

अपने निर्णय के समर्थन और संस्कृत भाषा के विरोध में उसने २ फरवरी १८३५ की कार्यवाही में लिखाः

"I have no knowledge of either Sanskrit or Arabic. But I have done what I could to form a correct estimate of their value. I have read translations of the most celebrated Arabic and Sanskrit works. I have conversed both here and at home with men distinguished by their proficiency in the Eastern tongues. I am quite ready to take the Oriental learning at the valuation of the Orientalists themselves. I have never found one among them who could deny that a single shelf of a good European library was worth the whole native literature of India and Arabia. The intrinsic superiority of Western Literature is, indeed, fully admitted by those members of Committee who support the Oriental plan of education…It is, I believe, no exaggeration to say that all the historical information which has been collected from all the books written in the Sanskrit Language is less valuable than what may be found in the most paltry abridgements used at preparatory schools in England. In every branch of physical or moral philosophy the relative position of the two nations is nearly the same.”

(Chaudhuri , p. 133).

अर्थात्‌ ''मुझे संस्कृत अथवा अरबी भाषा का कोई ज्ञान नहीं है लेकिन मैंने उनका सही मूल्यांकन करने के लिए जो कुछ कर सकता था, किया है। मैंने अरबी और संस्कृतकी सबसे विखयात रचनाओं के अनुवादों को पढ़ा है। मैंने इन पूर्वी भाषाओं के भारत तथा ब्रिटेन दोनों के सुविखयात विद्वानों से बात की है। मैं स्वयं प्राच्यविद्वानों के मूल्यांकन के आधार पर प्राचीन भाषाओं की शिक्षा लागू करने के लिए बिल्कुल तैयार हूँ। मगर मैंने इन विद्वानों में से किसी एक को भी नहीं पाया जो इस बात को नकारता हो कि एक अच्छी यूरोपीय लायब्रेरी की एक शैल्फ समस्त भारत और अरेबिया के साहित्य के बराबर है।''

''पश्चिमी साहित्य की श्रेष्ठता को, वास्तव में उन सदस्यों की कमेटी ने पूरी तरह स्वीकारा है जो कि प्राच्य भाषाओं की शिक्षा योजना की पुष्टि करते हैं।.............. मैं मानतू हूँ कि इस कथन में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि ऐतिहासिक सामग्री जो कि संस्कृत की समस्त पुस्तकों में से इकट्‌ठी की गई है, वह उसके बराबर नहीं है जो कि इंग्लैंड के प्राथमिक स्कूलों में प्रयोग की जाने वाली सामान्य पुस्तकों में है। शिक्षा के समस्त भौतिक और नैतिक दर्शन में भी दोनों देशों की तुलनात्मक स्थिति लगभग वैसी है।''

(चौधरी, पृ. १३३)

मैकाले का भारत के प्राचीन संस्कृत साहित्य के प्रति इतना घृणात्मक भाव होना अस्वाभाविकनहीं है क्योंकि पराधीनों की संस्कृति विजेताओं से श्रेष्ठतर कैसे हो सकती है, विशेषकर जब उन्हें उन रा राज करना हो? अतः उसने आगे कहाः

"……I have traveled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is a beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such caliber, that I do not think we would ever conquer this country unless we break the very backbone of this nation which is her spiritual and cultural heritage and therefore. I propose that we replace the old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign, and English is good and greater than there own, they will loose their own self esteem their nature culture and they will become what we want them a truly dominated nation.”

(2 Feb. 1835 Proc. On education).

अर्थात्‌ ''मैंने सारे भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक ीाी आदमी को चोर और क भी को भिखारी नहीं पाया है। मैंने इस देश में इतनी सम्पदा देखी है तथा इतने उच्चनैतिक आदर्श देखें हैं और इतने उच्च योग्यता वाले लोग देखें हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाऐंगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है; और इसीलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उकीस संस्कृति को बदल दें क्यों यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेजी है, वह उनकी अपनी संस्कृति से अच्छा और उत्तमतर है तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जावेंगे जैसाकि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र।''

(२ फरवरी १८३५, प्रोसी, शिक्षा)

''उसने सच्चाई से स्वीकारा भी कि भारत में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की स्थापना का उद्‌देश्य वास्तव में, ऊँची जातियों के हिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का था और ऐसा ही उसने कलकत्ता से, १२ अक्टूबर १८३६ को, अपने पिता को एक पत्र में लिखा भी थाः

“Our English schools are flourishing wonderfully. We find it difficult,--indeed, in some places impossible,-- to provide instructions for all who want it. At the single town of Hoogly fourteen hundred boys are learning English. The effect of this education on the Hindoos is prodigious. No Hindoos, who has received an English education, ever remains sincerely attached in his religion. Some continue to profess it as a matter of policy; but many profess themselves pure Deists, and some embrace Christianity. It is my firm belief that if, our plans of education are followed up, there will not be a single idoiater among the respectable classes in Bengal thrity years hence. And this will be effectetd without any efforts to proselytise; without the smallest interference with religious liberty; merely by the natural operation of knowledge and reflection. I heartily rejoice in the prospects…”

Within half a year after the time when you read this we shall be making arrangements for our return…… I feel as if I never could be unhappy in my own country; as if so exist on English ground and among English people, seeing the old familiar sights and hearing the sound of my mother tongue, would be enough for me…… Ever Yours Most Affectionately, T.B. Macaulay.”

(Life and Letters of Lord Macaulay. Pp. 329-30; Bharti, pp. 46-47).

अर्थात्‌ ''हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक गति से बढ़ हे हैं। निसंदेह कुछ जगहों पर ऐसा होना मुश्किल होरहा है, कुछ जगहों पर हमें उन सबकों शिक्षा दे पाना असंभव हो रहा है जो कि ऐसा चाहते हैं। हुगली शहर में चौदह सौं लड़के अंग्रेजी सीख रहे हैं। इस शिक्षा का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ रहा है। कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है। कुछ एक, औपचारिकता के रूप में, नाम मात्र को हिन्दू धर्म से जुड़े दिखाई देते हैं। लेकिन अनेक स्वयं को 'शुद्ध देववादी' कहते हैं तथा कुछ ईसाईमत अपना लेते हैं। यह मेरा पूरा विश्वास है यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद बंगाल के सम्भ्रान्त परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा। किसी धार्मिक आजादी में न्यूनतम हस्तक्षेप न करते हुए ऐसा हो सकेगा। ऐसा स्वाभाविक ज्ञानदेने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा। मैं हृदय से उस योजना के परिणामों से प्रसन्न हूँ।'' आपका अत्यन्त प्रिय टी.बी. मैकॉले

(लार्ड मैकॉले की जीवनी और पत्र, पृ. ३२९; भारती पृ. ४६-४७)

मैकॉले के विचारां की पुष्टि करते हुए ''पादरी क्लिफोर्ड ने ईमानदारी से यह स्वीकारा है.........''

“Every Christian missionary will claim that the mission school in India has a definite purpose. He may be specific and say that the funcgtion of mission schools in India is to lead boys and girls to lesus Christ.”

(Christianity in a Changing India, p. 147).

अर्थात्‌ ''प्रत्येक ईसाई मिशनरी यह दावा करेगा कि भारत में मिशन स्कूलों का एक निश्चित उद्‌देश्य है। वह विशेषकर यह भी कह सकता है कि भारत में मिशन स्कूलों का कार्य लड़के और लड़कियों को जीजस क्राइस्ट की ओर ले जाने का है।''

(क्रिश्चियनिटी इन चैंजिंग इंडिया, पृ. १४७)

उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही ब्रिटिश शासक सभी राजनैतिक, प्रशासनिक व कूटनीतिक तरीकों से भारत में एक महान ग्रेट ब्रिटेन बनाने की अत्यधिक कोशिश कर रहे थे जबकि भारतीय सामाजिक व धार्मिक नेता जैसे राजाराम मोहनरॉय, केशवचन्द सेन, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द आदि के नेतृत्व मं अनेका क्रान्तिकारी युवक भारत के विभिन्न भागों में ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे। इस आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश शासन न केवल हथियारों का ही प्रयोग कर रहे थे बल्कि सभी प्रकार की निम्नस्तर की कूटनीति अपना रहे थे। जैसे 'बांटो और राज करो', 'मिशनरियों द्वारा हिन्दुओं का धर्मान्तरण', 'अंग्रेजी शिक्षा माध्यम द्वारा हिन्दू धर्म एवं संस्कृति के प्रति घृणा पैदा करना', 'हिन्दुधर्म शास्त्रों को विरूपित करना, उनके प्रति घृणा उत्पन्न करने वाला साहित्य रचना' आदि।

यह टी.बी. मैकॉले ही था जो भारत आने से पहले ही, ब्रिटिश पार्लियामेंट में हिन्दुओं के धर्म और संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए भारतीय स्कूलों में अंग्रेजी शिक्षा माध्यम के महत्व और उसकी उपादेयता पर बल दे रहा था। यह मैकॉले ही था जिसने मैक्समूलर पर १८५५ में हिन्दू धर्म शास्त्रों के विकृत अनुवाद कर उन्हें अपभ्रष्ट करने की नीति अपनाने पर दबाब डाला था और उसे ऐसा करने के लिए विवश किया था।

मैक्समूलर की ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में ऋग्वेद का अंग्रेजी में भाष्य करने के लिए(१८४७) में नियुक्ति हो जाने के बाद, उसने इंग्लैंड में भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन की आवश्यकता पर बार-बार बल दिया जो कि उस समय के सहायक मंत्री (खजाना) सर चार्ल्स एडवर्ड ट्रेविलियन (१८०७-१८६६) को लिखे पत्र से प्रगट होता हैः

“It is undoubtedly high time that something should be done in encourage the study of Oriental languages in England. At the very outset of this war, it has been felt how much this branch of studies---in emergencies like the present so requisite, has been neglected in the system of our education. In all other countries which have any political, commercial, or religious connections with the East, provision has been made by the Government, or otherwise, to encourage youngmen to devote themselves to this branch of studies. Russia has always been a most liberal patron of Oriental philology. In the Academy of St. Petersburg there is a Chair for every branch of Oriental literature. The French Government has founded a school. “L’ecole pour les langues orientales vivantes.” At Vinna, there is an Oriental Seminary, Prussia finds it expedient to give encouragement to young Oriental scholars, employed afterwards with advantages as consuls and interpreters. In England alone, where the most vital interests are involved in a free intercourse with the East, hardly anything is done to faster Oriental studies.”

(LLMM, Vol., p. 119)

''निःसंदेह यह सही समय है कि इंग्लैंड में प्राच्य भाषाओं के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया जाए'' (जीवनी एवं पत्र, खं. १ पृ. ११९)। इसकी पुष्टि में उसने रूस, फ्रांस, स्विटजरलैंड, जर्मनी आदि देशों में संस्कृत भाषाओं के अध्ययन व्यवस्था होने के उदाहरण दिए। इसी बात को उसने १८५१ में मैकॉले से मिलते वक्त कही और १८५५ में फिर इसे दोहराया। लेकिन इसी बीच जून १८५५ को मैक्समूलर को भारत में सिविल सेवाओं के लिए प्रत्याशियों की परीक्षाओं के लिए स्थापित कमीशन का सदस्य और एक परीक्षक भी बना दिया गया था। इससे मैकॉले निरूत्साहित हुआ था। दिसम्बर १८५५ को अलबेनी में मैक्समूलर- मैकाले भेंट के बारे में भारती लिखते हैं:

“Macaulay first pretended to discuss with Max Muller the new regulations for Indian Civil Service, so far as they related to the teaching of Oriental subjects and languages”. Max Muller who still suffered for his youthful zeal and carried at least within his heart a genuine love for Sanskrit had gone to meet Macaulay enthusiastically prepared and fully armed with all the arguments that he could command to plead the case for Oriental languages. But little did he realize that in Macaulay, he was going to face a mulish Christian and a rabid enemy of Oriental languages and literature. Nor perhaps was he sufficiently conscious of the historical fact, and its Christian background, that it was Macaulay who had imposed on the Indian people English language with the covert purpose of language being used as a vehicle for converting people to Christianity.”

(Bharti, p. 35)

अर्थात्‌ ''मैकॉले ने प्रारम्भ में मैक्समूलर से भारत के लिए इंडियन सिविल सर्विस के नए नियमों, जहाँ तक कि प्राच्य भाषाओं और विषयों की शिक्षा से संबंधित विषयों पर विचार-विनिमय करने का बहाना किया।मैक्समूलर, जो कि युवा होने के कारण उत्साह पूर्ण था और कम से कम संस्कृत भाषा के लिए उसके मन में सच्ची निष्ठा और प्यार था, एवं उसके लिए सब प्रकार की सामिग्री एवं तर्कों सहित तैयार होकर मैकॉले से मिलने गया था ताकि वह प्राच्य भाषाओं के पक्ष को बलपूर्वक प्रस्तुत कर सके। लेकिन उसने यह जरा भी नहीं सोचा होगा कि उसका पाला एक जिद्‌दी ईसाई और प्राच्य भाषाओं और उनके साहित्य के कट्‌टर विरोधी से पड़ा है। शायद वह न इस ऐतिहासिक सत्य से पूर्ण रूप से परिचित था कि वह मैकाले ही था जिसने अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम के रूप में भारतीय लोगों पर इसलिए थोप दिया ताकि भारतीयों को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से हिन्दू धर्मग्रन्थों और संस्कृति को हेय बताकर उन्हें ईसाईयत में धर्मान्तरित किया जा सके।''

(भारती, पृ. ३५)

मैक्समूलर का दिसम्बर १८५५ में मैकॉले से मिलने संबंधी विवरण और उसके प्रभाव को उसने १८९८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'लैंग सायने' में दिया है। भारती लिखते हैं कि इस मीटिंग में मैकॉले न केवल अधिकांश समय तक बोलता ही रहा बल्कि अन्त में उसने मैक्समूलर को इस ढंग से बिदा किया जो कि बड़ा बाध्यकारी भी थाऔर इस बात की और भी ज्यादा सम्भावना है कि मैकॉले ने संस्कृत प्रेमी जर्मन विद्वान मैक्समूलर को अपने स्वाभाविक तिरस्कारपूर्ण हठ धर्मिता से उसके साथ व्यवहार किया हो। अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने इस बदनाम साक्षात्कार का वर्णन किया है। उसने दुखित मन से लिखाः

“Macaulay, and I had a long conversation with him on the teaching necessary for the young men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily eloquent……I went back to Oxford a sadder, and I hope, a wiser man.”

(LLMM, Vol. 1, p. 162; Bharti, pp. 35-36).

इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई कि भारत भेजे जाने वाले युवकों को क्या पढ़ाया जाने की आवश्यकता है। वह एक बहुत ही चालाक मस्तिष्क वाला वाक्‌पटृ व्यक्ति है........ मैं और अधिक दुःखी होकर ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, और शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर''

(जी.प.खं. १, पृ. १६२)

मैकॉले से मिलने के बाद अपनी माँ को लिखे पत्र से अपमानित मैक्समूलर का आक्रोश साफ नजर आता है। प्रतीत होता है कि मैक्समूलर को यह बता दिया गया होगा कि भारतीयविद्याओं के अध्ययन से भारत में ईसाईयत के प्रचार को क्षति हो सकती है। वह अधिक 'समझदार' हो गया क्योंकि शायद उसे सबसे पहली बार पता चला होगा कि हिन्दूधर्म शास्त्रों का भाष्य या उन पर कुछ लिखते समय इस बात का ध्यान रखना है कि किस प्रकार ब्रिटेन के धार्मिक-राजनैतिक हितों की रक्षा हो सकती है। मैकॉले के ऐसे परामर्श मानने पर ही उसके सांसारिक आर्थिक हितों की भी पूर्ति हो सकेगी। मैकॉले ने एक ही बार में उसकी समस्त अद्वितीय योग्यता और लेखनी की स्वतंत्रता की धज्जियाँ उखेद दीं। इस अवसर से पहले मैक्समूलर भले ही संस्कृत और भाषा विज्ञान का शुभ चिन्तक रहा हो जैसा कि उसने ईसाई मिशन के सामने बतलाया था, मगर मैकॉले से मिलने के बाद वह 'शोकग्रस्त था' क्योंकि अब उसकी आत्मा की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई थी। जो कि मिशनरी हितों के लिए गिरवी रख दी गई थी और वह इस दयनीय स्थिति से पूरी तरह अवगत था जिससे बिना नुकसान उठाए निकलने का अब उसके पास अन्य कोई रास्ता नहीं बचा था। वास्तव में मैक्समूलर को ईस्ट इंडिया कम्पनी से लाभ कम और हानि अधिक उठानी पड़ी क्योंकि थोड़े से आर्थिक लाभ के बदले उसे आजीवन अपनी आत्मा कीआवाज को दबाकर जीना और लिखना पड़ा

कुछ भी हाो, मगर सच जरूर है कि मैकॉले के १८५५ के साक्षात्कार ने मैक्समूलर की सोच और उसके युवा मस्तिष्क को अत्यधिक प्रभावित किया। लूथरन ईसाई होने के कारण मैक्समूलर भी मैकाले से कम कट्‌टर ईसाई नहीं था। मगर मैकॉले उस कौम का अंग था जिसका भारत पर राज था। वह धर्म के मामलों में मैक्समूलर से कम सहिष्णु और अधिक हठधर्मी था। इसी का परिणाम था कि मैक्समूलर के १८५५ के बाद के साहित्य में महान परिवर्तन हुआ। उसमें बाईबिल, जीजस और ईसाईयत की प्रशंसा की प्रधानता दिखाई देती है। यदि मैक्समूलर दिसम्बर १८५५ में मैकॉले से न मिला होता तो सम्भव है कि वह हिन्दू धर्म का इतना कट्‌टर विरोधी न होता।

हालांकि ऋग्वेद का भाष्य १८४९ से प्रकाशित होना प्रारंभ हो गया था, लेकिन उसका भारत संबंधी अधिकांश साहित्य १८५५ के बाद का ही है। जिस पर मैकॉले की छाप साफ नजर आती है। वह एक सैक्यूलर पादरी का लबादा ओढ़ने पर भी मैकाले-प्रभाव एवं ईसाई-कट्‌टरता की छाप से अपने का बचा न सका।

मैक्समूलर का ईसाईयत से मोह, और वेदों से घृणा, ऑक्सफोर्ड आने के ३९ महीने बाद बुनसन को लिखे पत्रसे साफ नजर आती है। वह लिखता हैः

“Your Excellency,--With regard to Empson’s and Dr. Wilson’s letter, it is difficult to advise. I have no doubt whatever, that something can be written about the Veda which would reach even the dullest ears. Whether Dr. Wilson can undertake that task is another question. You know the dry hard shell in which the Veda is presented to us, and which seems still harder and more wooden in the English translation. Nevertheless I of course shall be glad if the Rigveda is dealt with in the Edinburg Review, and if Wilson would write from the standpoint of a missionary, and would show how the knowledge and bringing into light of the Veda would upset the whole existing system of Indian theology, it might become of the real interest.”

(LLMM. Vol. 1 p. 117).

''श्रीमान्‌- डा. विल्सन और एम्सन के पत्रों के संबंध में परामर्श देना कठिन है। लेकिन इसमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं है कि वेद के बारे में अवश्य कुछ लिखा जा सकता है जो कि बहरे कानों तक को भी सुनाई देगा। यह एक दूसरी बात है कि डा.विल्सन स्वयं ही यह काम करें। आप जानते हो कि हमें वेद, सूखे और कड़े खोल के रूप में मिला है और जिसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद करना और भी कठिन है। फिर भी मैं वस्तुतः प्रसन्न होऊँगा कि यदि ऋग्वेद पर एक लेख को 'ईडिनबरा रिव्यू' में प्रकाशित किया जाए और प्रो. विल्सन ईसाई मिशनरी दृष्टिकोण से लिखें और दिखावें कि यह ज्ञान और वेद को प्रकाश में लाने से भारतीय धर्म शास्त्र की सम्पूर्ण व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी, तो वास्तविक दिलचस्पी का विषय होगा।''

(जी.प., खं १ पृ. ११७)

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