Tuesday, February 1, 2011

‎भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूरवज (मुसलमान कैसे बने)‎ > ‎- कितना सच-कितना झूठ- Part 1

१. कितना सच-कितना झूठ
इस्लाम भारत में कैसे फैला, शांति पूर्वक अथवा तलवार के बल पर? जैसा कि हम आगे विस्तार से बतावेंगे कि इस्लाम का विश्व में (और भारत में भी) विस्तार दोनों प्रकार ही हुआ है। उसके शांति-पूर्वक फैलने के प्रमाण दक्षिणी-पूर्वी एशिया के, वे देश हैं जहाँ अब मुसलमान पर्याप्त और कहीं-कहीं बाहुल्य संखया में हैं; जैसे-इंडोनेशिया, मलाया इत्यादि। वहाँ मुस्लिम सेनाएँ कभी नहीं गईं। वह वृहत्तर भारत के अंग थे। भारत के उपनिवेश थे। उनका धर्म बौद्ध और हिन्दू था। किन्तु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस्लाम निःसंदेह तलवार के बल पर भी फैला। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इस्लाम में गैर-मुसलमानों का इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने से अधिक दूसरा कोई भी पुण्य कार्य नहीं है। इस कार्य में लगे लोगों द्वारा युद्ध में बलिदान हो जाने से अधिक प्रशंसनीय और स्वर्ग के द्वार खोलने का अन्य कोई दूसरा साधन नहीं है।

इस्लाम का अत्यावश्यक मिशन पूरे विश्व को इस्लाम में दीक्षित करना है-कुरान, हदीस, हिदाया और सिरातुन्नबी, जो इस्लाम के चार बुनियादी ग्रंथ हैं, मुसलमानों को इसके आदेश देते हैं। इसलिए मुसलमानों के मन में पृथ्वी पर कब्जा करने में कोई संशय नहीं रहा। हिदाया स्पष्ट रूप से काफिरों पर आक्रमण करने की अनुमति देता है, भले ही उनकी ओर से कोई उत्तेजनात्मक कार्यवाही न भी की गई हो। इस्लाम के प्रचार-प्रसार के धार्मिक कर्तव्य को लेकर तुर्की ने भारत पर आक्रमण में कोई अनैतिका नहीं देखी। उनकी दृष्टि में भारत में बिना हिंदुओं को पराजित ओर सम्पत्ति से वंचित किये, इस्लाम का प्रसार संभव नहीं था। इसलिए इस्लाम के प्रसार का अर्थ हो गया, 'युद्ध और (हिंदुओं पर) विजय।'(१)

वास्तव में अंतर दृष्टिकोण का है। यह संभव है कि एक कार्य को हिन्दू जोर-जबरदस्ती समझते हों और मुसलमान उसे स्वेच्छा समझते हों अथवा उसे दयाजनित कृत्य समझते हों। पहले का उदाहरण मोपला विद्रोह के समय मुसलमान मोपलाओं द्वारा मालाबार में २०,००० हिन्दुओं के 'बलात्‌ धर्मान्तरण' पर मौलाना हसरत मोहानी द्वारा कांग्रेस की विषय समिति में की गई, वह विखयात टिप्पणी है जिसने गाँधी इत्यादि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं की जुबान पर ताले लगा दिये थे। उन्होंने कहा था-

''(मालाबार) दारुल हर्ब (शत्रु देश) हो गया था। मुस्लिमविद्रोहियों को शक (केवल शक) था कि हिन्दू उनके शत्रु अंग्रेजों से मिले हुए हैं। ऐसी दशा में यदि हिन्दुओं ने मृत्युदंड से बचने के लिये इस्लाम स्वीकार कर लिया तो यह बलात्‌ धर्मान्तरण कहाँ हुआ? यह धर्म परिवर्तन तो स्वेच्छा से ही माना जायेगा।''(१क)

दूसरे दृष्टिकोण का उदाहरण, अब्दल रहमान अज्जम अपनी पुस्तक ''द एटरनल मैसेज ऑफ मौहम्मद'' में प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है- ''जब मुसलमान मूर्ति पूजकों और बहुदेवतावादियों के विरुद्ध युद्ध करते हैं तो वह भी इस्लाम के मानव भ्रातृत्ववाद के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत के अनुकूल ही होता है। मुसलमानों की दृष्टि में, देवी-देवताओं की पूजा से निकृष्ट विश्वास दूसरा नहीं है। मुसलमानों की आत्मा, बुद्धि और परिणति इस प्रकार के निकृष्ट विश्वासधारियों को अल्लाह के क्रोध से बचाने के साथ जुड़ी हुई है। जब मुसलमान इस प्रकार के लोगों को मानवता के नाते अपना बन्धु कुबूल करते हैं तो वे अल्लाह के कोप से उनको बचाने को अपना कर्तव्य समझकर उन्हें तब तक प्रताड़ित करते हैं, जब तब कि वे उन झूठे देवी देवताओं में विश्वास को त्यागकर मुसलमान न हो जायें। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास को त्यागकर मुसलमान हो जाने पर वे भी दूसरे मुसलमानों के समान व्यवहार के अधिकारी हो जाते हैं। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास करने वालों के विरुद्ध युद्ध करना इस कारण से एक दयाजनित कार्य है क्योंकि उससे समान भ्रातृत्ववाद को बल मिलता है।''(२)

कुरान में धर्म प्रचार के लिये बल प्रयोग के विरुद्ध कुछ आयते हैं किन्तु अनेक विशिष्ट मुस्लिम विद्वानों का यह भी कहना है कि काफिरों को कत्ल करने के आदेश देने वाली आयत (९ : ५) के अवतरण के पश्चात्‌ कुफ्र और काफिरों के प्रति किसी प्रकार की नम्रता अथवा सहनशीलता का उपदेश करने वाली तमाम आयतें रद्‌द कर दी गयी हैं।(३) शाहवली उल्लाह का कहना है कि इस्लाम की घोषणा के पश्चात्‌ बल प्रयोग, बल प्रयोग नहीं है। सैयद कुत्व का कहना है कि मानव मस्तिष्क और हदय को सीधे-सीधे प्रभावित करने से पहले यह आवश्यक हे कि वे परिस्थितियाँ, जो इसमें बाधा डालती हैं, बलपूर्वक हटा दी जायें।'(४) इस प्रकार वह भी बल प्रयोग को आवश्यक समझते हैं। जमाते इस्लामी के संस्थापक सैयद अबू आला मौदूदी बल प्रयोग को इसलिए उचित ठहराते हैं कि ''जो लोग ईद्गवरीय सृष्टि के नाज़ायज मालिक बन बैठे हैं और खुदा के बन्दों को अपना बंदा बना लेते हैं, वे अपने प्रभुत्व से,महज नसीहतों के आधार पर, अलग नहीं हो जाये करते- इसलिए मौमिन (मुसलमान) को मजबूरन जंग करना पड़ता है ताकि अल्लाह की हुकूमत (इस्लामी हुकूमत) की स्थापना के रास्ते में जो बाधा हो, उसे रास्ते से हटा दें।'(५) यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि इस्लाम के अनुसार पृथ्वी के वास्तविक अधिकारी अल्लाह, उसके रसूल मौहम्मद और उनके उत्तराधिकारी मुसलमान ही हैं।(६) इनके अतिरिक्त, जो भी गैर-मुस्लिम शासक हैं, वे मुसलमानों के राज्यापहरण के दोषी हैं। अपहरण की गई अपनी वस्तु को पुनः प्राप्त करने के लिये लड़ा जाने वाला युद्ध तो सुरक्षात्मक ही होता है।

१९ दिसम्बर १४२१ के लेख के अनुसार, जाफर मक्की नामक विद्वान का कहना है कि ''हिन्दुओं के इस्लाम ग्रहण करने के मुखय कारण थे, मृत्यु का भय, परिवार की गुलामी, आर्थिक लोभ (जैसे-मुसलमान होने पर पारितोषिक, पेंशन और युद्ध में मिली लूट में भाग), हिन्दू धर्म में घोर अन्ध विश्वास और अन्त में प्रभावी धर्म प्रचार।(७)
अगले अध्यायों में हम इतिहास से यह बताने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार भारतीय मुसलमानों के हिन्दू पूर्वजों का इन विविध तरीकों से धर्म परिवर्तन किया गया।

4 comments:

  1. बाबा का ध्येय और उपदेश
    सत्रहवी शताब्दी (1608-1681) में सन्त रामदास प्रकट हुए और उन्होंने यवनों से गायों और ब्राहमणों की रक्षा करने का कार्य पर्याप्त सीमा तक सफलतापूर्वक किया । परन्तु दो शताब्दियों के व्यततीत हो जाने के बाद हिन्दू और मुसलमानों में वैमनस्य बढ़ गया और इसे दूर रने के लिये ही श्री साईबाबा प्रगट हुए । उनका सभी के लिये यही उपदेश था कि राम (जो हिन्दुओं का भगवान है) और रहीम (जो मुसलमानों का खुदा है) एक ही है और उनमें किंचित मात्र भी भेद नहीं है । फिर तुम उनके अनुयायी क्यों पृथक-पृथक रहकर परस्रप झगड़ते हो । अज्ञानी बालको । दोनों जातियाँ एकता साध कर और एक साथ मिलजुलकर रहो । शांत चित्त से रहो और इस प्रकार राष्ट्रीय एकता का ध्येय प्राप्त करो । कलह और विवाद व्यर्थ है । इसलिए न झगड़ो और न परस्पर प्राणघातक ही बनो । सदैव अपने हित तथा कल्याण का विचार करो । श्री हरि तुम्हारी रक्षा अवश्य करेंगे । योग, वैराग्य, तप, ज्ञान आदि ईश्वर के समीप पहुँचने के मार्ग है । यदि तुम किसी तरह सफल साधक नहीं बन सकते तो तुम्हारा जन्म व्यर्थ है । तुम्हारी कोई कितनी ही निन्दा क्यों न करे, तुम उसका प्रतिकार न करो । यदि कोई शुभ कर्म करने की इच्छा है तो सदैव दूसरों की भलाई करो ।
    संक्षेप में यही श्री साईबाबा का उपदेश है कि उपयुक्त कथनानुसार आचरण करने से भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में तुम्हारी प्रगति होगी ।

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  2. सगुण ब्रहम श्री साईबाबा
    ब्रहमा के दो स्वरुप है – निर्गुण और सगुण । निर्गुण नराकार है और सगुण साकार है । यघरु वे एक ही ब्रहमा के दो रुप है, फर भी किसी को निर्गुण और किसी को सगुण उपासना में दिलचस्पी होती है, जैसा कि गीता के अध्याय 12 में वर्णन किया गया है । सगुण उपासना सरल और श्रेष्ठ है । मनुष्य स्वंय आकार (शरीर, इन्द्रय आदि) में है, इसीलिये उसे ईश्वर की साकार उपासना स्वभावताः ही सरल हैं । जब तक कुछ काल सगुण ब्रहमा की उपासना न की जाये, तब तक प्रेम और भक्ति में वृद्घि ही नहीं होती । सगुणोपासना में जैसे-जैसे हमारी प्रगति होती जाती है, हम निर्गुण ब्रहमा की ओर अग्रसर होते जाते हैं । इसलिये सगुण उपासना से ही श्री गणेश करना अति उत्तम है । मूर्ति, वेदी, अग्नि, प्रकाश, सूर्य, जल और ब्राहमण आदि सप्त उपासना की वस्तुएँ होते हुए भी, सदगुरु ही इन सभी में श्रेष्ठ हैं ।
    श्री साई का स्वरुप आँखों के सम्मुख लाओ, जो वैराग्य की प्रत्यक्ष मूर्ति और अनन्य शरणागत भक्तों के आश्रयदाता है । उनके शब्दों में विश्वास लाना ही आसन और उनके पूजन का संकल्प करना ही समस्त इच्छाओं का त्याग हैं ।
    कोई-कोई श्रीसाईबाबा की गणना भगवदभक्त अथवा एक महाभागवत (महान् भक्त) में करते थे या करते है । परन्तु हम लोगों के लिये तो वे ईश्वरावतार है । वे अत्यन्त क्षमाशील, शान्त, सरल और सन्तुष्ट थे, जिनकी कोई उपमा ही नहीं दी जा सकती । यघरि वे शरीरधारी थे, पर यथार्थ में निर्गुण, निराकार,अनन्त और नित्यमुक्त थे । गंगा नदी समुद्र की ओर जाती हुई मार्ग में ग्रीष्म से व्यथित अनेकों प्रगणियों को शीतलता पहुँचा कर आनन्दित करती, फसलों और वृक्षों को जीवन-दान देती और जिस प्रकार प्राणियों की क्षुधा शान्त करती है, उसी प्रकार श्री साई सन्त-जीवन व्यतीत करते हुए भी दूसरों को सान्त्वना और सुख पहुँचाते है । भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है संत ही मेरी आत्मा है । वे मेरी जीवित प्रतिमा और मेरे ही विशुद्घ रुप है । मैं सवयं वही हूँ । यह अवर्णनीय शक्तियाँ या ईश्वर की शक्ति, जो कि सत्, चित्त् और आनन्द हैं । शिरडी में साई रुप में अवर्तीण हुई थी । श्रुति (तैतिरीय उपनिषद्) में ब्रहमा को आनन्द कहा गया है । अभी तक यह विषय केवल पुस्तकों में पढ़ते और सुनते थे, परन्तु भक्तगण ने शिरडी में इस प्रकार का प्रत्यक्ष आनन्द पा लिया है । बाबा सब के आश्रयदाता थे, उन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता न थी । उनके बैठने के लिये भक्तगण एक मुलायम आसन और एक बड़ा तकिया लगा देते थे । बाबा भक्तों के भावों का आदर करते और उनकी इच्छानुसार पूजनादि करने देने में किसी प्रकार की आपत्ति न करते थे । कोई उनके सामने चँवर डुलाते, कोई वाघ बजाते और कोई पादप्रक्षालन करते थे । कोई इत्र और चन्दन लगाते, कोई सुपारी, पान और अन्य वस्तुएँ भेंट करते और कोई नैवेघ ही अर्पित करते थे । यघपि ऐसा जान पड़ता था कि उनका निवासस्थान शिरडी में है, परन्तु वे तो सर्वव्यापक थे । इसका भक्तों ने नित्य प्रति अनुभव किया । ऐसे सर्वव्यापक गुरुदेव के चरणों में मेरा बार-बार नमस्कार हैं ।

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  3. @nadim jao ye baat talbaneion ko samjhao ke mahzab ek hai dharm parivertan band karo aur keral mein ja ke musalmano ko samjhao ke love jehad band karo phir kuch bolna aur kahin toh bas chalta ne aa jayenge yahan humien dharam ka paath padane kya jante ho aap dharam ke baare mein?Vedas ya geeta padi hai kabhie geeta mein he likha hai hinduism doesnot advice peace in face of evil and injustice hamare sabhayata dharam sansker khatam ho rahe hain aur tum? yahan bhe pakistan banvaoge kya?

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