Tuesday, February 1, 2011

जिहाद के दो चेहरे

जिहाद के दो चेहरे

इस्लाम और जिहाद के दो चेहरे

इस्लाम और पैगम्बर मुहम्मद साहब की तरह, जिहाद के भी दो चेहरे हैं जोकि पूरी तरह कुरान पर आधारित हैं। इसका कारण यह है कि कुरान के ११४ सूराओं में से ९० सूरा मुहम्मद साहब पर मक्का में (६१०-६२२ ए. डी.) अवतरित हुए; और बाकी के २४ मदीना में। इन दोनों जगहों में अवतरित सूराओं के कथनों के स्वभाव, विषय, उद्‌देश्यों और परिस्थितियों में व्यापक अन्तर है। उन्होंने अपने नए मज़हब इस्लाम को स्वीकार ने के लिए मक्का में बार-बार शान्तिपूण्र ढंग से आग्रह किया। उस समय अरब में विभिन्न कबीलों के लोग अपने-अपने इष्ट देवी-देवताओं की अपने ढंग से काबा में पूजा करने की पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी, सामाजिक समरसता का उपदेश दिया। हालांकि यहाँ जिहाद पर ५ आयतें हैं परनतु इस्लाम स्वीकाने के लिए गैर-मुसलमानों के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध की आज्ञा नहीं दी; बल्कि कुरान कहलता है :

(i) ''दीन' धर्म के बारे में कोई जबरदस्ती नहीं।'' (२ः२५६, पृ. १७२)

(ii) ''कह दो : हे काफ़िरों ! मैं उसकी 'इबादत' करता नहीं जिसकी 'इबादत' तुम करते हो; और न तुम ही उसकी 'इबादत' करते हो जिसकी 'इबादत' मैं करता हूँ और न मैं उसकी 'इबादत' करने का जिसकी 'इबादत' तुम करते आए और न तुम उसकी 'इबादत' करने के जिसकी 'इबादत' मैं करता हूँ। तुम्हें तुम्हारा 'दीन' और मुझे मेरा दीन' (१०९ : १-६, पृ. १२०७)

ऐसा इसलिए कि यहाँ मुहम्मद कमज़ोर था। परन्तु सितम्बर ६२२ में मदीना में आकर उन्होंने निम्नलिखित पाँच सूत्रीय योजना के द्वारा अपने अनुयायियों का सैनिकीकरण किया : १) अपने अनुयायियों (मुसलमानों) को मदीना में बसना आवश्यक किया; २) प्रत्येक वयस्क मुसलमान के लिए 'अल्लाह के लिए जिहाद' करना अनिवार्य किया; ३) व्यापारिक कारवाओं को पवित्र महीनों में भी लूटना वैध कर दिया; ४) लूट और पराजितों के धन, सम्पत्ति, स्त्री आदि में अस्सी प्रतिशत भाग जिहादियों और बीस प्रतिशत अपने लिए सुरक्षित कर दिया और ४) परम्परागत स्वेच्छा से दान (ज़कात) देना सबके लिए अनिवार्य कर दिया। इनके अतिरिक्त अरब के युवकों को आश्वासन दिया गया कि यदि वे गैर-मुसलानों के विरुद्ध लड़ाई में मारे गए तो उन्हें फौरन ज़न्नत मिलेगी जहाँ वे तीस वर्ष के नौजवान हो जाऐंगे और न कभी बूढ़े होंगे। वहाँ उन्हें एक सौ पुरुषों के बराबर वीर्यवत्ता दी जाएगी और कम से कम बहत्तर युवा सुन्दरियों (हूरों) के साथ उनकी शादी रचा दी जाएगी जिनके साथ वे अनन्त काल तक स्वादिष्ट भोजन, मादक शराब, सोने चांदी के महलों में रहते हुए सभी प्रकार के भोग विलास और यौन सुखों का आनन्द लेते रहेंगे। (बायर, मेडिन्स ऑफ पैराडाइज,; अनवर शेख, इस्लाम सैक्स एण्ड वायलेन्स)।

इसकी पुष्टि में कुरान कहता है :

(i) ''निस्संदेह अल्लाह ने 'ईमान वालों' से उनके प्राण ओर उनके माल इसके बदले में खरीद लिया है कि उनके लिए ज़न्नत है। वे अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं, तो वे मारते भी हैं और मारे भी जाते हैं। यह उसके जिम्मे तौरात, इन्जील, और कुरान में (किया गया) एक पक्का वादा है और अललाह से बढ़कर अपने वायदे को पूरा करने वाला हो भी कौन सकता ळै '' ? (९ : १११, पृ. ३८८)

(ii) ''तुम उनसे लड़ों यहाँ तक कि फितना शेष न रह जाए और 'दीन (धर्म)' अल्लाह के लिए हो जाएं। अतः यदि वे बाज़ आजाएँ तो अत्याचारियों के अतिरिक्त, किसी के विरुद्ध कोई कदम उठाना ठीक नहीं।'' (२ : १९३, पृ. १५८)

(iii) ''उनसे युद्ध करो जहाँ तक कि कितना शेष्ज्ञ न रहे और दीन-पूरा का पूरा अल्लाह का हो जाए'' (८ : ३९, पृ. ३५३)

(iv) ''तुम पर युद्ध फ़र्ज किया गया है' और वह तुम्हें अप्रिय है-और हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें बुरी लगे और वह तुम्हारे लिए अच्छी हो, और हो सकता है कि एक चीज़ तुम्हें प्रिय हो और वह तुम्हारे लिए बुरी हो। अल्लाह जानता है ओर तुम नहीं जानते।'' (२ : २१६, पृ. १६२)

(v) मक्का विजय (६३० ए. डी.) के बाद पेगम्बर मुहम्मद ने कहा : ''फिर जब हराम महीने बीत जाऐं तो मुश्रिकों को जहाँ कहीं पाओ कत्ल करो और उन्हें पकड़ों और उन्हें घेरों और हर घात की जगह उनकी ताक में बैठो। फिर यदि वे 'तौबा' कल लें और 'नमाज़' कायम करें और ज़कात दें तो उनका मार्ग छोड़ दो।'' (९ : ५, पृ. ३६८)।

उपरोक्त आयतों से सुस्पष्ट है कि मक्का की आयतों में सहिष्णुता, सह-अस्तित्व, शान्ति और धार्मिक स्वतंत्रता की बात कही गई है जबकि मदीना की आयतों में इस्लाम न स्वीकार करने वाले दुनियां भर के लोगों के विरुद्ध अनिवार्य सशस्त्र युऋ के आदेश सुस्पष्ट हैं। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मक्का में १३ वर्षों तक शान्तिपूर्ण ढंग से इस्लाम का प्रचार करने के बाद भी उलगभग एक सौ ही लोगों ने इस्लाम स्वीकारा। वहाँ मुहम्मद की सैनिक शकित कमज़ोर थी। परन्तु मदीना में मुसलमानों का सैनिकीकरण, अनिवार्य ज़कात, लूट के माल और जन्नत के भोगविलास पूर्ण जीवन के अनिवार्य ज़कात, लूट के माल और जन्नत के भोगविलास पूर्ण जीवन के प्रलोभनों के फलस्वरूप पैगम्बर मुहम्मद अत्यन्त शक्तिशाली हो गए। यहाँ सात साल के अन्दर ६३० ए. डी. में मक्का पर आक्रमण करते समय पैगम्बर की सेना में दस हजार सैनिक थे और ६३२ में (मृत्यु से पहले) उनके पास बीस हजार सैनिक थे।

अतः गेर-इस्लामी देशों में जहाँ पर मुसलमान संखया बल में कमज़ोर होते हैं, वह देश 'दारूल हरब', जैसे भारत, होता है तो वहाँ वे मक्का की शान्ति, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व वाली आयतों (२ः२५६; १०९ : १-६ आदि) पर बल देते हैं तािा इस्लाम को शान्ति का मज़हब होने का दावा करते हैं। वहाँ जिहाद का चेहरा शान्ति का होता है। जहाँ वे राजनैतिक दृष्टि से शकितशाली होते हैं और उनका देश दारूल इस्लाम होता है तो वे मदीना की ९.५ जैसी आयतों की भाषा बोलते हैं। वहाँ उनका चेहरा आक्रामक व डिक्टेटर जैसा हो जाता है। परन्तु यहाँ मैं स्पष्ट कर दूं कि गैर-मुसलमानों को मक्का की उदार व शान्तिपूर्ण दिखने वाली आयतों के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि अल्लाह ने उन्हें निरस्त कर दिया है।


आयतों का निरस्तीकरण : इस्लाम की मान्यता है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह इस्लाम के हित में पिछली आयतों को निरस्त करके नई या उससे बेहतर आयतें भेजता है जैसे :

(i) ''हम जो काई 'आयत' मन्सूख (निरस्त) कर देते हैं या भुलवा देते हैं तो उससे अच्दी या उस जैसी दूसरी (आयत) लाते हैं।'' (२ : १०६, पृ. १४३)।

(ii) ''अल्लाह जो चाहता है, मिटा देता है और (जो कुछ चाहता है) क़ायम रखता है और उसी के पास मूल किताब है।'' (१३ : ३९, पृ. ४६२)।

उपरोक्त आयतों के कारण सभी उलेमा आयतों के निरस्तीकरण के सिद्धान्त को मानते हैं। चौदहवीं सदी के विद्वान जलालुद्‌दीन सुयूती के अनुसार कुरान की पांच सौ आयतें निरस्त या अप्रभावी हैं। (डिक्शनरी ऑफ इस्लाम, टी. पी. ह्नयूज. पृ. ५२०)।

इस्लाम के विद्वान यह भी मानते हैं कि कुरान का ९वां सूरा सबसे बाद में अवतरित हुआ था। इसकी ५वीं आयत, जिसे 'तलवार की आयत' भी कहते हैं, मक्का और मदीना में अवतरित सभी पिछली आयतों को निरस्त करती हैं जो कि तर्क संगत भी है। (सैयद कुत्व, माइल स्टोन, पृ. ६३; मौहूदी-मैसेज ऑफ़ इस्लाम) इसी प्रकार म्यूर (लाईफ ऑफ मुहम्मद, पृ. (xxvii) एवं अब्दुल अज़्ज़ाम (बुर्क अलकायदा पृ. ३२) के अनुसार आयत ९ः५, क्रमशः २२४ और १४० पिछली आयतों को निरस्त करती हैं।

इस सन्दर्भ में आर. बेले ने, २००२ में, लिखा है ''हालांकि सभी मुसलमान विश्वास करते हैं कि अल्लाह ने कुछ नई आयतों को भेजकर पुरानी आयतों को निरस्त किया था। परन्तु इस विषय में उनमें व्यापक मतभेद हैं कि कौन-सी आयत ने किस आयत का स्थान लिया। फिर भी अधिकांश विद्वान मानते हैं कि जिहाद के विषय में आयत ९.५ इससे पहले अवतरित हुई, सभी स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों और पारस्परिक शक्तियों के आधर पर बनाया जाता है। मुसलमानों े सभी आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक कार्यक्रम जिहाद से ही नियन्त्रित होते हैं।

व्यवहार में जिहाद का अर्थ इस बात पर निर्भर करता है कि वह व्यक्ति कहाँ रहता है। यदि कोई मुसलमान गैर-मुस्लिम राज्य में रहता है तो उसके लिए जिहाद का एक अर्थ सब सम्भव उपायों द्वारा मुस्लिम समुदाय की संखया बढ़ाना तथा सरकार से अधिकाधिक आर्थिक सहायता, धार्मिक स्वतंत्रता, और राजनैतिक अधिकारों को प्राप्त करना है और दूसरी तरफ साम-दाम-दण्ड-भेद आदि उपायों और शान्तिपूर्ण जिहाद द्वारा धीरे-धीरे ऐसे देश में इस्लामी राज्य स्थापित करना है। यदि वह किसी मुस्लिम राज्य में रहता है तो उसके लिए जिहाद का मतलब है कि वह वहाँ अल्लाह का कानून अक्षरशः लागू करवाने का प्रयास करें। परन्तु व्यवहार में ५७ इस्लामी राज्य होते हुए भी इनमें इस्लामी कानून (शरियत) एक समान नहीं है। क्योंकि इस्लाम स्वयं ७३ फिरकों में बंटा हुआ है और प्रत्येक की अलग-अलग शरियत है। अतः जिहाद का स्वरूप भी विभिन्न है। इसीलिए शिया, सुन्नी, सूफ़ी, अहमदिया, बहावी आदि फिरकों के मुसलमान अल्लाह के नाम पर जिहाद के विषय में आपस में संघर्ष करते पाए गए हैं। मुहम्मद अमीर राना के अनुसार 'कश्मीर में ही जिहाद के नाम पर विभिन्न जिहादी फिरकों की बीच दो हजार संघर्ष हुए हैं।'' (गेट वे टू टैरोज्मि, पृ. २९)। इन फिरकों में आपसी मतभेद कितने भी क्यों न हों परन्तु ये सब फिरके गैर-मुस्लिम राज्यों को जल्द से जल्द इस्लामी राज्य बनाने में पूरी तरह से एकमत एवं एक जुट है।

4 comments:

  1. स्वामी लक्ष्मिशंकाराचार्य जी की पुस्‍तक ''इस्लाम आतंक ? या आदर्श'' से भी गलतफहमी दूर की जासकती है


    http://siratalmustaqueem.blogspot.com/2010/09/blog-post_15.html

    विद्वानों ने मुझसे कहा -" आपने क़ुरआन माजिद की जिन आयतों का हिंदी अनुवाद अपनी किताब में लिया है, वे आयतें अत्याचारी काफ़िर मुशरिक लोगों के लिए उतारी गयीं जो अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) से लड़ाई करते और मुल्क में फ़साद करने के लिए दौड़े फिरते थे। सत्य धर्म की रह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरुद्ध ही क़ुरआन में जिहाद का फ़रमान है।
    उन्होंने मुझसे कहा कि इस्लाम कि सही जानकारी न होने के कारण लोग क़ुरआन मजीद कि पवित्र आयतों का मतलब समझ नहीं पाते। यदि आपने पूरी क़ुरआन मजीद के साथ हज़रात मुहम्मद ( सल्लालाहु अलैहि व सल्लम ) कि जीवनी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते ।"
    मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैंने सब से पहले पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद कि जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नज़रिए से जब मन की शुद्धता के साथक़ुरआन मजीद शुरू से अंत तक पढ़ी, तो मुझे क़ुरआन मजीद कि आयतों का सही मतलब और मक़सद समझ आने लगा ।
    सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी किताब ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा है जिसका मुझे हार्दिक खेद है ।
    मैं अल्लाह से, पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांगता हूँ तथा अज्ञानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूं। सभी जनता से मेरी अपील है कि ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' पुस्तक में जो लिखा है उसे शुन्य समझें ।

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  2. ये आयत में अल्लाह उन सभी आम इंसानो से अच्छा अच्छा सुलूक अच्छा व्यहवहार रखने की बात करता हे

    चाहे फिर वो किसी भी धर्म मत के मानने वाला हो👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼

    अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निस्संदेह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है (60:8)

    हमें हुक्म हे अल्लाह का की नाइंसाफी नहीं कर सकते यदि कोई दुश्मन ही क्यों ना हो 👇🏼👇🏼

    ऐ ईमान लेनेवालो! अल्लाह के लिए खूब उठनेवाले, इनसाफ़ की निगरानी करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं (5:8)

    अब मोहम्मद स अ व की तालिम मुसलमानो के लिए👇🏼👇🏼👇🏼

    "My father wrote to 'Ubaidullah bin Abi Bakrah who was a judge: "Do not pass a judgement between two people while you are angry, for indeed I heard the Messenger of Allah (ﷺ) saying: 'The judge should not judge between two people while he is angry.'"

    English translation : Vol. 3, Book 13, Hadith 1334

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  3. ये आयत में अल्लाह उन सभी आम इंसानो से अच्छा अच्छा सुलूक अच्छा व्यहवहार रखने की बात करता हे

    चाहे फिर वो किसी भी धर्म मत के मानने वाला हो👇🏼👇🏼👇🏼👇🏼

    अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निस्संदेह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है (60:8)

    हमें हुक्म हे अल्लाह का की नाइंसाफी नहीं कर सकते यदि कोई दुश्मन ही क्यों ना हो 👇🏼👇🏼

    ऐ ईमान लेनेवालो! अल्लाह के लिए खूब उठनेवाले, इनसाफ़ की निगरानी करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं (5:8)

    अब मोहम्मद स अ व की तालिम मुसलमानो के लिए👇🏼👇🏼👇🏼

    "My father wrote to 'Ubaidullah bin Abi Bakrah who was a judge: "Do not pass a judgement between two people while you are angry, for indeed I heard the Messenger of Allah (ﷺ) saying: 'The judge should not judge between two people while he is angry.'"

    English translation : Vol. 3, Book 13, Hadith 1334

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  4. स्वामी विवेकानंद का इस्लाम के बारे में नज़रिया

    मुहम्मद (इन्सानी) बराबरी, इन्सानी भाईचारे और तमाम मुसलमानों के भाईचारे के पैग़म्बर थे। ...जैसे ही कोई व्यक्ति इस्लाम स्वीकार करता है पूरा इस्लाम बिना किसी भेदभाव के उसका खुली बाहों से स्वागत करता है, जबकि कोई दूसरा धर्म ऐसा नहीं करता। ...हमारा अनुभव है कि यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने इस (इन्सानी) बराबरी को दिन-प्रतिदिन के जीवन में व्यावहारिक स्तर पर बरता है तो वे इस्लाम और सिर्फ़ इस्लाम के अनुयायी हैं। ...मुहम्मद ने अपने जीवन-आचरण से यह बात सिद्ध कर दी कि मुसलमानों में भरपूर बराबरी और भाईचारा है। यहाँ वर्ण, नस्ल, रंग या लिंग (के भेद) का कोई प्रश्न ही नहीं। ...इसलिए हमारा पक्का विश्वास है कि व्यावहारिक इस्लाम की मदद लिए बिना वेदांती सिद्धांत—चाहे वे कितने ही उत्तम और अद्भुत हों—विशाल मानव-जाति के लिए मूल्यहीन (Valueless) हैं...।’’

                                                                                                 स्वामी विवेकानंद (विश्व-विख्यात धर्मविद्)
                                                                                    —‘टीचिंग्स ऑफ विवेकानंद, पृष्ठ-214, 215, 217, 218)
                                                                                                            

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