Tuesday, February 1, 2011

एक मैक्समूलर की खोज क्यों?

उन्नीसवीं सदी में ईस्ट इंडिया कम्पनी के सामने ऐसी कौन सी विवश्ताएं थीं जो उन्हें अंग्रेजी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के ज्ञान में अधकचरे, अनुभवहीन, चौबीस वर्षीय, विदेशी जर्मन निवासी मैक्समूलर को वेद भाष्य के लिए चुनना पड़ा? क्या वे १७५७ में स्थापित ब्रिटिश शासन को हिन्दू धर्मशास्त्रों का गहन अध्ययन कर यहाँ हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार शासन चलाना चाहते थे? या इसके विपरीत क्या वे हिन्दू धर्म शास्त्रों को विकृत और हिन्दू संस्कृति को हेय सिद्ध करके हिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करना चाहते थे? ताकि भारत सदैव के लिए एक ईसाई राज्य हो सके।

भारत में ईसाईयों की गतिविधियाँ

ईसाईयत एक धर्म आधारित साम्राज्यवादी आन्दोलन हैा, और प्रारम्भ से ही भारत ईसाई मिशनरियों के निशाने पर रहा है। ईसाईयत छल, कपट, धोखा, जालसाजी और प्रलोभन आदि के द्वारा गैर-ईसाईयों के धर्मान्तरण के लिए विखयात रही है। भारत में ऐसा आज भी सैक्यूलरिज्म की आड़ में और तेज गति से हो रहा है; और लगभग १००० हिन्दूप्रतिदिन धर्मान्तरित हो रहे हैं। भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के पहले भी पुर्तगाल से सत्रहवीं सदी में, सेन्ट जोवियर, और इटली से रोबर्ट डी नोबली (१५७७-१६५६) यहाँ आए थे जिन्होंने छल-कपट से अनेक हिन्दूओं का धर्मान्तरण किया।

ईसाई मिशनरियों ने 'गोवा इन्क्वीजीशन' के दौरान (१५८०-१८१२), हजारों हिन्दुओं को जिन्दा जलाया, कत्ल किया और उन्हें अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया (प्रियोलकर)। नोबली ने अपने को इटली का रोमन ब्राह्मण बताया और १५७८ में, 'एजुरवेदम्‌' के नाम से एक नकली वेद की रचना की। लेकिन रोबर्ट नोबली के छल-कपट की कलई १८४० में पूरी तरह खुल गई। तब तक, उसके धोखे से, अनेक हिन्दू ईसाई बन चुके थे।

इसी प्रकार एक दूसरा जैसुआइट मिशनरी अब्बे डुबोइस भी अठाहरवीं सदी में भारत आया। लेकिन कर्नाटक के हिन्दुओं ने उसकी एक न सुनी क्योंकि डुबोइस एक धोखेबाज था। (नटराजन, पृ ग्ग्ग्टप्प्)। इसके बाद, १७९३ में, इंगलैंड से बेपटिस्ट चर्च का एक दल रेव. विलियम कैरी के नेतृत्व में भारत आया जिसने कलकत्ता के पास, १७९९ में सीरमपुर मिशन स्थापित किया। कैरी और उसके साथी मार्शमैन ने भी हिन्दुओं के धर्मान्तरण के लिएधोखाधड़ी का सहारा लिया। लेकिन तत्कालीन बंगाल के सुप्रसिद्ध समाज सुधारक एवं प्रकाण्ड विद्वान राजा राममोहन रॉय (१७७२-१८३३) की विद्वता, तर्क शैली और अकाट्‌य प्रमाणों के सामने ईसाईयों की एक दाल न गली। १८१५ से १८३३ तक कलकत्ता में, जहाँ कि उस समय ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुखय कार्यालय था, श्री रॉय का यहाँ के बौद्धिक वर्ग में अच्छा खासा प्रभाव था।

पादरी एडम द्वारा हिन्दू धर्म स्वीकारने की प्रतिक्रिया

१८२१ में, कलकत्ता में एक ऐसी अविश्वसनीय और सनसनीखेज घटना घटी जिसकी प्रतिक्रिया के कारण ब्रिटिश साम्राज्य और ईसाईयत की भारत में हिन्दू धर्म सम्बन्धी कार्यक्रमों, योजनाओं और युद्ध नीतियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा।

हुआ यह कि १९ मार्च १८१८ को मिशन सोसाइटी, लंदन का रेव. विलियम एडम नामक एक ईसाई मिशनरी सीरमपुर केन्द्र से सम्मिलित हुआ और उसे राजा राम मोहन रॉय को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया। इस कार्य भार को पूरा करने के लिए पादरी एडम श्री रॉय के अधिक सम्पर्क में आने लगा और अनेकों बार वे आपस में धार्मिक वाद-विवाद में भी उलझने लगे। एक बाद पादरी एडम ने बाइबिल के 'ट्रिनिटी सिद्धान्त यानी 'तीन दैवीशक्तियाँ'- पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा', तीनों एक ही हैं और एक में ही तीनों हैं, इस विषय पर चर्चा की। जबकि श्री रॉय ने वेदों और उपनिषदों के आधार पर प्रमाण देते हुए हिन्दुओं के एकेश्वरवाद के पक्ष में तर्क दिए तथा वेदों की श्रेष्ठता और उनकी तर्कसंगति को स्थापित किया। रॉय के विचार से सहमति जताते हुए एडम ने ७ मई १८२१ को अपने मित्र एन. ब्राइट को अपने पत्र में इस प्रकार लिखाः-

"It is several months since I began to entertain some doubts respecting the deity of Jesus Christ, suggested by frequent discussions with Ram Mohan Roy, whom I was trying to bring over to the belief of that doctrine, and in which I was joined by Mr. Yates, who also professed to experience difficulties on the subject…..I do not hesitate to confess that I am unable to remove the weighty objections which present themselves against the doctrine……the objections against it, compared with the arguments for it, appear to me like a mountain compared with a mole hill."

(Life and Letters of Ram Mohan Roy, p.68; Bharti, p.3).

अर्थात्‌ ''मैंनेराजा मोहन रॉय से कई महीनों तक उनके जीजस संबंधी संदेहों को दूर करने के उद्‌देश्य से अनेक बार बातचीत की जिसमें मैं जीजस क्राइस्ट के सिद्धान्त को मनवाने के लिए प्रयत्नशील था। इस कार्य में मेरा साथ श्री येट्‌स भी दे रहे थे। परन्तु इन्हें भी जीजस के सिद्धान्तों की पुष्टि करने में कठिनाई अनुभव हुई है। मैं यह स्वीकारने में नहीं हिचक रहा हूँ कि मैं रॉय के जीजस के सिद्धान्तों को स्वीकारने के विरोध में दी गई तर्कों व आपत्तियों को दूर करने में असफल रहा हूँ, जो कि मुझे ईसाई सिद्धान्तों को न मानने की आपत्तियों और उनके समर्थन में दिए गए तर्क पहाड़ के सामने तिल समान प्रतीत हो रहे हैं।''

(लाइफ एण्ड लैटर्स ऑफ राममोहन रॉय, पृ. ६८; भारती, पृ. ३)।

वह श्री रॉय से इतना प्रभावित हुआ कि उसने ईसाई मत त्याग कर हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया। इस प्रकार एक ईसाई पादरी के तीन साल के भीतर बाईबिलीय 'ट्रिनिटी' को त्यागने और वैदिक एकेश्वरवाद में आस्था लाने की घटना ने लंदन ईसाई मिशनों में यकायक एक अप्रत्याशित भूचाल ला दिया। अमरीका के मिशन क्षेत्रों में भी अभूतपूर्व प्रतिक्रिया हुई और हड़कम्प आ गया। रेवरेण्ड एडम के ईसाईयत कोत्यागने और हिन्दू धर्म को स्वीकारने से ईसाई मिशनों और मिशनरियों को जबरदस्त धक्का पहुँचा जिससे उनकी भारत में नींव हिल गई। इसीलिए आज भी चर्च 'ट्रिनिटी' पर अधिक बल नहीं देता है।

इसकी प्रतिक्रिया में मिशन सोसायटी लंदन ने अपनी, २० जून १८२२ की वार्षिक रिपोर्ट में रेव. विलियम एडम के बारे में यह घोषणा कीः

"We mention with deep regret that Mr. Adam, late one of their member had embraced opinions derogatory to the honour of the Saviour, denying the proper divinity of 'Our god Jesus Christ' in consequence of which the connection between him and the society has been dissolved."

(Bharti, p. 4)


'हम अत्यन्त दुःख के साथ सूचित करते हैं कि अपने एक पूर्व सदस्य मि. एडम ने उद्धारक जीजस के विरुद्ध अपमानजनक विचार व्यक्त किए हैं और हमारे 'देव जीजस क्राइस्ट' के समुचित देवत्व को नकारा है। इसके परिणामस्वरूप उसके और लंदन सोसायटी के बीच सभी प्रकार के संबंध समाप्त कर दिए गए हैं।''

(भारती, प्र.4)

रेव. विलियम एडछम, जिसे चर्च ने अविश्वासी घोषित कर, निष्कासित कर दिया, वही सोसिनियम पादरी अब राम मोहन रॉय के साथ वैदिक धर्म के एकेश्वरवाद का प्रचारक हो गया।

उपरोक्त घटनाक्रम के आघात के परिणामस्वरूप ब्रिटिश कूटनीतिाों और मिशनरियों को अपनी मूल योजनाओं और युद्ध नीतियों को बदलने के लिए विवश होना पड़ा। अब मिशनरी जगत ने ईसाइयत के मुखय सिद्धान्तों और समस्याओं पर विचार करना प्रारंभ किया और वे सब इस नतीजे पर पहुँचे कि रॉय को 'ट्रिनिटी' संबंधी आपत्तियों का केवल इसी आधार पर उत्तर दिया जा सकता है कि वे कोई ऐसा व्यक्ति ढूंढ सकें जो संसार के सामने यह सिद्ध कर दे कि वेदों में भी बहुदेवतावाद है और वे भी अनेक देवताओं की उपासना की शिक्षा देते हैं। अतः इन घटनाओं ने ब्रिटिश शासकों को एक ऐसे व्यक्ति को खोजने के लिए विवश कर दिया जो हिन्दू धर्मशास्त्रों की ऐसी भ्रामक व विरूपित व्याखया कर सके जिसके परिणामस्वरूप मिशनरी हिन्दू धर्म की निदां कर सकें और वे हिन्दुओं को ईसाइयत में आसानी से धर्मान्तरण करने, तथा ईसाईयों की हिन्दू धर्म में वापिसी को रोकने में समर्थ हो सके।

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