Tuesday, February 1, 2011

मैक्समूलर एक ईसाई धर्म प्रचारक

निःसंदेह मैक्समूलर एक धर्मान्ध धर्म प्रचारक था जिसने ईसाईयत के लिए अपनी धार्मिक लड़ाईयाँ भाषा विज्ञान ओर वेदभाष्य की आड़ में लड़ी। उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों के धार्मिक व राजनैतिक हितों के लिए न केवल वेद एवं हिन्दू धर्म शास्त्रों के विरूपित भाष्य किए बल्कि अपने भाषणों में मिशनरियों को सिखाया कि वेद और हिन्दू धर्म शास्त्रों की निंदा किस प्रकार की जाए ताकि हिन्दुओं का ईसाईयत में धर्मान्तरण का कार्य सरल हो सके क्योंकि उसके वेद भाष्य का उद्‌देश्य ही यही था।

उसने जीवन भर ब्रिटिश प्रशासकीय मशीनरी का हिन्दुओं के धर्मान्तरण के लिए व्यापक रूप से प्रयोग किया। इसी संदर्भ में १६ दिसम्बर १८६८ को उसने भारत के लिए सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ड्‌यूक ऑफ आर्गायल को लिखाः

"...As for more than twenty years my principal work has been devoted to the ancient literature of India, I cannot but feel a deep as real sympathy for all that concerns the higher interests of the people of that country. Though I have never been in India, I have many friends there, both among the civilians and among the natives, and I believe I am not mistaken in supposing that the publication in England of the ancient Sacred writings of the Brahmans, which had never been published in India, and other contributions from different European scholars towards a better knowledge of the ancient literature and religion of India, have not been without some effect on the intellectual and religious movement that is going on among the more thoughtful members of Indian society.

I have sometimes regretted that I am not an Englishman and able to help more actively in the great work of educating and improving the natives. But I do rejoice that this great task of governing and benefiting India should have fallen to one who knows the greatness of the task and all its opportunities and responsibilities, who thinks not only of its political and financial bearings, but has a heart to feel for the moral welfare of those millions of human beings that are, more or less, directly, committed to his charge.

"India has been conquered once, but India must be conquered again, and this second conquest should be a conquest of education. Much has been done for education of late, but if the funds were tripled and quadrupled, that would hardly be enough.

"The results of the educational work carried on during the last twenty years are palpable everywhere. They are good and bad, as was to be expected. It is easy to find fault with what is called young Bengal, the product of English ideas grafted on the Indian mind. But young Bengal, with all its faults, is full of promise. Its bad features are apparent everywhere, its good qualities are naturally hidden from the eyes of careless observers...India can never be anglicized, but it can be reinvigorated...

"...The missionaries have done far more than they themselves seem to be aware of, nay, much of th~ work which is theirs they would probably disclaim. The Christianity of our nineteenth century will hardly be the Christianity of India. But the ancient religion of India is. doomed and if Christianity does not step in, whose fault will it be ?"

(LLMM., Vol. 1, p. 357-58).

''मेरा पिछले बीस वर्षों में मुखय काम भारत के प्राचीन साहित्य पर केन्द्रित रहा है। उस देश के लोगों के हित के बारे में मेरी गहरी और सच्ची सहानुभूति रही है हालांकि मैं कभी भारत नहीं गया हूँ। मगर मेरे ब्रिटिश और वहाँ के स्थानीय, दोनों ही प्रकार के लोगों में से अनेक मित्र हैं। मैं मानता हूँ कि यदि मुझे यह सोचने में कोई गलती न करे कि भारत के ब्राह्मणों की प्राचीन पवित्र पुस्तकें जो कि इंग्लैंड अथवा अन्य यूरोपीय देशों में प्रकाशित हुई जो पहले कभी भारत में भी नहीं हुई थी, उनका वहाँ के बौद्धिक जगत और धार्मिक आन्दोलन पर कुछ प्रभाव किए बगैर नहीं रहेंगी। यह प्रभाव उन लोगों पर भी अवश्य होगा जो कि भारतीय समाज के चिन्तनशील वर्ग के हैं। मुझे कभी-कभी खेद हुआ किमैं एक अंग्रेज नहीं हूँ जो कि भारत के स्थानीय लोगों को सुधारने और शिक्षित करने के महान कार्य में अधिक सक्रियता के साथ सहायक हो सकता था। फिर भी मैं अति प्रसन्न होता यदि यह भारत पर शासन करने और भारत को लाभ पहुँचाने का काम उसको दिया जाता जो इसके महत्व को पहचानता हो तथा इसके असर और उत्तरदायित्वों के महत्व को समझता हो। वह केवल इसके राजनैतिक और आर्थिक लाभों को ही नहीं देखता बल्कि उसका हृदय उन लाखों करोड़ों आत्माओं के प्रति नैतिकता की दृष्टि से भी उत्तरदायी हो।''

''भारत एक बार जीता जा चुका है लेकिन भारत को फिर से दुबारा जीता जाना चाहिए और यह दूसरी जीत (ईसाई धर्म) शिक्षा के द्वारा होनी चाहिए। अभी हाल में (ईसाई) शिक्षा के लिए काफी किया जा चुका है लेकिन यदि यह धनराशि तिगुनी या चौगुनी कर दी जाए तो ऐसा करना मुश्किल न होगा।''

''भारत का पूरी तरह से अंग्रेजीकरण नहीं किया जा सकता है मगर इसमें फिर से जान डाली जा सकती है... मिशनरियों ने उससे कहीं अधिक सफलता पाई है जितनी कि उन्हें आशा थी और उनके अधिकांश कामों की उपेक्षा की जा सकती है।''

''भारत की ईसाईयत शायद हमारी उन्नीसवीं सदी जैसी ईसाईयत भले ही न हो। लेकिन भारत का प्राचीन धर्म यहाँ डूब चुका है फिर भी यदि वहाँ ईसाईयत नहीं फैलती है, तो इसमें किसका दोष होगा।?''

(जी.प. खंड १, पृ. ३५७-३५८)

इतना ही नहीं, मैक्समूलर ने स्वयं पत्र व्यवहार द्वारा भारत के तत्कालीन धार्मिक नेताओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का लगातार अथक प्रयास किया क्योंकि यहाँ ही राजाराम मोहन रॉय ने ईसाईयत के ट्रिनिटी सिद्धान्त की जड़े उखेंड़ी थीं और पादरी एडम को १८२१ में, हिन्दू धर्म में दीक्षित किया था जो कि श्री रॉय को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने के लिए इंग्लैंड से भारत आया था।

राजा राम मोहन रॉय ने उस समय (१८२१ में) ईसाईयों द्वारा धर्मान्तरण के लिए जो तरीके अपनाए जाते थे उन्हें अपनी 'ब्राह्मणीकल मैग्जीन' के तीसरे (१८२१) अंक में इस प्रकार लिखाः

"During the last twenty years a body of English gentlemen who are called missionaries have been publicly endeavouring in several ways to convert Hindus and Muhammadans of this country into Christianity. The first way is that publishing and distributing among the natives various books, large and small, reviling both religions and abusing and ridiculing the Gods and saints of the former (Hindus) : the second way is that of standing in front of the doors of the natives or in public roads to preach the excellency of their own religion and the debasedness of that of others; the third way is that if any natives of low origin become Christian from the desire of gain or from any other motives, these gentlemen employ and maintain them as a necessary encouragement to others to follow their example.

It is true that the apostle of Jesus Chrust used to preach the superiority. of the Christian religion to the natives of different countries; but we must recollect that they were not of the rulers of those countries where they preached. Were the missionaries likewise to preach the Gospel and distribute books, in countries not conquered by the English such as Turkey and Persia etc : which are much nearer England they would be esteemed a body of men truly zealous in propagating religion and in following the example of the founders of Christianity. In Bengal where the English are the sale rulers and the mere name of Englishman is sufficient to frighten people an encroachment upon the rights of her poor timid and humble inhabitants and upon their religion can not be viewed in the eyes of God or pubilc as a justifiable act, for wise and good men always feel disinclined to hurt those that are of much less strength than themselves and if such weak creatures be dependent on them and subject to their authority they can never attempt even in thought to mortify their feelings"

(Christ-A, Myth by Varma pp. 61-62)

तात्पर्य यह है कि ''ईसाई मिशनरी साहित्य बांटकर, सार्वजनिक जगहों पर ईसाईयत की प्रशंसा करके और हिन्दू धर्म एवं इस्लाम की निन्दा करके और पिछड़े लोगों को प्रलोभन देकर उनका धर्मान्तरण करते हैं। ऐसा करना और भी सरल होता है जबकि अंग्रेज उस समय भारत के प्रशासक है।'' ईसाई मिशनरी आज भी काँग्रेस के राजनैतिक संरक्षण में उपरोक्त तरीकों से भारत में हिन्दुओं का धर्मान्तरण कर रहे हैं जैसा कि १८० साल पहलेराजा राम मोहन रॉय के समय में करते थे।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि १८वीं और १९वीं सदी में बंगाल में हिन्दू भक्ति आन्दोलन व अन्य उपायों से पुनर्जागरण की एक प्रबल लहर के बीच से गुज़र रहा था तथा ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, राजा मोहन रॉय, केशव चन्द सेन, प्रतापचन्द मजूदार आदि ब्रह्म समाजी नेता हिन्दू समाज में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार लाने में सक्रिय थे। मैक्समूलर ने ब्रह्म समजा के नेताओं को ईसाईयत अपनाने के लिए अपने तर्कों एवं सुझावों सहित अनेक पत्र लिखें:

"On 3rd August 1881, he wrote to Majoomdar... : "My Dear Mr. Protap Chunder Majoomdar,...I must tell them all what I told you when we parted at Oxford, if you really want me, I shall always be ready...I have watched your struggles in India for many years, and I have often pleaded your cause in England with friends who were frightened by what they heard about Keshub Chunder Sen. Yet I trusted in you and in the goodness of cause, and remained silent, at least in public."

(Bharti, p. 149)

पहला पत्र-

३ अगस्त १८८१ को मजूमदार को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने कहाः''मैंने तुम्हारे भारत में संघर्षों व समाज सुधारों को अनुक वर्षों से देखा है। मैने तुम्रुहारे पक्ष में इंग्लैंड में दलीलें दी हैं जो कि वे केशवचन्द सेन के कथनों से भयभीत थे। फिर भी मैं तुम्होरे उद्‌देश्य को श्रेष्ठ होने के कारण तुम पर भरोसा करके चुप रहा (भारती पृ. ४९)। अपनी मृत्यु से लगभग १६ महीने पूर्व जनवरी १८९९ को उसने मजूमदार को फिर एक लम्बा पत्र लिखा। जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं:

"My dear friend, you know how many years. I have watched your efforts to purify the popular religion of India, and thereby to bring it nearer to the purity and perfection of other religions, particularly Christianity. You know also that I have paid close attention to the endeavours of those who came before you, of men like Rammohun Roy, Debendranath Tagore, Keshub Chunder Sen, and others, in whose footsteps you have boldly followed, and whose work you have faithfully carried on, as far as circumstances allowed you to do so. What I have much admired, both in yourself and your noble predecessors and fellow workers, is the patience and the even temper with which you have prosecuted your religious and social reforms."

"Now it seems to me that the first things you have to do is to try to remove the differences that still exist among yourselves, and to settle how much of your ancient religion you are willing to give up, if not as utterly false, still as antiquated. You have given up a great deal, polytheism, idolatry, and your elaborate sacrificial worship. You have surrendered also, as far as I can judge, the claim of divine revelation which had been so carefully formulated by your ancient theologians in support of the truth of the Vedas. These were great sacrifices, for whatever may be thought of your ancient traditions, to give up what we have been taught by our fathers and mothers, requires a very strong conviction, and a very strong will. But though this surrender has brought you much nearer to us, there still remain many minor points on which you differ among yourselves in your various samajees or congregations. Allow me to say that these differences seem to me to have little to do with real religion, still they must be removed, because they prevent united action on your part...If you are once united among yourselves, you need no longer trouble about this or that missionary, whether he comes !E0m London, Rome, Geneva, or Moscow. They all profess to bring you the Gospel of Christ. Take then the New Testament and read it for yourselves, and judge for yourselves whether the words of Christ, as contained in it, satisfiy you or not.

"I know that you yourself, as well as Rammohun Roy and Keshub Chunder Sen, have done that. I know one countryman of yours who wrote a searching criticism on the Old and New Testaments, and then joined the Christian Church, as established in England, because there was something in the teaching and life of Christ, which he could not withstand. I know this is not an argument, yet it is something to reflect on.

"Christ comes to you as He comes to us in the only trustworthy records preserved of Him in the Gospels. We have not even the right to dictate our interpretation of these Gospels to you, particularly if we consider how differently we interpret them ourselves. If you accept His teachings, as there recorded, you are a Christian. There is not necessacity whatever of your being formally received into the membership of one or the other sect of the Christian Church, whether reformed or unreformed. That will only delay the growth of Christianity in India."

..... You would be surprised if you know how many honest Christians feel exactly what you feel about the Atonement, and that in this case also, those who compass sea and land to make one proselyte, are the very p'eople who prevent you from becoming proselytes, from coming to Christ and to us.

..."I have told you already that Keshub Chunder Sen, in intimate conversation, told me that to all intents and purposes he was a disciple of Christ, and when I wrote to you, and when I think of you, I cannot resist the feeling that you too are a true follower of Christ....

"Tell me some of your chief difficulties that prevent you and your countrymen from openly following Christ. I shall do my best to explain how I and many who agree with me have met them, fnd solved them. I do not hesitate to say that on some of these points we may have to learn from you more than we can teach you, and I say this honestly, and from personal experience. That too will be a lesson difficult to learn for our bishops and missionaries, but in Christian humility they will have to learn it. From my point of view, India, at least the best partof it, is already converted to Christianity. You want no persuasion to become a follower of Christ. Then make up your mind to act for yourselves. Unite your flock, and put up a few folds to hold them together, and to prevent them from straying. The bridge has been built for you by those who came before you. Steep boldly forward, it will not break under you, and you will find many friends to welcome you on the other shore, and among them none more delighted than your old friend and fellow labourer. F. Max. Muller,"

(LLMM, Vol. 2, pp. 411-416)


दूसरा पत्र-

अर्थात्‌ ''मेरे प्रिय मित्र- तुम जानते हो कि मैं कितने वर्षों से तुम्हारे भारत के धर्म को सुधारने के प्रयासें को देख रहा हूँ जिसके द्वारा तुम इसे अन्य धर्मों, विशेषकर ईसाईयत, की पवित्रता और पूर्णता के समीप लाने का प्रयास कर रहे हो।'' .....''तुमने काफी कुछ त्याग दिया है जैसे बहुदेवतावाद, मूर्तिपूजा और विस्तृत बलिदानी पूजा। जहाँ तक मैं समझ सका हूँ कि तुमने वेदां का ज्ञान ईश्वरीय होने का दावा भी तयाग दिया है जिसकी कि प्राचीन धर्मशास्त्रियों ने बड़ी सावधानी से वेदों के सत्यों के समर्थन में स्थापित किया था।''

''यदि तुम एक बार आपस में इकठ्‌ठा हो जाओ (यानी ईसाई हो जाओ, लेखक) तो तुमाके इस बात की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है कि यह या वह मिशनरी लंदन, रोम, जिनेवा अथवा मास्को से आया है। वे सब तुम्हें क्राइस्ट के सुसमाचार तक ले जाने का ही प्रयास करते हैं। फिर तुम- न्यूटेस्टामेंट उठाओं और अपने आप पढ़ां और स्वयं जाँच करो कि जीजस के वचन, जैसे कि उसमें दिए गए हैं, तुम्हें सन्तुष्ट करते हैं या नहीं।''

''जीजस क्राइस्ट तुम्हारे पास उसी प्रकार आता है जैसे कि वह हमारे पास आता है क्योंकि गोस्पिलों में उसके विश्वसनीय वचन सुरक्षित हैं.... यदि तुम उसकी शिक्षाओं को स्वीकार करते हो, जैसी कि वे वहाँ दी गई हैं, तो तुम एक ईसाई हो।''

''आपको और आपके देशवासियों को खुले तौर पर ईसा मसीह की शरण में आने में जो कठिनाईयाँ हों उन्हें मुझे बताओं और जब मैं उनके बारे में तुम्हें लिखूँगा तो बतालाऊँगा कि मैंने और अन्य अनेकों, जो मुझसे सहमत हैं ने, उन्हें किस तरह हल किया है। मैं कहने में हिचकिचाता नहीं हूँ कि इनमें से कुछ बातों के बारे में हमें तुमसे सीखना है, उससे अधिक जो हम सिखा सकते हैं और यह सब मैं सच्चाई से और अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ। वह सब हमारे मिशनरियों और बिशपों को भी सीखना मुश्किल होगा। मगर उनको सीखना पड़ेगा।''

''मेरे दृष्टिकोण से तो भारत, कम से कम इसका सर्वोत्तम भाग, ईसाई मत में परिवर्तित हो चुका है। आपको ईसाई बनने के लिए प्रेरणा देने की भी आवश्यकता नहीं है। साहसपूर्वक बस अब आगे बढ़ने के लिए मन पक्का करिए। अपने लोगों को इकठ्‌ठा करो औरउनको संगठित बने रखने का प्रबन्ध करो। उन्हें भटकने से बचने के लिए प्रयास करो। तुम्हारे आने के लिए तुमसे पहले आने वालों ने पुल बना दिया है। साहसपूर्वक आगे बढ़िए। यह (पुल) तुम्हारे बोझ से टूटेगा नहीं और आप देखेंगे कि दूसरे किनारे पर आपका स्वागत कने के लिए अन्यों के साथ आपका पुराना साथी और मित्र भी उपस्थित होगा जिससे अधिक खुश कोई और न होगा,'' एफ. मैक्समूलर।

(जी.प. खंड २ पृ. ४११-४१६)

मजूमदार ने इसकी प्रतिक्रिया में एक भारतीय अखबार में इस प्रकार लिखा हैः

"So we must either renounce our own national temperament …or renounce Christ--- or reembody our faith and aspirations under a new name, form and spirit. We have taken this third course"

(LLMM, Vol. 2, p. 394)

तीसरा पत्र-

यानी ''अतः हमें या तो अपनी राष्ट्रीय मानसिकता त्याग देनी चाहिए या हम क्राइस्ट तो त्याग दें या हम अपने धर्म और आकांक्षाओं के एक नए नाम के अन्तरगत उसे नया स्वरूप और तेजस्विता प्रदान करें। हमरे इस तीसरे विकल्प को अपनाया है।''

(जी.प. खं. २ पृ. ३९४)

कुछ दिनों बाद मजूमदार ने, उसके जून १८९९ के पत्र के त्तर में ईसाईयत के प्रति कुछ उदारता दिखाई और लिखा-

"A wholesale accptance of the Christian name by Brahmo­-Samaj is neither possible nor desireable, within reasonable time; it would lead to misconception, which would do only harm. But acceptance of the Christ spirit, or, as you term it, "the essential religion of Christ", is not only possible, but an actual fact at the present moment. Liberal souls in christendom will' have to rest content with that, at least now; and then let the name take care of itself'

(LLMM, Vol. 2, p. 419)

चौथा पत्र-

''ब्रह्म समाज द्वारा किसी ईसाई नाम को पूरी तरह अभी निकट भविष्य में स्वीकारना न तो सम्भव ही है, और न वांछनीय। उससे एक गलत संकेत जाएगा जो कि केवल हानिकारक होगा। लेकिन क्राइस्ट की भावना स्वीकारना या जैसा कि तुम इसे 'क्राइस्ट का सारभूत धर्म' कहते हो ने केवल सम्भव है बल्कि वर्तमान में एक सच्चाई भी है। ईसाई तन्त्र में उदार आत्माओं को कम से कम अभी तो, इतने पर ही सन्तोष करना पड़ेगा। और फिर नाम अपने आप उभरकर आ जाएगा।''

(जी पं. खं. २ पृ. ४१९)

उपरोक्त पत्र से प्रोत्साहित होकर मैक्समूलर ने नवम्बर१८९९ को मजूमदार को इस प्रकार लिखाः

"...of course, I have been abused by the Indian papers and by the journals in England. Let me answer one point in your very kind letter. The name to be adopted by your own reformed Hinduism would be merely geographical expression. Hinduism as a religion would mean the religion of the Hindus or of India, and this would comprise every variety of religion practised in India, Durga worship, Buddhism, Mohammedanism, etc. It would be the name of a mere congeries. You object to anything like Christian, even Christian Brahmos is not satisfactory to you. But surely you owe much to Christ and Christianity, your very movement would not exist without Christianity. One must be above public opinion in these matters, and trust to truth which is stronger than public opinion. However, the name is a small matter. Only I thought that truth and gratitude would declare in favour of Christian Brahmos, or Christian Aryas."

(LLMM, Vol. 2, p. 397)


पाँचवां पत्र-

अर्थात्‌ ''वास्तव में भारतीयऔर इंग्लैंड के पत्रों में मेरी निन्दा की गई है। पर तुम्हारे सुधारे हुए नए हिन्दू धर्म का नाम ऐसा हो जो कि केवल भौगोलिक भावनओं का परिचायक हो। उस हिन्दुज्म का, धर्म के रूप में, मतलब होगा हिन्दुओं का या भारत का धर्म और इत तरह उसमें वे सभी प्रकार के मत होंगे जो कि भारत में प्रचलित हैं जैसे दुर्गा पूजा, बौद्धमत, मुहम्मदी मत आदि। इस प्रकार का नाम उन सब मतों का सम्मिश्रण नाम होगा। तुम्हें ईसाईयत जैसे नाम पर आपत्ति है अथवा क्रिश्चियन ब्रह्मोज भी पसन्द नहीं है। लेकिन निश्चय ही तुम क्राइस्ट और ईसाईयत के प्रति आभारी हो, तुम्हारा यह आन्दोलन ईसाईयत के बिना जीवित न रह सकेगा..... फिर भी नाम एक छोटा-सा मामला है। मैंने सोचा कि सच्चाई ओर कृतज्ञता के फलस्वरूप तुम क्रिश्चियन-ब्रह्मोज या क्रिश्चियन-आर्याज नाम के पक्ष में निर्णय लोगे''।

(जी. प., खं. २, पृ. ३९७)

मैक्समूलर के क्रिश्चियन ब्रह्मोज या क्रिश्चियन आर्याज नाम पर मिशनरियों की आपत्तियाँ होने पर भी, उसने पी.सी. मजूमदार को ११ मार्च १९०० को फिर एक पत्र इस प्रकार लिखाः

"My dear friend, you ought to know me enough to know that I am not trying to convert you and your friends to Christianity. If you are not a Christian, you must not call yourself a Christian. But I confess when I judge from Keshub Chunder Sen's writings, I thought that he was, and you were, more of a Christian than many who call themselves so. And if that is so, then the name of Brahmos or Hindus seemed to me a mere misnomer, and so far not quite honest..."

"I do not want you to join any existing Church or sect, I only wish you to give honour to the name of Christ, to whom you owe the best part of your present religion. If you have more truth to bring into the Christian Church, do so by all means. Tell me what doctrines you wish to profess, and it would not be difficult to tell you whether they are compatible with Christianity or not. But you will have to speak definitely, so that we may understand each other..."

"Do not be afraid, do not leave things unsaid which you hold to be true, but which will not be popular in India. There is great work open to you, and work that must be done, and which many include Brahmans and Mohammedans as well as Christians. But to do that work well will require perfect sincerity, we require men like Keshub and like yourself.

"I wish I were younger and stronger, but as long as I can I shall fight for religion in the true sense of the word." Religion should unite us, not seperate us...

(LLMM vol. 2, pp. 28-29)

छठा पत्र-

''मेरे प्रिय मित्र- तुम मुझे काफी जानते हो, तो यह भी जानो कि मैं तुम्हें और तुम्हारे साथियों को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। यदि तुम ईसाई नही हो तो तुम्हें अपने को ईसाई नहीं कहना चाहिए। लेकिन मैं स्वीकारता हूँ जब मैं केशवचन्द्र सेन को उसके लेखों के आधार पर रखता हूँ, तो मुझे लगता है कि वह एक ईसाई है और तुम भी उन सबसे अधिक ईसाई हो जो कि अपने को ईसाई होने का दावा करते हैं। और ऐसा है, तो ब्रह्मोज या हिन्दू नाम देना मुझे अनुपयुक्त प्रतीत होता है, और अब तक यह ईमानदारी नहीं रही.... मैं नहीं चाहता कि तुम किसी वर्तमान सम्प्रदाय या यर्च को अपना लो। मैं तो केवल इतना चाहता हूँ कि तुम जीजस क्राइस्ट के नाम का सम्मान करोजिसके प्रति तुम्हारे सम्प्रदाय का अधिकांश समर्पित है।''

(जी.पं., खं. २, प. २८-२९)

मैक्समूलर ने देवेन्द्रनाथ टेगौर और केशवचन्द्र सेन और प्रथम भारतीय आई.सी. एस. सत्येन्द्र नाथ टेगौर को भी ईसाईयत में धर्मान्तरित करने काा प्रयास किया परन्तु वह सफल न हो सका। मगर अपनी निराशा को उसने इस प्रकार व्यक्त किया।

''मेरी कामना है कि मैं और अधिक युवा और शक्तिशाली होता। फिर भी जब तक मैं कर सकता हूँ, मैं अपने धर्म के लिए सच्ची निष्ठा से संघर्ष करता रहूँगा।

(जी.प. खं. २, पृ. २८-२९)

मैक्समूलर की भारतीयों को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने की कितनी तीव्र उत्कंठा थी, इसका अनुमान, २३

नवम्बर १८९८ को, अपनी रोग शय्या से, सर हेनरी ऑकलेंड को लिखे पत्र से लगाया जा सकता हैः

"I have not much faith in missionaries, medical or otherwise. If we set such men again in India as Ram Mohan Roy, or Keshub Chand Sen, and if we get an archbishop at Calcutta who knows what Christianity is, India will be Christianised in all that is essential in the twinkling of an eye. On this too, we must be hopeful, but not too sanguine."

(LLMM, Vol. 2, p. 398)

सातवाँ पत्र-

''मुझे मिशनरियों, चाहें वे मैडीकल के हों या अन्य, मुझे अधिक विश्वास नहीं है। यदि हम राजाराम मोहन रॉय या केशवचन्द्र सेन जैसे लोग दुबारा भारत भेज सकें और कलकत्ता के लिए एक भरोसा आर्कबिशप मिल सके जो यह जानता हो कि ईसाईयत क्या है तो सारा भारत पलक मारते ही ईसाईयत के उस सब जो कि आवश्यक है, में धर्मान्तरित हो जाएगा। इस पर भी हमें, आशावान रहना चाहिए, लेकिन बहुत अधिक आशावादी नहीं।''

(जी. पं. खं २, पृ. ३९८)

उपरोक्त पत्रों के बाद भी क्या किसी को मैक्समूलर के एक कट्‌टर ईसाई धर्म प्रचारक होने में संदेह रह जाता है जो भारत में हिन्दू धर्म को पूरी तरह समाप्त कर यहाँ ईसाईयत स्थापित करना चाहता था।


सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट सीरीज़ (पूर्व की पवित्र पुस्ताकें की ग्रंथमाला)

मैक्समूलर ने सम्पूर्ण ऋग्वेद के छः खण्डों में अंग्रेजी भाष्य प्रकाशित (१८४९-७४) करने और १८७६ में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से भाषा विज्ञान के प्रोफेसर पद से रिटायर हो जाने के बाद ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश शासकों के सहयोग से केवल भारत ही नहीं बल्कि विश्वभर में ईसाईयत को फैलाने के उद्‌देश्य से एक बहुतमहत्वाकांक्षी और दूरगामी प्रभावशाली योजना बनाई। इसका मूल उद्‌देश्य सभी विश्वधर्मों में ईसाईयत को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करना था। फिर भी इसे तुलनात्मक धर्मशास्त्र अध्ययन नहीं का जा सकता क्योंकि कहीं भी सीधे-सीधे तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत नहीं किया गया है। परन्तु इतना अवश्य है कि ये सब गैर-ईसाई धर्म ग्रंथ हैं। इन मुखय धर्मगं्रथों की सीरीज की ईसाईयत-समर्थक व्याखया और इनका सम्पादन करने तथा इनके लिए मन चाहे विद्वान ढूंढने का काम मैक्समूलर को सौंपा गया। लगभग बीस विद्वानों, जिनमें से अनेक जर्मनी के थे, ने लगभग तीस वर्षों तक (१८७९-१९१०) अथक परिश्रम करके विश्व के सात धर्मों के प्रमुख धर्मग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद को पचास खंडों में तैयार किया (तालिका -२)। इनमें से जर्मनी के कुछ विद्वानों ने मैक्समूलर को ऋग्वेद भाष्य में भी सहयोग दिया था।

तालिका २. मैक्समूलर द्वारा सम्पादित सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट

(पचास खंडों में; : प्रकाशन वर्ष कोष्ठ में हैं।)



खंड संखया एवं प्रकाशन वर्ष
पुस्तक एवं लेखक का नाम
१, १५ (१८८४, १८९०) उपनिषद (२ खंड) - मैक्समूलर'
२, १४ (१८७९, १८८२)

सेक्रेड लॉज़ ऑफ दी आर्यन्स (२ खंड) - जॉर्जबुहलर'
३, १६, २७, २८, ३९, ४० (१८७९, १८८२, १८८५, १८८५, १८९१, १८९१) सेक्रेड बुक्स ऑफ चाइना ( ६ खंड) - जैम्स लैंगे।
४, २३, ३१ (१८८२, १८८७, १८८७) जिन्देवस्ता (३ खंड)- जेम्स डरमेस्टर एण्ड एल.एच. मिल्स
५, १८, २४, ३७, ४७ (१८८०, १८८२, १८८५, १८९२, १८९७) पहलवी टैक्सट्‌स (५ खंड)- ई. डब्लू वेस्ट
६, ९ (१८८०) कुरान (२ खंड) ई.एच. पालमर
७ (१८८०) इन्स्टीट्‌यूट्‌स ऑफ विष्णु- ज्युलियस जौली'
८ (१८८२) भगवद गीता-सहित सनक्तु जातीय एण्ड दी अनुगीता- काशीनाथ त्रियम्बक तेलंग
१० (१८८१) धम्मपद एण्ड सुत्तनिपत्त- एफ. मैक्समूलर' एण्ड वी. फौसबौल
११ (१८८१) बुद्ध सुत्तास- टी. डब्लू-राइस डेविड्‌स

१२, २६, ४१, ४३, ४४ (१८८२, १८८५, १८९४, १८९५, १९००)
शतपथ ब्राह्मण (५ खंड)- ज्युलियस ऐगलिंग'

१३, १७, २० (१८८२, १८८५, १८८५)
विनय टैक्सट्‌स (३ खंड)-टी.डब्ल्यू-राइस डैविड्‌स एण्ड हरमन औल्डिनबर्ग'
१९ (१८८३) फो-शो हिंग-सान-किंग-सम्यून बील
२१ (१८८४) सद्‌धर्म पुंडरिका या लोटस ऑफ दी टू लॉज- एच.कर्न
२२, ४५ (१८८४, १८९५) जैन सूत्राज़ (दो खंड)- हरमन जैकोबी
२५ (१८८६) दी लॉज़ ऑफ मनु (मनु स्मृति)- जार्ज बुहलर'
२९, ३० (१८८६, १८९२) गृह्य सूत्राज़(२ खंड) हरमनऔल्डिनबर्ग' एण्ड एफ. मैक्समूलर'
३२, ४६ (१८९१, १८९७) वैदिक हिम्स (२ खंड) एफ. मैक्समूलर' एण्ड हरमन औल्डिनबर्ग'
३३ (१८८९) माइनर लॉ बुक्स- ज्यूलियस जौली'
३४, ३८ (१९०४) वेदान्त सूत्राज़ विद शंकराचार्याज़ कमैन्ट्री (२ खंड) जी. थिबौट'
३५, ३६ (१८९०, १८९४) क्वेश्चन्स ऑफ किंग मिलिन्द (२ खंड) टी. डब्ल्यू राइज़ डैविड्‌स
४२ (१८९७) हिम्स ऑफ दी अथर्ववेद- एम. ब्लूमफील्ड
४८ (१९०४) वेदान्त सूत्राज विद रामानुजाज श्री भाष्य- जी. थिबौट'
४९ (१८९४) बुद्धिस्ट महायान टैक्सट्‌स- ई.बी. कॉवेल, एफ. मैक्समूलर' एण्ड जे. टाकाकुसु
५० (१९१०) इन्डैक्स- एम. विन्टरनिट्‌ज'

प्रकाशक- मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली।' ये सभी लेखक जरमन थे।

इन धर्मशास्त्रों में हिन्दूधर्म, बौद्धमत, जैनमत, इस्लाम, पारसी मत (जोराट्रियनिज्म) पहलवी, टाओवाद व अन्य चनी मतों के मुखय गं्रथ सम्मिलित हैं। इन पचास खंडों में से सबसे अधिक २१ ग्रंथ, हिन्दूधर्म के हैं जिनमें वेद, उपनिषद, गीता, मनु स्मृति, विष्णु पुराण, शतपथ ब्राह्मण, गृह्य सूत्र, वेदान्त एवं अन्य स्मृतियां आदि हैं। इसके बाद बौद्धमत पर दस, जैन मत पर दो, चीनी मत पर छः खंड हैं। अन्तिम खंड में इन सब ग्रंथों की विषय सूची है। जोकिमैक्समूलर ने निधन के बाद छपी थी। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने पहले ये सभी खंड ईस्ट इंडिया कम्पनी की आर्थिक सहायता से प्रकाशित किए जिन्हें भारत में १९६४ से लगातार यूनेस्को और भारत सरकार की सहायता से, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली द्वारा छापा जा रहा है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि मैक्समूलर ने स्वयं अपनी समस्त शक्ति और ध्यान हिन्दू धर्म के वेद, उपनिषद, दर्शन शास्त्र, गृह्यसूत्र व संस्कृत साहित्य के इतिहास में लगाया। एक और समझने की बात यह है कि ये वेद सम्बन्धी खंड (३२ व ४६) १८९१ और १८९७ में प्रकाशित हुए जिनमें कुछ मुखय चुने वैदिक देवताओं सम्बन्धी मंत्र हैं परन्तु उसने यहाँ इनमें शुद्ध ऐकेश्वरवाद के अनुसार व्याखया नहीं की जिससे उसका हिन्दू धर्म के प्रति पक्षपात एवं हेय भाव झलकता है।

1 comment:

  1. This is eye opening brother!

    150 saal se chal raha kuchakra aaj bhi jaari hai.

    http://www.hindujagruti.org/news/11020.html

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