Tuesday, February 1, 2011

भारत में इस्लामी जिहाद-इतिहास के पन्नों से

भारत में इस्लामी जिहाद-इतिहास के पन्नों से

मुहम्मद बिन कासिम (७१२-७१५)
मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत के पश्चिमी भागों में चलाये गये जिहाद का विवरण, एक मुस्लिम इतिहासज्ञ अल क्रूफी द्वारा अरबी के 'चच नामा' इतिहास प्रलेख में लिखा गया है। इस प्रलेख का अंग्रेजी में अनुवाद एलियट और डाउसन ने किया था।


सिन्ध में जिहाद
सिन्ध के कुछ किलों को जीत लेने के बाद बिन कासिम ने ईराक के गर्वनर अपने चाचा हज्जाज को लिखा था- 'सिवस्तान और सीसाम के किले पहले ही जीत लिये गये हैं। गैर-मुसलमानों का धर्मान्तरण कर दिया गया है या फिर उनका वध कर दिया गया है। मूर्ति वाले मन्दिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं, बना दी गई हैं।
(चच नामा अल कुफी : एलियट और डाउसन खण्ड १ पृष्ठ १६४)
जब बिन कासिम ने सिन्ध विजय की, वह जहाँ भी गया कैदियों को अपने साथ ले गया और बहुत से कैदियों को, विशेषकर महिला कैदियों को, उसने अपने देश भेज दिया। राजा दाहिर की दो पुत्रियाँ- परिमल देवी और सूरज देवी-जिन्हें खलीफा के हरम को सम्पन्न करने के लिए हज्जाज को भेजा गया था वे हिन्दू महिलाओं के उस समूह का भाग थीं, जो युद्ध के लूट के माल के पाँचवे भाग के रूप में इस्लामी शाही खजाने के भाग के रूप् में भेजा गया था। चच नामा का विवरण इस प्रकार है- हज्जाज की बिन कासिम को स्थाई आदेश थे कि हिन्दुओं के प्रति कोई कृपा नहीं की जाए, उनकी गर्दनें काट दी जाएँ और महिलाओं को और बच्चों को कैदी बना लिया जाए'

(उसी पुस्तक में पृष्ठ १७३)
हज्जाज की ये शर्तें और सूचनाएँ कुरान के आदेशों के पालन के लिए पूर्णतः अनुरूप ही थीं। इस विषय में कुरान का आदेश है-'जब कभी तुम्हें मिलें, मूर्ति पूजकों का वध कर दो। उन्हें बन्दी बना (गिरफ्तार कर) लो, घेर लो, रोक लो, घात के हर स्थान पर उनकी प्रतीक्षा करो' (सूरा ९ आयत ५) और 'उनमें से जिस किसी को तुम्हारा हाथ पकड़ ले उन सब को अल्लाह ने तुम्हें लूट के माल के रूप दिया है।'
(सूरा ३३ आयत ५८)

रेवार की विजय के बाद कासिम वहाँ तीन दिन रुका। तब उसने छः हजार आदमियों का वध किया। उनके अनुयायी, आश्रित, महिलायें और बच्चे सभी गिरफ्तार कर लिये गये। जब कैदियों की गिनती की गई तो वे तीस हजार व्यक्ति निकले जिनमें तीस सरदारों की पुत्रियाँ थीं, उन्हें हज्जाज के पास भेज दिया गया।
(वही पुस्तक पृष्ठ १७२-१७३)

कराची का शील भंग, लूट पाट एवम्‌ विनाश

'कासिम की सेनायें जैसे ही देवालयपुर (कराची) के किले में पहुँचीं, उन्होंने कत्लेआम, शील भंग, लूटपाट का मदनोत्सव मनाया। यह सब तीन दिन तक चला। सारा किला एक जेल खाना बन गया जहाँ शरण में आये सभी 'काफिरों' - सैनिकों और नागरिकों - का कत्ल और अंग भंग कर दिया गया। सभी काफिर महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें मुस्लिम योद्धाओं के मध्य बाँट दिया गया। मुखय मन्दिर को मस्जिद बना दिया गया और उसी सुर्री पर जहाँ भगवा ध्वज फहराता था, वहाँ इस्लाम का हरा झंडा फहराने लगा। 'काफिरों' की तीस हजार औरतों को बग़दाद भेज दिया गया।'
(अल-बिदौरी की फुतुह-उल-बुल्दनः अनु. एलियट और डाउसन खण्ड १)


ब्राहम्नाबाद में कत्लेआम और लूट

'मुहम्मद बिन कासिम ने सभी काफिर सैनिकों का वध कर दिया और उनके अनुयायियों और आश्रितों को बन्दी बना लिया। सभी बन्दियों को दास बना दिया और प्रत्येक के मूल्य तय कर दिये गये। एक लाख से भी अधिक 'काफिरों' को दास बनाया गया।'
(चचनामा अलकुफी : एलियट और डाउसन खण्ड १ पृष्ठ १७९)


सुबुक्तगीन (९७७-९९७)
'
काफिर द्वारा इस्लाम अस्वीकार देने, और अपवित्रता से पवित्र करने के लिए, जयपाल की राजधानी पर आक्रमण करने के उद्‌देश्य से, सुल्तान ने अपनी नीयत की तलवार तेज की। अमीर लम्घन नामक शहर, जो अपनी महान्‌ शक्ति और भरपूर दौलत के लिए विखयात था, की ओर अग्रसर हुआ। उसने उसे जीत लिया, और निकट के स्थानों, जिनमें काफ़िर बसते थे, में आग लगी दी, मूर्तिधारी मन्दिरों को ध्वंस कर दिया और उनमें इस्लाम स्थापित कर दिया। वह आगे की ओर बढ़ा और उसने दूसरे शहरों को जीता और नींच हिन्दुओं का वध किया; मूर्ति पूजकों का विध्वंस किया और मुसलमानों की महिमा बढ़ाई। समस्त सीमाओं का उल्लंघन कर हिन्दुओं को घायल करने और कत्ल करने के बाद लूटी हुई सम्पत्ति के मूल्य को गिनते गिनते उसके हाथ ठण्डे पड़ गये। अपनी बलात विजय को पूरा कर वह लौटा और इस्लाम के लिए प्राप्त विजयों के विवरण की उसने घोषणा की। हर किसी ने विजय के परिणामों के प्रति सहमति दिखाई और आनन्द मनाया और अल्लाह को धन्यवाद दिया।'
(तारीख-ई-यामिनीः महमूद का मंत्री अल-उत्बी अनु. एलियट और डाउसन खण्ड २ पृष्ठ २२, और तारीख-ई-सुबुक्त गीन स्वाजा बैहागी अनु. एलियट और डाउसन खण्ड २)


गज़नी का महमूद (९७७-१०३०)

भारत के विरुद्ध सुल्तान महमूद के जिहाद का वर्णन उसके प्रधानमंत्री अल-उत्बी द्वारा बड़ी सूक्ष्म सूचनाओं के साथ भी किया गया है और बाद में एलियट और डाउसन द्वारा अंग्रेजी में अनुवाद करके अपने ग्रन्थ, 'दी स्टोरी ऑफ इण्डिया एज़ टोल्ड बाइ इट्‌स ओन हिस्टोरियन्स, के खण्ड २ में उपलब्ध कराया गया है।'


पुरुद्गापुर (पेशावर) में जिहाद

अल-उत्बी ने लिखा- 'अभी मध्याह भी नहीं हुआ था कि मुसलमानों ने 'अल्लाह के शत्रु', हिन्दुओं के विरुद्ध बदला लिया और उनमें से पन्द्रह हजार को काट कर कालीन की भाँति भूमि पर बिछा दिया ताकि शिकारी जंगली जानवर और पक्षी उन्हें अपने भोजन के रूप् मेंखा सकें। अल्लाह ने कृपा कर हमें लूट का इतना माल दिलाया है कि वह गिनती की सभी सीमाओं से परे है यानि कि अनगिनत है जिसमें पाँच लाख दास, सुन्दर पुरुष और महिलायें हैं। यह 'महान' और 'शोभनीय' कार्य वृहस्पतिवार मुहर्रम की आठवी ३९२ हिजरी (२७.११.१००१) को हुआ'
(अल-उत्बी-की तारीख-ई-यामिनी, एलियट और डाउसन खण्ड पृष्ठ २७)


नन्दना की लूट

अल-उत्बी ने लिखा- 'जब सुल्तान ने हिन्द को मूर्ति पूजा से मुक्त कर दिया था, और उनके स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी थीं, उसके बाद उसने उन लोगों को, जिनके पास मूर्तियाँ थीं, दण्ड देने का निश्चय किया। असंखय, असीमित व अतुल लूट के माल और दासों के साथ सुल्तान लौटा। ये सब इतने अधिक थे कि इनका मूल्य बहुत घट गया और वे बहुत सस्ते हो गये; और अपने मूल निवास स्थान में इन अति सम्माननीय व्यक्तियों को, अपमानित किया गया कि वे मामूली दूकानदारों के दास बना दिये गये। किन्तु यह अल्लाह की कृपा ही है उसका उपकार ही है कि वह अपने पन्थ को सम्मान देता है और गैर-मुसलमानों को अपमान देता है।'
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ३९)

थानेश्वर में (कत्लेआम) नरसंहार

अल-उत्बी लिपि बद्ध करता है- 'इस कारण से थानेश्वर का सरदार अपने अविश्वास में-अल्लाह की अस्वीकृति में-उद्धत था। अतः सुल्तान उसके विरुद्ध अग्रसर हुआ ताकि वह इस्लाम की वास्तविकता का माप दण्ड स्थापित कर सके और मूर्ति पूजा का मूलोच्छेदन कर सके। गैर-मुसलमानों (हिन्दु बौद्ध आदि) का रक्त इस प्रचुरता, आधिक्य व बहुलता से बहा कि नदी के पानी का रंग परिवर्तित हो गया और लोग उसे पी न सके। यदि रात्रि न हुई होती और प्राण बचाकर भागने वाले हिन्दुओं के भागने के चिह्‌न भी गायब न हो गये होते तो न जाने कितने और शत्रुओं का वध हो गया होता। अल्लाह की कृपा से विजय प्राप्त हुई जिसने सर्वश्रेष्ठ पन्थ, इस्लाम, की सदैव के लिए स्थापना की
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ४०-४१)
फरिश्ता के मतानुसार, 'मुहम्मद की सेना, गजनी में, दो लाख बन्दी लाई थी जिसके कारण गजनी एक भारतीय शहर की भाँति लगता था क्योंकि हर एक सैनिक अपने साथ अनेकों दास व दासियाँ लाया था।
(फरिश्ता : एलियट और डाउसन - खण्ड I पृष्ठ २८)

सिरासवा में नर संहार

अल-उत्बी आगे लिखता है- 'सुल्तान ने अपने सैनिकों को तुरन्त आक्रमण करने का आदेश् दिया। परिणामस्वरूप अनेकों गैर-मुसलमान बन्दी बना लिये गये और मुसलमानों ने लूट के मालकी तब तक कोई चिन्ता नहीं की जब तक उन्होंने अविश्वासियों, (हिन्दुओं) सूर्य व अग्नि के उपासकों का अनन्त वध करके अपनी भूख पूरी तरह न बुझा ली। लूट का माल खोजने के लिए अल्लाह के मित्रों ने पूरे तीन दिनों तक वध किये हुए अविश्वासियों (हिन्दुओं) के शवों की तलाशी ली...बन्दी बनाये गये व्यक्तियों की संखया का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक दास दो से लेकर दस दिरहम तक में बिका था। बाद में इन्हें गजनी ले जाया गया और बड़ी दूर-दूर के शहरों से व्यापारी इन्हें खरीदने आये थे।...गोरे और काले, धनी और निर्धन, दासता के एक समान बन्धन में, सभी को मिश्रित कर दिया गया।'
(अल-उत्बी : एलियट और डाउसन - खण्ड ii पृष्ठ ४९-५०)
अल-बरूनी ने लिखा था- 'महमूद ने भारती की सम्पन्नता को पूरी तरह विध्वस कर दिया। इतना आश्चर्यजनक शोषण व विध्वंस किया था कि हिन्दू धूल के कणों की भाँति चारों ओर बिखर गये थे। उनके बिखरे हुए अवशेष निश्चय ही मुसलमानों की चिरकालीन प्राणलेवा, अधिकतम घृणा को पोषित कर रहे थे।'
(अलबरूनी-तारीख-ई-हिन्द अनु. अल्बरुनीज़ इण्डिया, बाई ऐडवर्ड सचाउ, लन्दन, १९१०)



सोमनाथ की लूट

'सुल्तान ने मन्दिर में विजयपूर्वक प्रवेश किया, शिवलिंग को टुकड़े-टुकड़े कर तोड़ दिया, जितने में समाधान हुआ उतनी सम्पत्ति को आधिपत्य में कर लिया। वह सम्पत्ति अनुमानतः दो करोड़ दिरहम थी। बाद में मन्दिर का पूर्ण विध्वंस कर, चूरा कर, भूमि में मिला दिया, शिवलिंग के टुकड़ों को गजनी ले गया, जिन्हें जामी मस्जिद की सीढ़ियों के लिए प्रयोग किया'
(तारीख-ई-जैम-उल-मासीर, दी स्ट्रगिल फौर ऐम्पायर-भारतीय विद्या भवन पृष्ठ २०-२१)



मुहम्मद गौरी (११७३-१२०६)

हसन निज़ामी ने अपने ऐतिहासिक लेख, 'ताज-उल-मासीर', में मुहम्मद गौरी के व्यक्तितव और उसके द्वारा भारत के बलात्‌ विजय का विस्तृत वर्णन किया है।
युद्धों की आवश्यकता और लाभ के वर्णन, जिसके बिना मुहम्मद का रेवड़ अधूरा रह जाता है अर्थात्‌ उसका अहंकार पूरा नहीं होता, के बाद हसन निज़ामी ने कहा 'कि पन्थ के दायित्वों के निर्वाह के लिए जैसा वीर पुरुष चाहिए वह, सुल्तानों के सुल्तान, अविश्वासियों और बहु देवता पूजकों के विध्वंसक, मुहम्मद गौरी के शासन में उपलब्ध हुआ; और उसे अल्लाह ने उस समय के राजाओं और शहंशाहों में से छांटा था, 'क्योंकि उसने अपने आपको पन्थ के शत्रुओं के मूलोच्छदन एवं सवंश् विनाश के लिए नियुक्त किया था। उनके हदयों के रक्त से भारत भूमि को इतना भर दिया था, कि कयामत के दिन तक यात्रियों को नाव में बैठकर उस गाढ़े खून की भरपूर नदी को पार करना पड़ेगा। उसने जिस किले पर आक्रमण किया उसे जीत लिया, मिट्‌टी में मिला दिया और उस (किले) की नींव व खम्मों को हाथियों के पैरों के नीचे रोंद कर भस्मसात कर दिया; और मूर्ति पूजकों के सारे विश्व को अपनी अच्छी धार वाली तलवार से काट कर नर्क की अग्नि में झोंक दिया; मन्दिरों, मूर्तियों व आकृतियों के स्थान पर मस्जिदें बना दी।'
(ताज-उल-मासीर : हसन निजामी, अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड II पृष्ठ २०९)


अजमेर पर इस्लाम की बलात्‌ स्थापना

हसन निजामी ने लिखा था- 'इस्लाम की सेना पूरी तरह विजयी हुई और एक लाख हिन्दू तेजी के साथ नरक की अग्नि में चले गये...इस विजय के बाद इस्लाम की सेना आगे अजमेर की ओर चल दी जहाँ हमें लूट में इतना माल व सम्पत्ति मिले कि समुद्र के रहस्यमयी कोषागार और पहाड़ एकाकार हो गये।
'जब तक सुल्तान अजमेर में रहा उसने मन्दिरों का विध्वंस किया और उनके स्थानों पर मस्जिदें बनवाईं।'
(उसी पुस्तक में पृष्ठ २१५)

देहली में मन्दिरों का ध्वंस

हसन निजामी ने आगे लिखा-'विजेता ने दिल्ली में प्रवेश किया जो धन सम्पत्ति का केन्द्र है और आशीर्वादों की नींव है। शहर और उसके आसपास के क्षेत्रों को मन्दिरों और मूर्तियों से तथा मूर्ति पूजकों से रहित वा मुक्त बना दिया यानि कि सभी का पूर्ण विध्वंस कर दिया। एक अल्लाह के पूजकों (मुसलमानों) ने मन्दिरों के स्थानों पर मस्जिदें खड़ी करवा दीं, बनवादीं।'
(वही पुस्तक पृष्ठ २२२)

वाराणसी का विध्वंस (शीलभंग)

'उस स्थान से आगे शाही सेना बनारस की ओर चली जो भारत की आत्मा है और यहाँ उन्होंने एक हजार मन्दिरों का ध्वंस किया तथा उनकी नीवों के स्थानों पर मस्जिदें बनवा दीं; इस्लामी पंथ के केन्द्र की नींव रखी।'
(वही पुस्तक पृष्ठ २२३)
हिन्दुओं के सामूहिक वध के विषय में हसन निजामी आगे लिखता है, 'तलवार की धार से हिन्दुओं को नर्क की आग में झोंक दिया गया। उनके सिरों से आसमान तक ऊंचे तीन बुर्ज बनाये गये, और उनके शवों को जंगली पशुओं और पक्षियों के भोजन के लिए छोड़ दिया गया।'
(वही पुस्तक पृष्ठ २९८)
इस सम्बन्ध में मिन्हाज़-उज़-सिराज़ ने लिखा था-'दुर्गरक्षकों में से जो बुद्धिमान एवं कुशाग्र बुद्धि के थे, उन्हें धर्मान्तरण कर मुसलमान बना लिया किन्तु जो अपने पूर्व धर्म पर आरूढ़ रहे, उन्हें वध कर दिया गया।'
(तबाकत-ई-नसीरी-मिन्हाज़, अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड II पृष्ठ २२८)


गुजरात में गाज़ी लोग (११९७)
गुज़रात की विजय के विषय में हसन निजामी ने लिखा- 'अधिकांश हिन्दुओं को बन्दी बना लिया गया और लगभग पचास हजार को तलवार द्वारा वध कर नर्क भेज दिया गया, और कटे हुए शव इतने थे कि मैदान और पहाड़ियाँ एकाकार हो गईं। बीस हजार से अधिक हिन्दू, जिनमें अधिकांश महिलायें ही थीं, विजेताओं के हाथ दास बन गये।
(वही पुस्तक पृष्ठ २३०)

देहली का पवित्रीकरण वा इस्लामीकरण

'तब सुल्तान देहली वापिस लौटा उसे हिन्दुओं ने अपनी हार के बाद पुनः जीत लिया था। उसके आगमन के बाद मूर्ति युक्त मन्दिर का कोई अवशेष व नाम न बचा। अविश्वास के अन्धकार के स्थान पर पंथ (इस्लाम) का प्रकाश जगमगाने लगा।'
(वही पुस्तक पृष्ठ २३८-३९)

कुतुबुद्दीन ऐबक (१२०६-१२१०)

हसन निजामी ने अपने ऐतिहासिक लेख ताज-उल-मासीर में लिखा था, 'कुतुबुद्दीन इस्लाम का शीर्ष है और गैर-मुसलमानों का विध्वंसक है...उसने अपने आपको शत्रुओं-हिन्दुओं-के धर्म के मूलोच्छेदन यानी कि पूर्ण विनाश के लिए नियुक्त किया था, और उसने हिन्दुओं के रक्त से भारत भूमि को भर दिया...उसने मूर्ति पूजकों के सम्पूर्ण विश्व को नर्क की अग्नि में झोंक दिया था...और मन्दिरों और मूर्तियों के स्थान पर मस्जिदें बनवादी थीं।'
(ताज-उल-मासीर हसन निजामी अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड २ पृष्ठ २०९)
'
कुतुबुद्दीन ने जामा मस्जिद देहली बनवाई और जिन मन्दिरों को हाथियों से तुड़वाया था, उनके सोने और पत्थरों को इस मस्जिद में लगाकर इसे सजा दिया।'
(वही पुस्तक पृष्ठ २२२)

इस्लाम का कालिंजर में प्रवेश

'मन्दिरों को तोड़कर, भलाई के आगार, मस्जिदों में रूपान्तरित कर दिया गया और मूर्ति पूजा का नामो निशान मिटा दिया गया....पचार हजार व्यक्तियों को घेरकर बन्दी बना लिया गया और हिन्दुओं को तड़ातड़ मार (यन्त्रणा) के कारण मैदान काला हो गया।
(उसी पुस्तक में पृष्ठ २३१)
'अपनी तलवार से हिन्दुओं का भीषण विध्वंस कर भारत भूमि को पवित्र इस्लामी बना दिया, और मूर्ति पूजा की गन्दगी और बुराई को समाप्त कर दिया, और सम्पूर्ण देश को बहुदेवतावाद और मूर्तिपूजा से मुक्त कर दिया, और अपने शाही उत्साह, निडरता और शक्ति द्वारा किसी भी मन्दिर को खड़ा नहीं रहने दिया।'
(वही पुस्तक पृष्ठ २१६-१७)

ग्वालियर में इस्लाम

ग्वालियर में कुतुबुद्दीन के जिहाद के विषय में मिन्हाज़ ने लिखा था- 'पवित्र धर्म युद्ध के लिए अल्लाह के, दैवी, यानी कि कुरान के आदेशानुसार धर्म शत्रुओं-हिन्दुओं-के विरुद्ध उन्होंने रक्त की प्यासी तलवारें बाहर निकाल लीं।'
(टबाकत-ई-नासिरी, मिन्हाज़-उज़-सिराज, अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड II पृष्ठ २२७)



मुहम्मद बखितयार खिलजी (१२०४-१२०६)

मुहम्मद बखितयार खिलजी को हिन्दू/बुद्ध शिक्षा केन्द्रों को खोजने और नष्ट करने की विशेष रुचि थी। नालन्दा की लूट के विषय में मिन्हाज़ ने लिखा था-
'बखितयार बेहर किले के द्वार पर पहुँचा और हिन्दुओं के साथ युद्ध करने लगा। बड़े साहस और अहंकार के साथ द्वार की ओर झपटा और स्थान को अपने अधिकार में कर लिया। विजेताओं के हाथ लूट का अपार माल हाथ लगा। निवासियों में अधिकांश नंगे-मुड़े हुए सिर वाले ब्राहम्ण थे। उनका, सभी का, वध कर दिया गया। वहाँ असंखय पुस्तकें मिलीं और मुसलमानों ने उन्हें देखा और किसी को बुलाकर जानना चाहा कि उनमें क्या लिखा है तो पाया कि वहाँ तो सभी का वध हो चुका है। उनकी समझ में आया कि वह सारा, एक शिक्षा का स्थान है तो सारे स्थल को जलाकर भस्म कर दिया।
(तबाकत-ई-नासिरी, मिन्हाज़-उज़-सिराज, अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड II पृष्ठ ३०६)



अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६)


सोमनाथ का विध्वंस

खिलजी दरबार के सामयिक मुस्लिम इतिहास लेखक, जियाउद्‌दीन बरानी ने अपने प्रसिद्ध प्रलेख-तारीख-ई-शाही-में लिखा था, 'सारा गुजरात अलाउद्दीन की सेना का शिकार हो गया और सोमनाथ की मूर्ति, जो मुहम्मद गौरी के गज़नी चले जाने के बाद पुनः स्थापित कर दी गई थी, को हटाकर दिल्ली ले आया गया और लोगों के पैरों तले कुचले जाने, अपमानित किये जाने, के लिए डाल दी गई।'
(तारीख-ई-फीरोजशाही : जियाउद्‌दीन बारानी, अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ १६३)


अधिक दास, धर्मान्तरित और हिन्दू महिलायें

'अलाउद्दीन की सेनायें सम्पूर्ण देश के एक क्षेत्र के बाद दूसरे क्षेत्रों में गईं और विनाश किया। वे अपने साथ अधिकाधिक दास, धर्मान्तरित लोग और हिन्दू महिलाओं को लाये।


तलवार स्थापित करती है इस्लाम

बरानी ने अपने उसी प्रलेख में लिखा था, स्पष्ट किया था, कि उल्लाउद्‌दीन शोखी में क्या चिल्लाया करता था, 'अल्लाह ने पैगम्बर को आशीर्वाद स्वरूप चार मित्र दिये...मैं उन चारों के सहयोग से अल्लाह के सच्चे पन्थ और कौम को स्थापित कर दूंगा और मेरी तलवार, उस पन्थ को स्वीकार करने के लिए विवश कर देगी।'
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १६९)


गाजी लोग पुनः गुजरात गये

अब्दुल्ला वस्साफ ने अपने इतिहास प्रलेख-तारीख-ई-वस्साफ-में लिखा था-'उन्होंने कम्बायत को घेर लिया और मूर्ति पूजक अपनी निद्रा जैसी लापरवाही की दशा से जगा दिये गये और आश्चर्यचकित हो गये। मुसलमानों ने इस्लाम के लिए पूर्ण निर्दयतापूर्वक चारों ओर-दायी ओर बाईं ओर-सारी अपवित्र भूमि पर वध और कत्ल शुरू कर दिये और रक्त मूसलाधार वर्षा के रूप में बहा।'
(तारीख-ई-वस्साफ अब्दुल्ला वस्साफ अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ ४२-४३)

लूट और मूर्ति भन्जन

जियाउद्दीन बरानी की भाँति अब्दुला वस्साफ ने भी अल्लाउद्दीन द्वारा सोमनाथ की लूट का विस्तृत सजीव विवरण लिखा था। अपने प्रलेख में वस्साफ ने लिखा था-
'उन्होंने लगभग बीस हजार सुन्दर सभ्य हिन्दू महिलाओं को बन्दी बना लिया और दोनों ही लिंगों के अनगिनत बच्चों को, जिनकी संखया लेखनी लिख भी न सके, भी बन्दी बना लिया....संक्षेप में मुहम्मद की सेना ने सम्पूर्ण देश का विकराल विनाश किया, निवासियों के जीवनों को नष्ट किया, शहरों को लूटा; और उनके बच्चों को बन्दी बनाया, जिसके कारण बहुत से मन्दिरों को त्याग दिया गया, मूर्तियाँ तोड़ दी गईं और पैरों के नीचे रौंदी गईं; उनमें सबसे बड़ी मूर्ति सोमनाथ की थी-मूर्ति खण्डों को देहली भेज दिया गया और जामा मस्जिद के प्रवेश मार्ग को उनसे ढक दिया, भर दिया, ताकि लोग इस विजय को स्मरण करें, बातचीत करें।'
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ४४)
'
प्रसिद्ध सूफी कवि अमीर खुसरु ने लिखा था-'हमारे पवित्र सैनिकों की तलवारों के कारण सारा देश एक दावा अग्नि के कारण काँटों रहित जंगल जैसा हो गया है। हमारे सैनिकों की तलवारों के वारों के कारण हिन्दू अविश्वासी भाप की तरह समाप्त कर दिये गये हैं। हिन्दुओं में शक्तिशाली लोगों को पाँवों तले रोंद दिया गया है। इस्लाम जीत गया है, मूर्ति पूजा हार गई है, दबा दी गई है।'
(तारीख-ई-अलाई अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड III )

अल्लाह दक्षिण-भारत में प्रकट हुआ

निजामुद्‌दीन औलिया जो दूर-दूर तक देहली के सूफी चिश्ती के रूप में विखयात है, के कवि शिष्य, अमीर खुसरु, ने अपने प्रलेख-तारीख-ई-अलाई-में अलाउद्‌दीन द्वारा दक्षिण भारत में जिहाद का बड़े आनन्द के साथ विवरण किया है-
'उस समय के खलीफा की तलवार की जीभ, जो कि इस्लाम की ज्वाला की भी जीभ है, ने सारे हिन्दुस्तान के सम्पूर्ण अँधेरे को अपने मार्गदर्शन द्वारा प्रकाश दिया है...दूसरी ओर तोड़े गये सोमनाथ मन्दिर से इतनी धूल उड़ी जिसे समुद्र भी, भूमि पर नीचें स्थापित नहीं कर सका; दायीं ओर बायीं ओर, समुद्र से लेकर समुद्र तक हिन्दुओं के देवताओं की अनेकों राजधानियों को, जहाँ जिन्न के समय से ही शैतानी बसती थी, सेना ने जीत लिया है और सभी कुछ विध्वंस कर दिया गया है। देवगिरी (अब दौलता बाद) में अपने प्रथम आक्रमण के प्रारम्भ द्वारा, सुल्तान ने, मूर्ति वाले मन्दिरों के ध्वंस द्वारा, गैर-मुसलमानों की सारी अपवित्रताओं को समाप्त कर दिया है। ताकि अल्लाह के कानून के प्रकाश की किरणें, लपटें, इन अपवित्र देशों को पवित्र व प्रकाशित करें, मस्जिदों में नमाज़ें हों और अल्लाह की प्रशंसा हो।'
(तारीख-ई-अलाई अमीर खुसरु - अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ ८५)

इस्लामी कानून के अन्तगत हिन्दू

बर्नी ने अपने प्रलेख में आगे लिखा कि- 'सुल्तान ने काजी से पूछा कि इस्लामी कानून में हिन्दुओं की क्या स्थिति है? काज़ी ने उत्तर दिया, 'ये भेंट (टैक्स) देने वाले लोग हैं और जब आय अधिकारी इनसे चाँदी मांगें तो इन्हें बिना किसी, कैसे भी प्रद्गन के, पूर्ण विनम्रता, व आदर से सोना देना चाहिए। यदि अफसर इनके मुँह में धूल फेंकें तो इन्हें उसे लेने के लिए अपने मुँह खोल देने चाहिए। इस्लाम की महिमा गाना इनका कर्तव्य है...अल्लाह इन पर घृणा करता है, इसीलिए वह कहता है, 'इन्हें दास बना कर रखो।' हिन्दुओं को नींचा दिखाकर रखना एक धार्मिक कर्तव्य है क्योंकि हिन्दू पैगम्बर के सबसे बड़े शत्रु हैं (कु. ८ : ५५) और चूंकि पैगम्बर ने हमें आदेश दिया है कि हम इनका वध करें, इनको लूट लें, इनको बन्दी बना लें, इस्लाम में धर्मान्तरित कर लें या हत्या कर दें (कु. ९ : ५)। इस पर अलाउद्‌दीन ने कहा, 'अरे काजी! तुम तो बड़े विद्वान आदमी हो कि यह पूरी तरह इस्लामी कानून के अनुसार ही है, कि हिन्दुओं को निकृष्टतम दासता और आज्ञाकारिता के लिए विवश किया जाए...हिन्दू तब तक विनम्र और दास नहीं बनेंगे जब तक इन्हें अधिकतम निर्धन न बना दिया जाए।'

(तारीख-ई-फीरोजशाही-बारानी अनु. एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ १८४-८५)
बारानी की तारीख-ई-फीरोजशाही के संदर्भ में मोरलैण्ड ने अपने प्रसिद्ध शोध, 'अग्रेरियन सिस्टम इन मुस्लिम इण्डिया' में लिखा है- 'सुल्तान ने इस्लामी विद्वानों से उन नियमों और कानूनों को पूंछा, माँगा, ताकि हिन्दुओं को पीसा जा सके, सताया जा सके, और सम्पत्ति और अधिकार, जिनके कारण घृणा और विद्रोह होते हैं, उनके घरों में न रहें।'
(मोरलैण्ड-दी ऐग्रेरियान सिस्टम इन मुस्लिम इण्डिया एण्ड दी देहली सुल्तनेट, भारतीय विद्या भवन द्वितीय आवृत्ति पृष्ठ २४)
'
इस सन्दर्भ में बारानी ने बताया कि अलाउद्‌दीन ने हिन्दुओं की दशा इतनी हीन, पतित और कष्ट युक्त बना दी थी, और उन्हें इतनी दयनीय दशा में पहुँचा दिया था, कि हिन्दू महिलाएं और बच्चे वे मुसलमानों के घर भीख माँगने के लिए विवश थे।'
(तारीख-ई-फीरोजशाही और फ़तवा-ई-जहानदारी : एलियट और डाउसन, खण्ड III)

हिन्दू दासों का बाजार

बिन कासिम की बलात विजय के पश्चात्‌ सभी मुस्लिम शासकों के लिए दास हिन्दुओं की क्रय-विक्रय सरकारी आय का एक
महत्वपूर्ण स्त्रोत था। किन्तु खिलजियों और तुगलकों के काल में हिन्दुओं पर इन यातनाओं का स्वरूप गगन चुम्बी एवं अधिकतम हो गया था। अमीर खुसरु ने बताया- 'तुर्क जब चाहते थे हिन्दुओं को पकड़ लेते, क्रय कर लेते अथवा बेच देते थे।'
(अमीर खुसरु : नूर सिफर : एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ ५६१)
बरनी ने आगे लिखा कि 'घर में काम अने वाली वस्तुएँ जैसे गेहूँ, चावल, घोड़ा और पशु आदि के मूल्य जिस प्रकार निश्चित किये जाते हैं, अलाउद्‌दीन ने बाजार में ऐसे दासों के मूल्य भी निश्चित कर दिये। एक लड़के का विक्रय मूल्य २०-३० तन्काह तय किया गया था; किन्तु उनमें से अभागों को मात्र ७-८ तन्काह में ही खरीदा जा सकता था। दास लड़कों का उनके सौन्दर्य और कार्यक्षमता के आधार पर वर्गीकरण किया जाता था। काम करने वाली लड़कियों का मानक मूल्य ५-१२ तन्काह, अच्छी दिखने वाली लड़की का मूल्य २०-४० तन्काह, और सुन्दर उच्च परिवार की लड़की का मूल्य एक हजार से लेकर दो हजार तन्काह होता था।'
(बरानी, एलियट और डाउसन, खण्ड III ,हिस्ट्री ऑफ खिलजीज़, के. एस. लाल, पृष्ठ ३१३-१५)

सूडान के इस्लामी राज्य में अब भी ईसाइयों को दास बनाया जाता है और बेचा जाता है। इसी कारण से १९९९ में यू.एन. की जनरल एसैम्बली में अनेकों ईसाई देशों ने संगठित होकर सूड़ान के यू. एन. एसैम्बली से निष्कासन के लिए प्रस्ताव रखा था।


मुहम्मद बिन तुगलक (१३२६-१३५१)

'मार्क्सिस्ट जाति के भारतीय इतिहासज्ञों ने, बिन तुगलक का, एक सदभावना युक्त, उदार और कुछ विक्षिप्त सुधारक के रूप में बहुत लम्बे काल से, स्वागत किया है, प्रशंसा की है। नेहरूवादी प्रतिष्ठान ने तो देहली की एक प्रसिद्ध सड़क का नाम भी उसकी स्मृति में तुगलक रोड रख दिया। किन्तु एक प्रसिद्ध, विश्व भ्रमणकर्ता, अफ्रीकी यात्री, इब्न बतूता, जिसने तुगलक के दरबार को देखा था, के शब्दानुसार उसके (तुगलक के) राज्य के कुछ दृश्य निम्नांकित हैं।
सुल्तान से अपनी पहली भेंट के संदर्भ में, बतूता ने लिखा था, ५००० दीनार के मूल्य के गाँव, एक घोड़ा, दस हिन्दू महिला दासियाँ और ५०० दीनार मुझे अनुदान स्वरूप मिले। (इब्न बतूता : एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ ५८६)
हिन्दुओं को दास बनाने के काम के कारण बिन तुगलक इतना बदनाम हो गया था कि उसकी खयाति दूर-दूर चारों ओर फैल गई थी कि इतिहास अभिलेखक शिहाबुद्‌दीन अल-उमरी ने अपने अभिलेख, 'मसालिक-उल-अब्सर में उसके (बिन तुगलक)विषय में इस प्रकार लिखा था-'सुल्तान गैर-मुसलमानों पर युद्ध करने के अपने सर्वाधिक उत्साह में कभी भी, कोई, कैसी भी कमी नहीं करता था...हिन्दू बन्दियों की संखया इतनी अधिक थी कि प्रतिदिन अनेकों हजार हिन्दू दास बेच दिये जाते थे।'
(मसालिक-उल-अब्सार : एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ ५८०)
मुस्लिम हाथों में हिन्दू महिलाओं का उपयोग या तो काम तृप्ति के लिए था या विद्रोह कर धन कमाना था। अल-उमरी आगे और कहता है। 'दासों के मूल्यों में कमी होने पर भी युवा हिन्दू लड़कियों के मूल्य में २,००,००० तनकाह दिये जाते थे। मैंने इसका कारण पूछा...ये लड़कियाँ अपने सौन्दर्य, आकर्षण, महिमा और ढंगों में आश्चर्यजनक हैं।'
(उसी पुस्तक में पृद्गठ ५८०-८१)
इस सन्दर्भ में सुल्तान द्वारा हिन्दुओं को दास बनाये जाने का इब्नबतूता का प्रत्यक्ष दर्शी वर्णन इस प्रकार है- 'सर्वप्रथम युद्ध के मध्य बन्दी बनाये गये, काफिर राजाओं की पुत्रियों को अमीरों और महत्वपूर्ण विदेशियों को उपहार में भेंट कर दिया जाता था। इसके पश्चात् अन्य काफिरों की पुत्रियों को...सुल्तान दे देता था अपने भाइयों व सम्बन्धियों को।'
(तुगलक कालीन भारत, एस. ए.रिज़वी, भाग १, पृष्ठ १८९)

हिन्दू सिरों का शिकार

अन्य राजाओं की भाँति बिन तुगलक भी शिकार को जाया करता था किन्तु यह शिकार पूर्णतः असाधारण रूप में भिन्न ही हुआ करती थी। वह शिकार होती थी हिन्दू सिरों की। इस विषय में इब्न बतूता ने लिखा था- 'तब सुल्तान शिकार के अभियान के लिए बारान गया जहाँ उसके आदेशानुसार सारे हिन्दू देश को लूट लिया गया और विनष्ट कर दिया गया। हिन्दू सिरों को एकत्र कर लाया गया और बारान के किले की चहार दीवारी पर टाँग दिया गया।'
(इब्न बतूता : एलियट और डाउसन, खण्ड II पृष्ठ २४२)



फिरोज़ शाह तुग़लक (१३५७-१३८८)


फिरोजशाह तुगलक के शासन का वर्णन चार भिन्न-भिन्न ऐतिहासिक अभिलेखों में लिखा गया है। वे अभिलेख हैं- १. तारीख-ई-फिरोजशाही, जिआउद्‌दीन बारानी, २. तारीख-ई-फिरोजशाही, सिराज अफीफ, ३. सिरात-ई-फिरोजशाही, फरिश्ता, ४. फुतूहत-ई-फिरोजशाही, फीरोजशाह तुगलक स्वयं।


हिन्दू महिलाओं का हरम या ज़नानखाना

काम तृप्ति के लिए हिन्दू महिलाओं के दासी बनाये जाने के विद्गाय में बारानी ने लिखा था- 'फिरोजशाह के लिए, व्यापक एवम्‌ विविध वर्गों की भगाई गई हिन्दू महिलाओं के जनानखानों में नियमित रूप में जाना, एकदम अत्याज्य था।'
(तारीख-ई-फिरोजशाही, जिआउद्‌दीन बारानी, एलियट और डाउसन, खण्ड III)
ताजरीयत-अल-असर के अनुसार 'मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं द्वारा भगाई हुई हिन्दू महिलाओं के साथ मात्र शील भंग ही नहीं किया जाता था वरन्‌ उनके साथ अनुपम, अवर्णनीय यातनायें भी दी जाती थीं यथा लाल गर्म लोहे की शलाखों को हिन्दू महिलाओं की योनियों में बलात घुसेड़ देना, उनकी योनियों को सिल देना, और उनके स्तनों को काट देना।'


बंगाल में नर संहार

'बंगाल में हार के बदले के लिए, फीरोजशाह ने आदेश दिया कि असुरक्षित बंगाली हिन्दुओं का अंग भंग कर वध कर दिया जाए। अंग भंग किये गये प्रत्येक हिन्दू के ऊपर इनाम स्वरूप एक चाँदी को टंका दिया जाता था। हिन्दू मृतकों के सिरों की गिनती की गई जो १,८०,००० निकले'
(बारानी, उसी पुस्तक में)

ज्वालामुखी मंदिर का विनाश

फरिद्गता ने आगे लिखा- 'सुल्तान ने ज्वालामुखी मन्दिर की मूर्तियों को तोड़ दिया, उसके टुकड़ों को वध की गई गउओं के मांस में मिला दिया और मिश्रण को तोबड़ों में भरवा कर ब्राहम्णों की गर्दनों में बँधवा दिया, और प्रमुख मूर्ति को मदीना भेज दिया।'
(उसी पुस्तक में)

उड़ीसा का विध्वंस

सिरात-ई-फीरोजशाही में फरिश्ता ने लिखा-
'फिरोज़शाह, पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में, घुसा, मूर्ति को उखाड़ा और अपमान कारक स्थान पर रखने के लिए देहली ले गया। पुरी के पश्चात्‌ फीरोजशाह समुद्रतट के निकट चिल्ला झील की ओर गया। सुल्तान ने टापू को अविश्वासियों के वध द्वारा उत्पन्न रक्त से रक्त हौज बना दिया। हिन्दू महिलाओं को काम तृप्ति के लिए भगा ले जाया गया, गर्मिणी महिलाओं का शील भंग किया गया, उनकी आँते निकाल ली गईं और जंजीरों में बाँध दिया गया।'
(सीरात-ई-फिरोजशाही फरिद्गता, एलियट और डाउसन, खण्ड प्प्प्)

इस संदर्भ में यह लिखने योग्य है कि एक अन्य महत्वपूर्ण सड़क और देहली के क्रिकेट स्टेडियम का नाम इस उपरोक्त गाजी फिरोज़शाह के नाम पर है।



तिमूर (१३९८-१३९९)

तिमूर ने अपनी जीवनी मुलफुजात-ई-तिमूरी (तुजुख-ई-तिमूरी) में अपनी महत्वाकांक्षाओं को बलपूर्वक लिखा- 'लगभग उसी समय मेरे मन में एक अभिलाषा आयी कि मैं गैर-मुसलमानों के विरुद्ध एक अभियान प्रारम्भ करूं और 'गाजी' बन जाऊँ; क्योंकि मेरे कानों में यह बात पहुँची थी कि अविश्वासियों का कातिल 'गाज़ी' हो जाता है और यदि वह स्वयं मर जाता है तो 'शहीद' हो जाता है (सूरा ३ आयत १६९, १७०, १७१) इसी कारण मैंने एक निश्चय किया किन्तु मैं अपने मन में अनिश्चित अनिर्णीत था कि मैं चीन के अविश्वासियों की ओर अभियान प्रारम्भ करूँ अथवा भारत के अविश्वासियों और मूर्ति पूजकों व बहु ईश्वर वादियों की ओर। इस उद्‌देश्य के लिए मैंने कुरान से शकुन (शुभ सूचना) खोजना चाही और जो आयत निकली वह इस प्रकार थी, 'ए! पैगम्बर अविश्वासियों और विश्वासहीनों के विरुद्ध युद्ध करो, और उनके प्रति कठोरता का व्यवहार करो (सूरा ६६ आयत ९ दी कुरान)। मेरे महान अफसरों ने बताया कि हिन्दुस्तान के निवासी, अविश्वासी और विश्वासहीन हैं। सर्वशक्तिमान अल्लाह के आदेशानुसार आज्ञापालन करते हुए मैंने उनके विरुद्ध अभियान की आज्ञा दे दी।'
(तिमूर की जीवनी-मुलफुजात-ई-तिमूर : एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ ३९४-९५)


उलेमा और सूफ़ियों द्वारा जिहाद का अनुमोदन

'इस्लाम के विद्वान लोग मेरे सामने आये और अविश्वासियों तथा बहुत्ववादियों के विरुद्ध संघर्ष/युद्व के विषय में वार्तालाप प्रारम्भ हुआ;उन्होंने अपनी सम्मति दी कि इस्लाम के सुल्तान का और उन सभी लोगों का, जो मानते हैं, 'कि अल्लाह के सिवाय अन्य कोई ईश्वर नहीं है और मुहम्मद अल्लाह का पैगम्बर है', यह परम कर्तव्य है कि वे इस उद्‌देश्य की पूर्ति के लिए युद्ध करें कि उनका पन्थ सुरक्षित रह सके, और उनकी विधि व्यवस्था सशक्त रही आवे और वे अधिकाधिक परिश्रम कर अपने पन्थ के शत्रुओं का दमन कर सकें। विद्वान लोगों के ये आनन्ददायक शब्द जैसे ही सरदारों के कानों में पहुँचे उनके हदय, हिन्दुस्तान में धर्म युद्ध करने के लिए, स्थिर हो गये और अपने घुटनों पर झुक कर, उन्होंने इस विजय वाले अध्याय को दुहराया।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ३९७)

भाटनिर में नरसंहार (कसाई पन)

तिमूर की यह जीवनी, भाटनिर (जो आजकल राजस्थान के गंगानगर जिले का हनुमान गढ़ है) को मूर्ति पूजा से सुरक्षित करने के विषय में एक अति विस्तृत विवरण प्रस्तुत करती है।
'इस्लाम के योद्धाओं ने हिन्दुओं पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया और तब तक युद्ध करते रहे जब तक अल्लाह की कृपा से मेरे सैनिकों के प्रयासों को विजय की किरण नहीं दीख गई। बहुत थोड़े समय में ही किले के सभी व्यक्ति तलवार द्वारा काट दिये गये और समय की बहुत छोटी अवधि में ही दस हजार हिन्दू लोगों के सिर काट दिये गये। अविश्वासियों के रक्त से इस्लाम की तलवार अच्छी तरह धुल गई और सारा खजाना सैनिकों की लूट का माल हो गया।'
(वही पुस्तक, पृष्ठ ४२१-२२)

सिरसा में नरसंहार

'तिमूर ने आगे लिखा- जब मैंने सरस्वती नदी के विषय में पूछा, मुझे बताया गया कि उस स्थान के लोग इस्लाम के पंथ से अनभिज्ञ थे। मैंने अपनी सैनिक टुकड़ी उनका पीछा करने भेजी और एक महान युद्ध हुआ। सभी हिन्दुओं का वध कर दिया गया उनकी महिलाओं और बच्चों को बन्दी बना लिया गया और उनकी सम्पत्तियाँ व वस्तुएँ मुसलमानों के लिए लूट का माल हो गईं। सैनिक अपने साथ कई हजार हिन्दू महिलाओं और बच्चों को साथ ले वापिस लौट आये। इन हिन्दू महिलाओं और बच्चों को मुसलमान बना लिया गया।'
(वही पुस्तक, पृष्ठ ४२७-२८)

जाटों का नरसंहार

तिमूर ने अपनी जीवनी में लिखा था- 'मेरे ध्यान में लाया गया था कि ये उत्पाती जाट चींटी की भाँति असंखय हैं। हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा महान्‌ उद्‌देश्य अविश्वासी हिन्दुओं के विरुद्ध धर्म युद्ध करना था। मुझे लगने लगा कि इन जाटों का पराभव (वध) कर देना मेरे लिएआवश्यक है। मैं जंगलों और बीहड़ों में घुस गया, और दैत्याकार, दो हजार जाटों का मैंने वध कर दिया...उसी दिन सैय्यदों, विश्वासियों, का एक दल, जो वहीं निकट ही रहता था, बड़ी विनम्रता व शालीनता से मुझसे भेंट करने आया और उनका बड़ी शान से स्वागत किया गया। मैंने उनके सरदार का बड़े सम्मान से स्वागत किया।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४२९)
सैक्यूलरिस्टों, जो अपने हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई के उन्माद युक्त सिद्धांत से बुरी तरह पगलाये रहते हैं, के लिए यह पाठ बहुत अधिक महत्व का है। यहाँ सैय्यद मुसलमान, अपने पड़ौसी जाटों के साथ न तो तनिक भी सहयोगी हुए, और न उन्होंने उनके साथ कोई कैसी भी सहानुभूति ही दिखाई; वरन्‌ अपने पन्थ के आक्रमणकारियों, द्वारा जाटों के नरसंहार पर खूब प्रसन्न हुए।
मुसलमान सैय्यदों का यह व्यवहार सभ्यता के माप दण्डों से बेमेल भले ही हो किन्तु वह कुरान के आदेशों के सर्वथा, पूर्णरूपेण, अनुकूल ही था यथा-

'विश्वासियो! मुसलमानों को छोड़ गैर-मुसलमानों को अपना मित्र मत बनाओ। उन्हें मित्रता के लिए मत चुनो। क्या तुम अल्लाह को अपने विरुद्ध एक सच्चा साक्ष्य प्रस्तुत करोगे?
(सूरा ४ आयत १४४)


लोनी में चुन चुन कर कत्लेआम

जमुना के उस पार देहली के निकट शहर, लोनी, की बलात विजय का वर्णन करते हुए तिमूर लिखता है कि उसने किस प्रकार मुसलमानों की जान बचाते हुए, चुन चुन कर हिन्दुओं का वध किया था।

'उन्तीस तारीख को मैं पुनः अग्रसर हुआ और जमुना नदी पर पहुँच गया। नदी के दूसरे किनारे पर लोनी का दुर्ग था। दुर्ग को तुरन्त विजय कर लेने का मैंने निर्णय किया। अनेकों राजपूतों ने अपनी पत्नियों और बच्चों को में घरों में बन्द कर आग लगा दी; और तब वे युद्ध क्षेत्र में आ गये, शैतान की भाँति लड़े, और अन्त में मार दिये गये। दुर्ग रक्षक दल के अन्य लोग भी लड़े, और कत्ल कर दिये गये और बहुत से बन्दी बना लिये गये। दूसरे दिन मैंने आदेश दिया कि मुसलमान-बन्दियों को पृथक्‌ कर दिया जाए, और बचा लिया जाए किन्तु गैर-मुसलमानों को धर्मान्तरणकारी तलवार द्वारा कत्ल कर दिया जाए। मैंने यह आदेश भी दिया कि मुसलमानों के घरों को सुरक्षित रखा जाए, किन्तु अन्य सभी घरों को लूट लिया जाए, और विनष्ट कर दिया जाए।'
(मुलफुज़ात-ई-तिमूरी, एलियट और डाउसन, खण्ड III पृष्ठ ४३२-३३)


एक लाख असहाय हिन्दुओं का एक ही दिन में कत्ल

हिन्दुओं के वध एवम्‌ रक्त पात में उसे कैसा व कितना आनन्द आता है, इसके विषय में तिमूर ने लिखा था- 'अमीर जहानशाह और अमीर सुलेमान शाह और अन्य अनुभवी अमीरों ने मेरे ध्यान में लाया, यानी कि मुझसे कहा, कि जब से हम हिन्दुस्तान में घुसे हैं तब से अब तक हमने १००००० हिन्दू बन्दी बनाये हैं और वे सभी मेरे डेरे में हैं। मैंने बन्दियों के विषय में उनका परामर्श माँगा, और उन्होंने कहा, कि बड़े युद्ध के दिन इन बन्दियों को लूट के सामान के साथ नहीं छोड़ा जा सकता; और इस्लामी युद्ध नीति व नियमों के सर्वथा विरुद्ध ही होगा कि इन बन्दियों को मुक्त कर दिया जाए। वास्तव में उन्हें तलवार द्वारा कत्ल कर देने के अतिरिक्त विकल्प ही नहीं था। जैसे ही मैंने इन शब्दों को सुना, मैंने पाया कि वे इस्लामी युद्ध के नियमों के अनुरूप् ही थे, और मैंने सीधे ही सभी डेरों में आदेश दे दिया, कि प्रत्येक व्यक्ति जिसके पास युद्ध बन्दी हैं, उन्हें मृत्यु को सौंप दें, यानि कि उनका वध कर दें। इस्लाम के गाजियों को जैसे ही आदेशों का ज्ञान हुआ, उन्होंने बन्दियों को मौत के घाट उतार दिया। १००००० 'अविश्वासी', 'अपवित्र मूर्ति पूजक', (हिन्दू) उस दिन कत्लकर दिये गये। मौलाना नसीरुद्‌दीन उमर, एक परामर्श दाता और विद्वान, जिसने अपने सारे जीवन में जहाँ एक चिड़िया भी नहीं मारी थी, मेरे आदेश के पालन में, उसने अपने पन्द्रह हिन्दू बन्दियों का वध कर दिया।
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४३५-३६) (सूरा ८ आयत ६७ कुरान)


दिल्ली में चुन चुनकर कत्ल

'महीने की छः तारीख को मैंने देहली को लूट लिया, ध्वंस कर दिया। हिन्दुओं ने अपने ही हाथों अपने घरों में आग लगा दी, और अपनी पत्नियों और बच्चों को उन घरों के भीतर जला दिया, और युद्ध में दैत्यों की भाँति कूद पड़े, और मार दिये गये...उस दिन बृहस्पतिवार को और शुक्रवार की पूरी रात्रि को लगभग पन्द्रह हजार तुर्क, वध करने, लूटने और विनाश कार्य में लिप्त थे...अगले दिन शनिवार को भी पूरे दिन उसी प्रकार का क्रिया कलाप चलता रहा और बर्बादी व लूट इतनी अधिक थी कि प्रत्येक व्यक्ति के भाग पचास से लेकर सौ तक बन्दी-पुरुष, महिला व बच्चे-आये। कोई व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसके पास बीस बन्दी न हों। और दूसरे प्रकार की लूट भी माणिक, मोती, हीरों के रूप में अथाह व असीमित थी। औरतें तो इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध थीं, कि गणना से भी परेथीं। उलेमाओं और दूसरे मुसलमानों को छोड़, सभी का वध कर दिया गया और सारे शहर को विध्वंस का दिया।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४४५-४६)
मोहम्मद हबीब और ए. के. निजामी ने, ए कम्प्रीहैन्सिव हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, खण्ड ५ दी 'सुल्तानेट्‌स', (पृष्ठ १२२) पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली, पुस्तक में से बन्दी व वध हुए हिन्दू पुरुष महिला बच्चों सम्बन्धी इस लेख में से 'हिन्दू' शब्द को जानबूझ कर हटा दिया गया है। यह है उदाहरण हमारे सैक्यूलरवादी इतिहासज्ञों की बुद्धिवादी ईमानदारी का!


यमुना के किनारे-किनारे जिहाद

तिमूर ने लिखा था- 'जुमादा-ई-अव्वाल के पहले दिन मैंने अपनी सेना की बाईं ओर के भाग, को अमीर जहाँशाह के नेतृत्व में सौंप दिया और आदेश दे दिया कि यमुना के किनारे-किनारे ऊपर की ओर अग्रसर हुआ जाए और मार्ग में आने वाले प्रत्येक दुर्ग, शहर व गाँव को विजय किया जाए और देश के सभी गैर-मुसलमानों को तलवार से काट दिया जाए...मेरे वीर अनुयायियों ने आज्ञा पालन किया और शत्रुओं का पीछा किया और उनमें से बहुतों को मार दिया और उनकी पत्नियों और बच्चों को बन्दी बना लिया। जब अल्लाह की कृपा से मैंने विजय प्राप्त कर ली। मैं अपने घोड़ों से उतर आया और अल्लाह को धन्यवाद देने के लिए भूमि पर लेट गया और साष्टांग प्रणाम किया।
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४५१-५४)


हरिद्वार के कुम्भ मेले में रक्तपात

तिमूर ने आगे लिखा था-' मेरे वीर आदमियों ने बड़े साहस और चुनौती का प्रदर्शन किया; उन्होंने अपनी तलवारों को सैनिक ध्वज बनाया और गंगा स्नान के पर्व के अवसर पर हिन्दुओं के वध में परिश्रम किया, उन्होंने अविश्वासियों में से बहुतों को वध कर दिया और उनका पीछा किया जो पर्वतों की ओर भागे। उनमें से इतनों का वध किया गया कि उनका रक्त पर्वतों और मैदानों में बहने लगा। इस प्रकार सभी को नर्क की अग्नि में झोंक दिया गया।
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४५९)


शिवालिक में इस्लाम का प्रवेश

शिवालिक पहाड़ी में लूट पाट व नर संहार के विषय में अपनी जीवनी में तिमूर ने लिखा-'जुमादा-ई-अव्वाल के दसवें दिन शिवालिक के अविश्वासियों से युद्ध करने व उन का वध करने के निश्चय के साथ मैं अपने घोड़े पर चढ़ा और अपनी तलवार खींच ली। वीर-योद्धाओं ने, वध हुए (कट मरे) हिन्दुओं के, अनेकों ढेर बना दिये। पहाड़ी की सभी महिलायें व बच्चे बन्दी बना लिये गये। अगले दिन मैंने यमुना नदी पार कर ली और शिवालिक पहाड़ी की दूसरी ओर डेरा लगा दिया। मेरे विजयी सैनिकों ने अपनी तलवारों को लहराते हुए पीछा किया और भगोड़ों के समूहों का वध किया और उन्हें नर्क को भेज दिया। जब सैनिकों ने मूर्ति पूजकों का वध करना त्यागा तो उन्हें व्यापक लूट में असीमित वस्तुएं और बहुमूल्य पदार्थ, बन्दी, और पशु प्राप्त हुए। उनमें से किसी के पास एक या दो सौ गायों और दस या बीस दासों से कम न थे।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ४६२-४६४)


कांगड़ा में जिहाद

'शिवालिक के उस पार घाटी में मैं जैसे ही घुसा तो हिन्दुओं के एक विशाल शहर, नगर कोट, के विषय में मुझे सूचना दी गई, तो तुरन्त ही मैंने अमीर जहाँ शाह को शत्रु पर आक्रमण करने के लिए आदेश दिया। इस्लाम के पवित्र योद्धाओं ने हाथों में तलवारें लेकर भगोड़ों के मध्य घुस जाने का साहस दिखाया और हिन्दुओं की लाशों के ढेर लगा दिये। बहुतांश संखया में, वध कर दिये गये, और विजेताओं के हाथ में एक महान लूट के रूप में विशाल संखया में, वस्तुएं, बहुमूल्य पदार्थ व बन्दी आये।'
(वही पुस्तक, पृष्ठ ४६५-६६)


मुसलमानों के लिए लूट का माल माँ के दूध के समान

हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहक तत्वों, के सन्दर्भ में तिमूर ने अपनी जीवनी में लिखा था- 'हिन्दुस्तान आने और इतना सारा परिश्रम करने तथा कष्ट उठाने का हेतु, दो उद्‌देश्यों की सिद्धि थी। प्रथम इस्लाम के शत्रुओं, अविश्वासियों (हिन्दुओं) से युद्ध करना; और इस धर्म युद्ध के द्वारा भावी जीवन के लिए किसी इनाम के लिए अधिकार प्राप्त कर लेना था। दूसरा एक सांसारिक उद्‌देश्य था; कि इस्लाम की सेना, अविश्वासियों की कुछ गणना योग्य धन सम्पत्तियों, और बहुमूल्य पदार्थों को लूट सके। मुसलमानों के लिए युद्ध में लूट का माल उतना ही विधि संगत है जितना उनके लिए माँ का दूध, मुसलमान, जो दीन के लिए युद्ध करते हैं उनके लिए लूट का माल, जो इस्लामी विधि के अनुसार सर्वथा उचित व मान्य है, उसका उपभोग महिमा कारक है, बड़प्पन का स्त्रोत है।
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ-४६१)
सूरा ४९ आयत १५, सूरा ४ आयत १००, कुरान



बाबर (१५१९-१५३०)

भारत में इस्लामी आक्रमणकर्ताओं के मुगल साम्राज्य के संस्थापक, बाबर, ने 'मुजाहिद' की पदवी उस समय प्राप्त की जब उसने उत्तरपश्चिम सीमा प्रान्त के, एक छोटे से राज्य, बिजनौर, में अपनी भारतविजय के प्रारम्भिक काल १५१९ में आक्रमण किया। उसने अपनी जीवनी, बाबरनामा, में इस घटना का बड़े आनन्द व हर्षोल्लास, के साथ वर्णन किया था।

हिन्दू शवों के सिरों से मुस्लिम आक्रान्ता बाबर द्वारा बनवाई गई मीनारें

'चूंकि बिजौरीवासी इस्लाम के शत्रु व विद्रोही थे, और चूंकि उनके मध्य विधर्मी और विरोधी रीति रिवाज व परम्परायें प्रचलित थीं, उनका सामान्य, यानी कि सर्व समावेशी, नर संहार किया गया। उनकी पत्नियों और बच्चों को बन्दी बना लिया गया। एक अनुमान के अनुसार तीन हजार व्यक्ति मौत के घाट उतारे गये, नर्क पहुँचाये गये। दुर्ग को विजयकर, हमने उसमें प्रवेश किया और उसका निरीक्षण किया। दीवालों के सहारे, घरों में, गलियों में, गलियारों में, अनगित संखया में हिन्दू मृतक पड़े हुए थे। आने वाले व जाने वाली सभी को शवों के ऊपर से ही जाना पड़ा था...मुहर्रम के नौवें दिन मैंने आदेश दिया कि मैदान में हिन्दू मृतक शिरो की एक मीनार बनाई जाए।'
(बाबरनाम अनु. ए. एस. बैवरिज, नई दिल्ली पुनः छापी १९७९, पृष्ठ ३७०-७१)
हिन्दू व्यक्तियों के शिरों से शिकार खेलने की अपने पूर्वज तिमूर की अभिरुचि में बाबर भागीदार था। दोनों हीगाज़ियों को, कटे हुए हिन्दू शिरों की मीनारें खड़ी करने की एक असाधारण लगन थी।


बाबर गाज़ी हो गया

जवाहर लाल नेहरू से लेकर जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय एवम्‌ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के सैक्यूलरवादियों तक सभी ने बाबर को एक दक्ष, चतुर, भावुक कवि चित्रित किया है। हमें लगा कि बाबर के काव्य का एक नमूना प्रस्तुत कर देना उपयोगी और आनन्द कर होगा। निम्नलिखित, उद्धत, काव्य से पूर्णतः स्पष्ट है, उसका अर्थ करना निरर्थक है, क्योंकि उसका पाठ स्वयं ही सर्वाधिक अर्थपूर्ण व स्पष्ट है। यथा-
'इस्लाम के निमित्त मैं जंगलों में भटका।
मूर्ति पूजकों व हिन्दुओं के विरुद्ध प्रस्तुत हुआ।
शहीद की मृत्यु स्वयं पाने का निश्चय किया,
अल्लाह का धन्यवाद कि मैं गाजी हो गया।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ-५७४-७५)


बाबरी मस्जिद

१५२८-२९ में, बाबर के आदेशानुसार, मुगल सैन्य संचालक, मीर बकी ने, भगवान राम की जन्मभूमि की स्मृति में बने, अयोध्या मन्दिर, का विध्वंस कर दिया और उसके स्थान पर एक मस्जिद बनवा दी।'
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ ६५६, और मुस्लिम स्टेट इन इण्डिया, के. एस. लाल)
बाबरी मस्जिद पर एक शिला लेख : 'शहंशाह बाबर के आदेशानुसार, उदार हदय मीरबकी ने फरिश्तों के उतरने का यह स्थान बनवाया।'


गुरु नानक देव द्वारा बाबर की निन्दा

भारत के महानतम सन्तों में से एक महान सन्त गुरु नानक देव बाबर के समकालीन ऋषि थे। हिन्दुओं की अवर्णनीय यातनाओं का ध्यान कर वे (गुरु नानक देव) इतने द्रवित हुए कि उन्होंने संसार के उत्पत्ति कर्ता, परमपिता परमेश्वर से, हिन्दुओं की घोर पीड़ा से द्रवित हो, प्रश्न किया कि हे प्रभो! आप ऐसे नर संहार, ऐसी यातनाओं और ऐसी पीड़ाओं को किस प्रकार सहन कर पाते हैं। उन्होंने कहा- 'ईश्वर ने अपने पंखों के नीचे खुरासन लगा रखा है यानी कि समधिस्थ हो गये हैं और भारत को बाबर के अत्याचारों के लिए खुला छोड़ दिया है।'

'हे जीवन दाता! आप अपने ऊपर कोई कैसा भी दोष नहीं लपेटते अर्थात्‌ सदैव ही निर्लिप्त रहे आते हो। क्या यह मृत्यु ही थी जो मुगल के रूप् में हमसे युद्ध करने आई? जब इतना भीषण नर संहार हो रहा था, इतनी भीषण कराहें निकल रही थीं, क्या तुम्हें पीड़ा नहीं हुई?
(गुरु नानक, पृष्ठ १२५, प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)
कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया नामक ग्रन्थ में आचार्य जदुनाथ सरकार ने लिखा था- 'अपने समकालीन मुसलमानों की, गुरुनानक ने भर्त्सना की थी और उन्हें नीच, पतित व पथ भृष्ट कहा था।'
(खण्ड ४, अध्याय VIII, पृष्ठ २४४)


विजयानगरम्‌ का विनाश (१५६५)

इस्लामी आतंकवाद व गुण्डगर्दी के इतिहास में दक्षिण भारत में विजया नगरम्‌ राजधानी का विध्वंस सम्भवतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थानों के विध्वंसों में से एक है। काम्पिल के राजा के पुत्रों, हरिहर और बुक्का, ने इस राजधानी विजया नगरम्‌ को स्थापित किया था जिसे मुहम्मद बिन तुगलक ने धर्मान्तरित कर इस्लामी बना दिया था। बाद में स्वामी विद्यारण्य के प्रोत्साहन व मार्ग दर्शन में उन्होंने तुगलक राज्य को, उलट दिया, दरबार वालों को भगा दिया, समाप्त कर दिया और हिन्दू धर्म में पुनः धर्मान्तरित कर दिया और दक्षिण में मुस्लिम शक्ति व साम्राज्य के विस्तार को रोकने के लिए, विजया नगर राज्य की स्थापना की। यह राजधानी अपने समय की विश्व भर में सर्वाधिक सम्पन्न राजधानियों में से एक थी-जो स्वयं में सौन्दर्यकला का एक आश्चर्य ही है। इस हिन्दू राज्य में धन, सम्पदा, संस्कृति असाधारण रूप से प्रजातांत्रिक और उदार मानव समाज, का प्रभु का आशीर्वाद था। यह हिन्दू समाज, यूनाइटेड नेशन्स द्वारा विश्व व्यापी मानवाधिकारों की घोषणा केचार सौ वर्ष पहले से ही मानव मूल्यों व मानवाधिकारों को स्वीकार करता था, आदर करता था, और पोषण करता था। सम सामयिक भारत में भ्रमणार्थ आये यात्री, दुआर्ते बारबोसा के शब्दों में,

''विजया नगर के राजाओं ने आज्ञा दे रखी थी कि कोई भी व्यक्ति, कभी भी, कहीं भी आये या जाये; और बिना किसी कैसी भी रुकावट, असुविधा, व यातना के, स्वेच्छानुसार अपने मतानुसार अपना जीवन यापन करे। उसे यह पूछने या बताने की आवश्यकता नहीं थी कि वह ईसाई, यूहूदी, मूर वा विधर्मी है। वह जो भी है सुख से स्वेच्छानुसार रहे। सर्वत्र सभी द्वारा समता, न्याय और आत्मीयता ही देखने को थी।''
(दुआर्ते बारबोसा की पुस्तक, खण्ड १, पृष्ठ २०२)

उदाहरणार्थ, ''(१४१९-१४४९) में देव राय ने आदेश निकाला कि मुसलमानों को सेवाओं में रखा जाए, उन्हें सम्पत्तियाँ आवण्टित कीं, और विजया नगर में एक मस्जिद बनावाईं। राम राजा के शासनकाल में जब एक बार मुसलमानों ने तुर्क वाड़ा क्षेत्र की एक मस्जिद में एक गाय का वध किया और राजा के भाई तिरुमल के ही नेतृत्व में, उत्तेजित अफसर और सरदारों ने, राजा से प्रतिवदेन कर राजा से शिकायत की, तो भी राजा अपनेविचारों व निश्चय से डिगे नहीं, और प्रतिवेदन कर्ताओं के सामने झुके नहीं, और उत्तर दिया कि वह किसी की धार्मि मान्यताओं में हस्तक्षेप नहीं करेगा, और घोषित किया कि वह अपने सैनिकों के शरीरों का स्वामी है, उनकी आत्माओं का स्वामी नहीं।''
(रौयल एशियाटिक सोसायटी के बम्बई शाखा का जर्नल, खण्ड XXII, पृष्ठ २८)


अविश्वासियों के धोखा देने के लिए इस्लाम की अनुमति

एक से अधिक युद्धों में भी उसे हराकर राम राजा ने विजयनगर के निकट के मुस्लिम शासक, सुल्तान अली आदिल शाह के साथ शांति स्थापित कर ली। किन्तु सुल्तान ने मूर्ति पूजकों अविश्वासियों (गैर-मुसलमानों) के साथ धोखाधड़ी कर देने सम्बन्धी कुरानी (३ः११८) आज्ञा का पालन करते हुए दक्षिण भारत की मुस्लिम रियासतों का एक संघ बनाकर, इस वस्तुतः पन्थ निरपेक्ष राज्य के विरुद्ध जिहाद कर दिया। किन्तु कहानी का अन्त यहाँ ही नहीं हो जाता है। तेईस जनवरी पन्द्रह सौं पैंसठ को ताली कोट के यृद्ध के अन्तिम दिन विजय नगर की सेना ने उपयुक्त अवसर पर त्वरित गति से आक्रमण कर दिया। परिणामस्वरूप मुसलमानों की संघीय सेना के बायें और दायें भाग की सेनाएं बुरी तरह अस्त व्यस्त हो गईं औरसेनानायक समर्पण करने को, और वापिस जाने को, प्रस्तुत हो गये। तभी हुसेन ने स्थिति बचा ली। तब युद्ध पुनः प्रारम्भ हो गया और दोनों ही पक्षों की भीषण क्षति हुई। युद्ध अधिक देर नहीं चला, कयोंकि राम राम राजा के दो मुसलमान सेना नायकों द्वारा धोखा देकर पक्ष त्याग देने के कारण युद्ध के अन्त का भविष्य निश्चित हो गया। कैसर फ्रैडरिक, जिसने उस समय विजय नगर को देखा था, ने कहा था कि इन दोनों सेना नायकों के नेतृत्व में प्रत्येक के अधीन सत्तर से अस्सी हजार योद्धा थे, इनके पक्ष तयाग व धोखा धड़ी के कारण ही विजया नगर की हार हुई। राम राजा शत्रुओं के हाथ लग गया और हसन के आदेशानुसार उसका शिरच्छेदन कर दिया गया।''
(आर. सी. मजूमदार सं. हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, बी वी बी, खण्ड VII पृष्ठ ४२५)


नरसंहार, लूटपाठ, डकैती और विध्वंस

अब्बास खान शेरवानी ने अपने ऐतिहासिक अभिलेख तारीख-ई-फरिश्ता में लिखा- ''मुस्लिम मित्रों ने हिन्दुओं का पीछा किया और सुल्ता के साथ इतनी मात्रा में कत्ल किया कि रक्त बहने लगा और नदी का पानी रक्त रंजित हो गया। सर्व श्रेष्ठ अधिकारियों ने गणना की थी कि पीछा करने और वधकार्य में एक लाख से भी से अधिक अविश्वासी, हिन्दू व्यक्तियों का वध किया गया था। लूटपाट इतनी व्यापक और अधिक थी कि संघीय सेना का प्रत्येक असैनिक व्यक्ति सोने, जवाहरात, आयुध, घोड़े और दास सभी से बेहद धनी हो गया, उन्होंने लूटपाट की, प्रत्येक प्रमुख भवन को गिराकर भूमि सात कर दिया, और हर सम्भव प्रकार का अत्याचार किा।''
(तारीख-ई-फरिश्ता, अब्बास खान शेरवानी, एलियट और डाउसन, खण्ड IV, पृष्ठ ४०७-०९)
युद्ध की समाप्ति के उपरान्त मुसलमानों ने कुरान के वायदे के अनुसार जन्नत में स्थाई स्थान पाने और बहत्तर हूरें प्राप्त कर लेने के उद्‌देश्य से, निरपराध, हिन्दुओं का नरसंहार किया। कुरान की प्रतिज्ञा इस प्रकार है निश्चय ही पवित्र लोग सफल होंगे दूसरे शब्दों में जहाँ तक पवित्र लोगों का प्रश्न है, वे निश्चय ही सफल होंगे, वहाँ बाग होंगे और अंगूरों के बगीचे, और उऊचे उठे हुए उरोजों वाली हूरें साथी के रूप में९ एक सत्य रूप में भरा हुआ प्याला।''
(सूरा ७८ आयत ३१-३४)

दार-उल-हरब का विनाश

''तीसरे दिन, अन्त का प्रारम्भ हुआ। विजयी मुसलमानों ने पूर्ण निर्ममतापूर्वक हिन्दू लोगों को काटा, कत्ल किया, मन्दिरों और पूजा घरों को तोड़ डाला, और राजाओं के आवासों (राजमहलों) का इतनी असभ्यता, बर्बरता पूर्ण बदले की भावना प्रदर्शित करते हुए, विनाश किया कि जहाँ शाही भवन हुआ करते थे उन स्थानों की पहचान के लिए वहाँ अवशेषों के ढेर मात्र रह गये। उन्होंने प्रतिमाओं का ध्वंस कर दिया, और एक विशाल शिला से ही निर्मित, नरसिंह, के अंगों को भी तोड़ देने में सफल हो गये। ऐसा नहीं लगता था कि उनसे कुछ भी बच पया हो। नदी के निकट विट्‌ठल स्वामी मन्दिर के अंश रूप में बने, आकर्षक, महिमा पूर्ण ढंग से सजे भवनों को विनष्ट करने के लिए उन्होंने व्यापक व विशालकाय आग लगा दी, और उनके अनुपम रूप में सुन्दर पत्थर की भवन निर्माण कला का ध्वंस कर दिया। अग्नि और तलवारों, सब्बलों और कुल्हाड़ियों द्वारा एक दिन के बाद दूसरे दिन इसी प्रकार वे अपने अभीष्ट विनाश का काम करते रहे। विश्व के इतिहास में सम्भवत कभी भी ऐसे विनाश का काम नहीं किया गया है और विनाश कार्य इतनी आकस्मिकता के साथ वही भी इतने सुन्दर व ऐश्वर्यवान शहर पर; जो एक दिन धनी और सम्पन्न, जनसंखया से परिपूर्ण था, और जो एक दिन सम्पन्नता के शिखर पर था, और दूसरे ही दिन, अधिकार मेंले लिया गया, पूर्णतः असभ्यता पूर्ण नरसंहार के साथ नष्ट कर दिया गया, खण्डहरों में बदल दिया गया, और ऐसे असभ्य, बर्बर, आतंकपूर्ण व यातनापूर्ण वातावरण के मध्य कि उसका वर्णन भी न किया जा सके।''
(रौबर्ट स्वैल : ऐ फौरगौटिन ऐम्पायर, पृष्ठ १९९-२००, न्यू देहली, पुनः मुद्रित १९६६)



शेर शाह सूरी (१५४०-१५४५)

शेरशहह सूरी एक अफगान था जिसने देहली में एक छोटी अवधि, पाँच वर्ष राज्य किया। हमारे सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञ उसकी अपार प्रशंसा करते हैं मात्र इसलिए ही नहीं कि उसने छतीस सौं मील लम्बी ग्राण्ड ट्रंक रोड बनाई वरन्‌ इसलिए भी कि वह उनके मतानुसार सैक्यूलर, परोपकारी, दयालु और कोमल हृदय का शासक था। यहाँ हम यह विवेचना नहीं कर रहे कि पाँच साल के इतने अल्पकाल में, विशेषकर जब वह अनेकों युद्धों में भी लिप्त रहा आया था, इतनी लम्बी छत्तीस सौ मील लम्बी सड़क वह भी पूर्वी बंगाल से लेकर पेशावर तक, के लम्बे क्षेत्र में सड़क निर्माण कार्य कैसे सम्भव हो सकता था, विशेषकर जब, उसके आधे क्षेत्र में भी उसका शासन नहीं था, वह कैसे बनवा सकता था। और कथित सड़क के निर्माण का किसी भी सामयिक ऐतिहासिक अभिलेख में कोई कैसा भी वर्णनउपलब्ध नहीं है। यहाँ विवेचन का हमारा सम्बन्ध, इन सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञों द्वारा प्रतिपादित तथ्य, शेरशाह के सैक्यूलर होने के विषय में है।
अब्बास खान रिजिवी ने अपने इतिहास अभिलेख तारीख-ई-शेरशाही में बड़ी यथार्थता और विस्तार से शेरशाह के संक्षिप्तकालीन शासन का विवरण लिखा था। इस इतिहास अभिलेख का एच. एम. ऐलियट और डाउसन ने अंग्रेजी में अनुवाद किया था जो आज के तालिबानों के पिता के द्वारा व्यवहार में लाई गई, तथाकथित सैक्यूलरिज्म, का एक अति विलक्षण वर्णन प्रस्तुत करता है।
१५४३ में शेरहशाह ने रायसीन के हिन्दू दुर्ग पर आक्रमण किया। छः महीने के घोर संघर्ष के उपरान्त रायसनी का राजा पूरन मल हार गया। शेर शाह द्वारा दिये गये सुरक्षा और सम्मान के वचन एवम्‌ आश्वासन का, हिन्दुओं ने विश्वास कर लिया, और समर्पण कर दिया। किन्तु अगले दिन प्रातः काल हिन्दू, जैसे ही किले से बाहर आये, शेरशाह की सेना ने उन पर आकस्मिक आक्रमण कर दिया। अब्बार खान शेरवानी ने लिखा था-
''अफगानों ने चारों ओर से आक्रमण कर दिया, और हिन्दुओं का वध प्रारम्भ कर दिया। पूरन मल और उसके साथी, घबराई हुई भेड़ों व सूअरों कीभाँति, वीरता और युद्ध कौशल दिखाने में सर्वथा असफल रहें, और एक आँख के इशारे मात्र समय में ही, सबके सब वध हो गये। उनकी पत्नियाँ और परिवार बन्दी बना लिये गये। पूरन मल की एक पुत्री और उसके बड़े भाई के तीन पुत्रों को जीवित ले जाया गया और शेष को मार दिया गया। शेरशाह ने पूरन मल की पुत्री को किसी घुम्मकड़ बाजीगर को दे दिया जो उसे बाजार में नचा सके, और लड़कों को बधिया, सस्सी, करवा दिया ताकि हिन्दुओं का वंश न बढ़े।''
(तारीख-ई-शेरशाही : अब्बास खान शेरवानी, एलिएट और डाउसन, खण्ड IV, पृष्ठ ४०३)

अब्बास खान ने शेर शाह की सैक्यूलरिज्म के अनेकों और उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। उनमें से एक इस प्रकार है- ''उसने अपने अश्वधावकों को आदेश दिया कि हिन्दू गाँवों की जाँच पड़ताल करें, उन्हें मार्ग में जो पुरुष मिलें, उन्हें वध कर दें, औरतों और बच्चों को बन्दी बना लें, पशुओं को भगा दें, किसी को भी खेती ने करने दें, पहले से बोई फसलों को नष्ट कर दें, और किसी को भी पड़ौस के भागों से कुछ भी न लाने दें।''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ३१६)


अकबर 'महान' (१५५६-१६०५)

जवाहर लाल नेहरु द्वारा लिखित, बहुत प्रशंसित, ऐतिहासिक मिथ्या कथा, ''डिस्कवरी ऑफ इण्डिया'' में जिसे अकबर 'महान' कहकर स्वागत व प्रशांसित किया गया, एक धुरीय, व्यक्तित्व है, जो मार्क्सिटस्ट ब्राण्ड के सैक्यूलरिस्टों के लिए, आनन्द व उल्लास का स्रोत हैं इन मैकौलेवादी व मार्क्सिस्टों की जाति के, इतिहासकारों, द्वारा इस (अकबर) को एक सर्वाधिक परोपकारी उदार, दयालु, सैक्यूलर और ज जाने किन-किन गुणों से सम्पन्न शहंशाह के रूप में चित्रित किया गया है। अतः इस लेख के द्वारा, अकबर के स्वंय के, व उसके प्रधानमंत्री द्वारा लिखित, विवरणों के ही आधार पर लोगों के समक्ष विशेषकर सैक्यूलरवादी इतिहासज्ञों के समक्ष प्रगट, एवम्‌ प्रमाणित, करने का प्रयास किया जा रहाा है, कि अकबर वास्तव में कितना महान था।

अकबर एक ग़ाजी हो गया

एक निहत्थे, असुरक्षित और बुरी तह घायल, हिन्दू, हैमू या राजा हेमचन्द्र का शिरोच्छेदन या वध कर अकबर, किशोरावस्था में ही, गाजी हो गया था।
अकबर के सम साममियक इतिहास अभिलेख लेखक अहमद यादगार ने, लिखा था- ''बैरम खाँ ने हिमूँ के हाथ पैर बाँध दिये और उसे, नव जवान, भाग्यवान शहजादे के पास ले गया और बोला, चूंकि यह हमारी प्रथम सफलता है,अतः आप श्रीमान, अपने ही पवित्र कर कमलों से तलवार द्वारा इस अविश्वासी का कत्ल कर दें, और उसी के अनुसार शहजादे ने, उस पर आक्रमण किया और उसका सिर उसके अपवित्र शरीर, धड़ से अलग कर दिया।'' (नवम्बर, ५ AD १५५६)
(तारीख-ई-अफगान, अहमद यादगार, एलियट और डाउसन, खण्ड VI, पृष्ठ ६५-६६)
''बादशाह ने तलवार से हिमू पर आक्रमण किया और उसने गाजी की उपाधि प्राप्त कर ली।''
(तारीख-ई-अकबर, पृष्ठ ७४ अनु. तानसेन अहमद)
अबुल फजल ने लिखा था- ''अकबर को बताया गया कि हिमू का पिता और पत्नी और उसकी सम्पत्ति व धन अलवर में हैं, अतः बादशाह ने नासिर-उल-मलिक को चुने हुए योद्धाओं के साथ आक्रमण के लिए भेज दिया। हिमू के पिता को जीवित ले आया गया और नासिर-उल-मलिक के सामने प्रस्तुत किया गया जिसने उसे (हिमू के पिता को) इस्लाम में धर्मान्तरित करने का प्रयास किया, किन्तु वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, ''मैंने अस्सी वर्ष तक ईश्वर की पूजा अपने मतानुसार की है; मै। अपने मत को कैसे त्याग सकता हूँ? क्या मैं तुम्हारे मत को बिना समझे हुए, भय के कारण, स्वीकार कर लूँ, मौलाना परी मोहम्मद ने उसके उत्तर को अनसुना कर दिया, किन्तु उसका उत्तर, अपनी तलवार की जीभ या तलवार के आघात से दिया।''
(अकबर नामा, अबुल फजल : एलियट और डाउसन, खण्ड टप्, पृष्ठ २१)



चित्तौड़ में जिहाद

अकबर की चित्तौड़ विजय के विषय में अबुल फजल ने लिखा था, ''अकबर के आदेशानुसार प्रथम आठ हजार राजपूत यौद्धाओं को हथियार विहीन कर दिया गया, और बाद में उनका वध कर दिया गया। उनके साथ-साथ अन्य चालीस हजार कृषकों का भी वध कर दिया गया।''

(अकबरनामा, अबुल फजल, अनु. एच. बैबरिज)
'युद्ध बन्दियों के साथ इस्लामी व्यवहार का ढंग इसी पुस्तक में सूरा ८ आयत ६७ कुरान में देखें।


फ़तहनामा-ई-चित्तौड़ (मार्च १५६८)

चित्तौड़ की विजयोपरान्त प्रसारित फतह नामा को सम्मिलित कर अकबर ने विभिन्न अवसरों पर फतहनामें प्रसारित किये थे। यह ऐतिहासिक पत्र अकबर ने जिहाद की पूर्णतम भावना के वशीभूत हो, लिखा था और इस प्रकार हिन्दुओं के प्रति उसकी गहन, आन्तरिक घृणा, सम्पूर्ण रूप में इस पत्र द्वारा प्रकाशित हो गई थी।

फतह नामा का मूल पाठ इस प्रकार था, ''अल्लाह की खयाति बढ़े जिसने वचन को पूरा किया, अकेले ही संयुक्त शक्ति को हरा दिया और जिसके पश्चात कहीं भी कुछ भी नहीं है..... सर्वशक्तिमान, जिसने कर्तव्य परायण मुजाहिदों को बदमाश अविश्वासियों को अपनी बिजली की तरह चमकीली कड़कड़ाती तलवारों द्वारा वघ कर देने की आज्ञादी थी, उसने (अल्लाहने) बताया था, उनसे युद्ध करो! अल्लाह उन्हें तुम्हारे हाथों के द्वारा दण्ड देगा और वह उन्हें नीचे गिरा देगा। वध कर धराशायी कर देगा। और तुम्हें उनके ऊपर विजय दिला देगा (कुरान सूरा ९ आयत १४) ''हमने अपना बहुमूल्य समय अपनी शक्ति से, सर्वोत्तम ढंग से जिहाद, (घिज़ा) युद्ध में ही लगा दिया है और अमर अल्लाह के सहयोग से, जो हमारे सदैव बढ़ते जाने वाले साम्राज्य का सहायक है, अविश्वासियों के अधीन बस्तियों निवासियों, दुर्गों, शहरों को विजय कर अपने अधीन करने में लिप्त हैं, कृपालु अल्लाह उन्हें त्याग दे और तलवार के प्रयोग द्वारा इस्लाम के स्तर को सर्वत्र बढ़ाते हुए, और बहुत्ववाद के अन्धकार और हिंसक पापों को समाप्त करते हुए, उन सभी का विनाश कर दे। हमने पूजा स्थलों को उन स्थानों में मूर्तियों को और भारत के अन्य भागों को विध्वंस कर दिया है। अल्लाह की खयाति बढ़े जिसने, हमें इस उद्‌देश्य के लिए, मार्ग दिखाया और यदि अल्लाह ने मार्ग न दिखाया होता तो हमें इस उद्‌देश्य की पूर्ति के लिए मार्ग ही न मिला होता....।.''
(फतहनामा-ई-चित्तौड़ : अकबर ॥नई दिल्ली, १९७२ इतिहास कांग्रेस की कार्य विधि॥ अनु. टिप्पणी : इश्तिआक अहमद जिज्ली पृष्ठ ३५०-६१)


अकबर का शादी के निमित्त जिहाद

अपने हरम को सम्पन्न व समृद्ध करने के लिए अकबर ने अनेकों हिन्दू राजकुमारियों के साथ बलात शादियाँ की; और बज्रमूर्ख, कुटिल एवम्‌ धूर्त सैक्यूलरिस्टों ने इसे, अकबर की हिन्दुओं के प्रति स्नेह, आत्मीयता और सहिष्णुता के रूप में चित्रित किया हैं किन्तु इस प्रकार के प्रदर्शन सदैव एक मार्गीय ही थे। अकबर ने कभी भी, किसी भी मुगल महिला को, किसी भी हिन्दू को शादी में नहीं दिया।
''रणथम्भौर की सन्धि के अन्तर्गत शाही हरम में दुल्हिन-भेजने की, राजपूतों के स्तर को गिराने वाली, रीति से बूंदी के सरदार को मुक्ति दे दी गई थी।''

उपरोक्त सन्धि से स्पष्ट हो जाता है कि अकबर ने, युद्ध में हारे हुए हिन्दू सरदारों को अपने परिवार की सर्वाधिक सुन्दर महिला को मांगने व प्राप्त कर लेने की एक परिपाटी बना रखी थीं और बूंदी ही इस क्रूर परिपाटी का एक मात्र, सौभाग्यशाली, अपवाद था।
''अकबर ने अपनी काम वासना की शांति के लिए गौंडवाना की विधवा रानी दुर्गावती पर आक्रमण कर दिया किन्तु एक अति वीरतापूर्ण संघर्ष के उपरान्त यह देख कर कि हार निश्चित है, रानी ने आत्म हत्या कर ली। किन्तु उसकी बहिन को बन्दी बना लिया गया। और उसे अकबर के हरम में भेज दिया गया।'' (
आर. सी. मजूमदार, दी मुगल ऐम्पायर, खण्ड VII, पृष्ठ बी. वी. बी.)

हल्दी घाटी के गाज़ी

राणाप्रताप के विरुद्ध अकबर के अभियानों के लिए सबसे बड़ा, सबसे अधिक, सशक्त प्रेरक तत्व था इस्लामी जिहाद की भावना, जिसकी व्याखया व स्पष्टीकरण कुरान की अनेकों आयतों ओर अन्य इस्लामी धर्म ग्रंथों में किया गया है। ''उनसे युद्ध करो, जो अल्लाह और कयामत के दिन (अन्तिम दिन) में विश्वास नहीं रखते, जो कुछ अल्लाह और उसके पैगम्बर ने निषेध कर रखा है उसका निषेध नहीं करते; जो उस पन्थ पर नहीं चलते हैं यानी कि उस पन्थ को स्वीकार नहीं करते हैं जो सच का पन्थ है, और जो उन लोगों को है जिन्हें किताब (कुरान) दी गई है; (और तब तक युद्ध करो) जब तक वे उपहार न दे दें और दीन हीन न बना दिये जाएँ, पूर्णतः झुका न दिये जाएँ।''
(कुरान सूरा ९ आयत २५)

अतः तर्कपूर्वक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजपूत सरदारों और भील आदिवासियों द्वारा संगठित रूप में हल्दी घाटी में मुगलों के विरुद्ध लड़ा गया युद्ध मात्र एक शक्ति संघर्ष नहीं था। इस्लामी आतंकवाद व आतताईपन के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध ही था।

अकबर के एक दरबारी इमाम अब्दुल कादिर बदाउनी ने अपने इतिहास अभिलेख, 'मुन्तखाव-उत-तवारीख' में लिखा था कि १५७६ में जब शाही फौंजे राणाप्रताप के विरुद्ध युद्ध के लिए अग्रसर हो रहीं थीं तो उसने (बदाउनीने) ''युद्ध अभियान में सम्मिलित होकर हिन्दू रक्त से अपनी इस्लामी दाड़ी को भिगों लेने के विद्गिाष्ट अधिकार के प्रयोग के लिए इस अवसर पर उपस्थित रहे आने में अपनी असमर्थता के लिए आदेश प्रापत करने के लिए शाहन्शाह से भेंट की अनुमति के लिए प्रार्थना की।'' अपने व्यक्तित्व के प्रत इतने सम्मन और निष्ठा, और जिहाद सम्बन्धी इस्लामी भावना के प्रति निष्ठा से अकबर इतना प्रसन्न हुआ कि अपनी प्रसन्नता के प्रतीक स्वरूप् मुठ्‌ठी भर सोने की मुहरें उसने बदाउनी को दे डालीं।
(मुन्तखाब-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, पृष्ठ ३८३, वी. स्मिथ, अकबर दी ग्रेट मुगल, पृष्ठ १०८)


काफिर होना, मृत्यु का कारण

हल्दी घाटी के युद्ध में एक मनोरंजक घटना हुई। वह विशेषकर अपने सैक्यूलरिस्ट बन्धुओं के निमित्त ही यहाँ उद्धत है।

बदाउनी ने लिखा था- ''हल्दी घाटी में जब युद्ध चल रहा था और अकबर से संलग्न राजपूत, और राणा प्रताप के निमित्त राजपूत परस्पर युद्ध रत थे और उनमें कौन किस ओर है, भेद कर पाना असम्भव हो रहा था, तब अकबर की ओर से युद्ध कर रहे बदाउनी ने, अपने सेना नायकसे पूछा कि वह किस पर गोली चलाये ताकि शत्रु को ही आघात हो, और वह ही मरे। कमाण्डर आसफ खाँ ने उत्तर दिया था कि यह बहुत अधिक महत्व की बात नहीं कि गोली किस को लगती है क्योंकि सभी (दोनों ओर से) युद्ध करने वाले काफ़िर हैं, गोली जिसे भी लगेगी काफिर ही मरेगा, जिससे लाभ इसलाम को ही होगा।''

(मुन्तखान-उत-तवारीख : अब्दुल कादिर बदाउनी, खण्ड II, अकबर दी ग्रेट मुगल : वी. स्मिथ पुनः मुद्रित १९६२; हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल, दी मुगल ऐम्पायर : सं. आर. सी. मजूमदार, खण्ड VII, पृष्ठ १३२ तृतीय संस्करण, बी. वी. बी.)

इसी सन्दर्भ में एक और ऐसी ही समान स्वभाव् की घटना वर्णन योग्य है। प्रथम विश्व व्यापी महायुद्ध में जब ब्रिटिश भारत की सेनायें क्रीमियाँ में नियुक्त थीं तब ब्रिटिश भारत की सेना के मुस्लिम सैनिकों के पीछे स्थित थे, हिन्दू सैनिकों पर पीदे से गोलियाँ चला दीं, फलस्वरूप बहुत से हिन्दू सैनिक मारे गये। मुस्लिम सैनिकों की शिकायत थी कि जर्मनी के पक्षधर, और जो क्रीमियाँ पर अधिकार किये हुए थे, उन तुर्कों के विरुद्ध वे युद्ध नहीं करना चाहते थे। इस घटना के बाद ब्रिटिशों ने ब्रिटिश भारत की सेना के हिन्दू और मुस्लमान सैनिकों को युद्ध स्थल पर कभी भी एक ही पक्ष में, एक साथ, नियुक्त नहीं किया। इस घटना का वर्णन उस ब्रिटिश अफसर ने स्वयं ही लिखा था जो इस अति अद्युत, और विशिष्ट, तथा इस्लामी, घटना का स्वंय प्रत्यक्ष दर्शी था।
(दी इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी, लण्डन, एम. एस. एस. २३९७)

किन्तु हिन्दुओं ने अपने इतिहास से कुछ भी नहीं सीखा है, अतः ऐसी घटना की पुनरावृत्ति अत्याज्य है। घटना तुलनात्मक रूप में निकट भूत की ही है जिसमें साम्य वादियों की बहुत अधिक कटु भागीदारी है। एक भली भांति सिद्धान्त विशारद साम्यवादी, विखयात नेता, स्वर्गीय प्रो. कल्यान दत्त (सी. पी. आई) ने अपनी जीवनी ''आमार कम्युनिष्ट जीवन'' में लिखा था। मुस्लमानों ने अपनी पाकिस्तान की मांग को सम्पन्न कराने के लिए १६ अगस्ट १९४६ को 'प्रत्यक्ष कार्यवाही' प्रारम्भ कर दी। इसे बाद में ''कलकत्ता का महान नरसंहार, महान कत्लेआम, कहा गया।'' (दी ग्रेट कैलकट्‌टा किलिंगस)। 'जिहाद' जिसे प्रत्यक्ष कार्यवाही (डायरेक्ट एक्शन) नाम दिया गया, खिदर पुर डौकयार्ड के मुस्लिम मजदूरों ने हिन्दू मजदूरों पर आक्रमण कर दिया। आश्चर्यचकित हिन्दुओं ने वामपंथी टे्रड यूनियन्स की सदस्यता के, जिनकेहिन्दू मुसलमान दोनों ही मजदूर थे कार्ड दिखाकर प्राणरक्षा की भीख मांगी, और कहा कि ''अरे कौमरैडो (साथियों) तुम हमारा वध क्यों कर रहे हो? हम सभी एक यूनियन में हैं। ''किन्तु चूँकि इन मुजाहिदों को इस्लाम का राज्य (दारूल इस्लाम) मजदूरों के राज्य से कहीं अधिक प्रिय है, ''सभी हिन्दुओं का वध कर दिया गया।''
(कल्यान दत्त, 'आमार कम्यूनिष्ट जीवन' (बंगाली) पर्ल पब्लिशर्स, पृष्ठ १० प्रथम आवृत्ति कलकत्ता १९९९)

इस विशेष घटना के यहाँ वर्णन करने का मेरा उद्‌देश्य और आशा है, कि वामपंथी सेना, ''जो व्यावहारिक ज्ञान की अपेक्षा सिद्धान्त बनाने में अधिक सिद्ध हस्त हैं, ''उनके मस्तिष्कों में वास्तविकता, सच्चाई और सामान्य ज्ञान का कुछ उदय हो जाए।


अकबर हिन्दुओं का वधिक

जहाँगीर ने, अपनी जीवनी, ''तारीख-ई-सलीमशाही'' में लिखा था कि ''अकबर और जहाँगीर के आधिपत्य में पाँच से छः लाख की
संखया में हिन्दुओं का वध हुआ था।''
(तारीख-ई-सलीम शाही, अनु. प्राइस, पृष्ठ २२५-२६)
गणना करने की चिंता किये बिना, मानवों के वध एवम्‌ रक्तपात सम्बन्धी अकबर की मानसिक अभिलाषा के उदय का कारण, इस्लाम के जिहाद सम्बन्धीसिद्धांत, व्यवहार और भावना में थीं, जिनका पोषण इस्लामी धर्म ग्रन्थ और प्रशासकीय विधि विज्ञान के नियमों द्वारा होता है।



शाहजहाँ (१६२८ -१६५८)

शाहजहाँ शेखी मारा करता था कि ''वह तिमूर का वंशज है जो भारत में तलवार और अग्नि लाया था। उस उज्रबैंक के, जंगली जानवर, (तिमूर) से, उसकी हिन्दुओं के रक्तपात की उपब्धि से, इतना प्रभावित था कि ''उसने अपना नाम तिमूर द्वितीय रख लिया''
(दी लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इण्डिया- डॉ. के. एस. लाल, १९९२ पृष्ठ- १३२).

बहुत प्रारम्भिक अवस्था से ही शाहजहाँ ने अविश्वासियों के प्रति युद्ध के लिए साहस व रुचि दिखाई। पृथक-पृथक ने लिखा था कि, ''शहजादे के रूप में ही शाहजहाँ ने फतहपुर सीकरी पर अधिकार कर लिया था और आगरे का शहर विध्वंस कर दिया था जहाँ, भारत यात्रा पर आये देला वैले, इटली के एक धनी व्यक्ति के अुनसार, उसकी (शाहजहाँ की) सेना ने भयानक बर्बरता का परिचय कराया था। हिन्दू नागरिकों को घोर यातनाओं द्वारा अपने संचित धन को दे देने के लिए विवश किया गया, और अनेकों उच्च कुल की कुलीन हिन्दू महिलाओं का शील भंग, और उनका अंग भंग किया गया।''
(कीन्स हैण्ड बुक फौर विजिटर्स टू आगरा एण्ड इट्‌स नेबरहुड, पृष्ठ २५)

अनेकों इतिहासज्ञ, विशेषकर सैक्यूलरिसटों ने, शाहजहाँ को एक महान्‌ निर्माता के रूप में चित्रित किया है। उसकी, सौन्दर्य शास्त्र की अभिरुचि वाले, के रूप में प्रशंसा की गई है। किन्तु इस तथाकथित सौन्दर्य शास्त्र के प्रति अभिरुचि रखने वाले मुजाहिद ने अनेकों हिनदू मन्दिरों, और अनेकों हिन्दू भवन निर्माण कला के केन्द्रों, का बड़ी असाधारण लगन और जोश से विध्वंस किया था।

अब्दुल हमीद ने अपने इतिहास अभिलेख, 'बादशाह नामा' में लिखा था, ''महामहिम शहन्शाह महोदयय की सूचना में लाया गया कि अविश्वासियों (हिन्दुओं) के एक सशक्त केन्द्र, बनारस, में उनके पिताजी के शासनकाल में अनेकों मन्दिरों के पुनः निर्माण का काम प्रारम्भ हुआ था किन्तु वे अपूर्ण रह गये थे और अविश्वासी (हिन्दू) अब उन्हें पूर्ण कर देने के इच्छुक हैं। इस्लाम पंथ के रक्षक, महामहिम, ने आदेश दिया कि बनारस में और उनके सारे राज्य में अन्यत्र सभी स्थानों पर जिन मन्दिरों का निर्माण प्रारम्भ हो गया है, उन्हें विध्वंस कर दिया जाए। इलाहाबाद प्रदेश से सूचना प्राप्त हो गई कि जिला बनारस के छियत्तर मन्दिरों का ध्वंस कर दिया गया था।''
(बादशाहनामा : अब्दुल हमीद लाहौरो, एलियट और डाउसन, खण्ड VII, पृष्ठ ३६)

''कश्मीर से लौटते समय १६३२ में शाहजहाँ को बताया गया कि अनेकों महिलायें हिन्दू हो गईं और उन्होंने हिन्दू परिवारों में शादी कर ली थी। शहंशाह के आदेश पर इन सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लिया गया। प्रथम उन सभी पर इतना आर्थिक दण्ड थोपा गया कि उनमें से कोई भुगतान नहीं कर सका। तब इस्लमाम स्वीकार कर लेने और मृत्यु में से एक को चुन लेने का विकल्प दिया गया। चूंकि किसी ने धर्मान्तरण स्वीकार नहीं किया, उन्हें वध कर दिया गया। लगभग चार हजार पाँच सौं महिलाओं को बलात्‌ मुसलमान बना लिया गया।''
(हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल : आर. सी. मजूमदार, भारतीय विद्या भवन, खण्ड टप्प्, पृष्ठ ३१२)

''मनुष्य के रूप में शाहजहाँ एक नीच और पथभ्रष्ट व्यक्ति था। उसके बाबा अकबर के हरम में पाँच हजार महिलाऐं, अधिकांशतः हिन्दू थीं। अकबर की मृत्यु के पश्चात्‌ जहाँगीर को हरम, उत्तराधिकार में मिला और उसने रखैलों की संखया बढ़ाकर छः हजार कर ली। और वही हरम जब शाहजहाँ को प्राप्त हुआ, उसने उसे और भीबढ़ा दिया। उसने हिन्दू महिलाओं की व्यापक छाँट द्वारा हरम को और सम्पन्न किया। बुढ़ियाओं को भगा कर और अन्य हिन्दू परिवारों से बलात लाकर हरम को बढ़ाता ही रहा।''
(अकबर दी ग्रेट मुगल : वी स्मिथ, पृष्ठ ३५९)

हिन्दू महिलाओं से यौन सम्बन्धों के लिए दासवृत्ति

भगाई हुई हिन्दू महिलाओं की यौन दासता और यौन व्यापार को शाहजहाँ प्रश्रय देता था, और अक्सर अपने मंत्रियों और सम्बन्धियों को पुरस्कार सवरूप अनेकों हिन्दू महिलाओं को दिया करता था। यह व्यभिचारी, नर पशु, यौनाचार के प्रति इतना आकर्षित और उत्साही था, कि हिन्दू महिलाओं के बाजार (मीना बाजार) लगाया करता था, यहाँ तक कि अपने महल में भी। सुप्रसिद्ध यूरोपीय यात्री फ्रांकोइस बर्नियर ने इस विषय में टिप्पणी की थी कि, ''महल में बार-बार लगने वाले मीना बाजार, जहाँ भगा कर लाई हुई सैकड़ों हिन्दू महिलाओं का, क्रय-विक्रय हुआ करता था, राज्य द्वारा बड़ी संखया में नाचने वाली लड़कियों की व्यवस्था, और नपुसंक बनाये गये सैकड़ों लड़कों की हरमों में उपस्थित, शाहजहाँ के लम्पटपन व काम लिप्सा के समाधान के लिए ही थी।
(टे्रविल्स इन दी मुगल ऐम्पायर- फ्रान्कोइस बर्नियर :पुन लिखित पुनः लिखित वी. स्मिथ, औक्स फोर्ड १९३४)



औरंगजेब (१६५८ - १७०७)

अपने पूर्वजों से पूर्णतः भिन्न, औरंगजब, कम से कम अपने मूल वास्तविक स्वरूप, स्वभाव और भावनानुसार ही, लोगों के ज्ञान में है। इरफान हबीब, और उसे अनय टोली के साथियों के, औरंगजेब के जिहादी कुकृत्यों को न्यायोचित ठहराने के अथक प्रयासों की उपस्थिति में भी, उसके जिहादी, कुकृत्य : उदाहरणार्थ बलात्‌ धर्मान्तरण, मन्दिर विध्वंस और सिख गुरुओं और सत्पुरुषों के वध, इस मुजाहिद को पन्थ निरपेक्ष (सैक्यूलर) प्रस्थापित करने की दिशा में, तकिन भी सहयोगी, नहीं हो सके हैं। चूंकि इस लेख के अति सीमित आकार के कारण, औरंगजेब की धार्मिक कट्‌टरता और उन्माद का संक्षिप्ततम विवरण भी समाविष्ट नहीं किया जा सकता है तो भी हम उसके द्वारा हिन्दुस्तान के मूर्ति पूजकों के विरुद्ध जिहादी कुकृत्यों की, एक झलक मात्र देने का प्रयास कर रहे हैं।


गुरु तेग बहादुर का वध

घाटी के ब्राह्मणों का एक प्रतिनिधि मण्डल गुरु जी के पास गया, और अपने गर्वनर इफ्तिकार खाँ के माध्यम से औरंगजेब के द्वारा, उन पर किये जाने वाले अत्याचारों, और यातनाओं की,शिकायतें को, उन्होंने गुरु जी को बताया कि उनके सामने दो मार्गों : मृत्यु और इस्लाम- में से एक को चुन लेने का आग्रह किया जा रहा है। उन्होंने गुरु जी से कहा, ''इस अन्धकार भरे काल में, आप ही हमारे एक मात्र स्वामी एवम्‌ सर्वस्व हैं। अब आप पर ही हमारी जाति और धर्म की रक्षा का भार निर्भर करता है। अन्यथा हम सम्मान के साथ अपने जीवन, और पीढ़ियों पुराने धर्म के पालन में सर्वथा असमर्थ हैं। हमारे लिए यह सब असम्भव हो चला है।''

जब उसके पन्थ और पन्थानुयाइयों पर पूर्णतः अनाश्वयक रूप में आक्रमण हो रहा हो, तब योद्धा सन्त, उपेक्षा भाव दिखा पाने में सर्वथा असमर्थ था। उसने (गुरुजी ने ) उन्हें सान्तवना दी और प्रोत्साहित किया। और हिन्दुओं द्वारा कश्मीर में बलात धर्म परिवर्तन के प्रतिरोध का नेतृत्व किया, इससे औरंगजेब क्रुद्ध हो गया और उसने गुरु जी को बन्दी बनाये जाने के लिए आदेश दे दिये। जब गुरु जी को औरंगजेब के सम्मुख प्रस्तुत किया गया तब उसने गुरु जी के सामने मृत्यु और इस्लाम में से एक को चुन लेने का विकल्प प्रस्तुत किया। गुरु जी ने धर्म तयाग देने (इस्लाम स्वीकार कर लेने) को मना कर दिया और शहंशाह के आदेशानुसार,पाँच दिन तक अमानवीय यंत्रणायें देने के उपरान्त, गुरु जी का सिर काट दिया गया। इस पर गुरु गोविन्द सिंह ने कहा था, ''कि उन्होंने (गुरु जी ने) अपना रक्त (बलि) देकर तिलक और हिन्दुओं के यज्ञोपवीत की रक्षा की।''
(विचित्र नाटक-गुरु गोविन्द सिंहः ग्रन्थ सूरज प्रकाश-भाई सन्तोख सिंह : इवौल्यूशन ऑफ खालसा, प्रोफैसर आई बनर्जी, १९६२)

औरंगजेब द्वारा मन्दिरों का विनाश
हिस्ट्री ऑफ औरंगजेब- सर जदुनाथ सरकार, खण्ड III, अपेण्डिक्स V से

राज्यारोहण से पहिले
''सीतादास जौहरी द्वारा सरशपुर के निकट बनवाये गये चिन्तामन मन्दिर का विध्वंस कर, उसके स्थान पर शहजादे औरंगजेब के आदेशानुसार १६४५ में क्वातुल-इस्लाम नामक मस्जिद बनावा दी ग्ई।'' (मीरात-ई-अहमदी, २३२)। दी बौम्बे गजऋटियर खण्ड I भाग I पृष्ठ २८० ''आगे गहता है कि मन्दिर में एक गाय का वध भी किया गया।''

''मेरे ओदशानुसार, मेरे प्रवेश से पूर्व के दिनों में, अहमदाबार और गुजरात के अन्य परगनों में अनेकों मन्दिरों का विध्वंस कर दिया गया था। उनकी मरम्मत कर दी गई और उनमें पुनः मूर्ति पूजा आरम्भ हो गई थी। मेरे पहले के आदेश दिनांक २० नवम्बर १६६५(फर्मान) को व्यवहार में लाओ''
(मीरात पृ. २७५)
''औरंगाबाद के निकट सतारा गाँव मेरा शिकार स्थल था। पहाड़ी के शिखर पर यहाँ खाण्डे राय का मूर्ति युक्त एक मन्दिर था। अल्लाह की महिमा से (कृपा से) मैंने उसे ध्वंस कर दिया।''
(कालीमात-ई-अहमदी, पृष्ठ ३७२)

१९ दिसम्बर १६६१ को मीर जुम्ला ने, वहाँ के जारा औरलोगों द्वारा खाली किये कूच विहार शहर में प्रवेश किया और, ''सैय्यद मोहम्मद सादिक को मुखय न्यायाधीश नियुक्त कर दिया और आदेश किया कि सभी हिन्दू मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए और उनके स्थन पर मस्जिदें बनवा दी जाएँ। (सेनानायक ने) जनरल ने स्वयं, युद्ध की कुल्हाड़ी नेकर, नारायण की मूर्ति का ध्वंस कर दिया।''
(स्टीयूअर्ट्‌स बंगाल)

''जैसे ही शहंशाह ने सुना कि दाराशुकोह ने मथुरा के केशवराय मन्दिर में पत्थरों की एक बाड़ को पुनः स्थापित करा दिया है, उसने कटाक्ष किया, कि इस्लामी पंथ में तो मन्दिर की ओर देखना भी पाप है और इस रादा ने मन्दिर की बाड़ को पुनः स्थापित करा दिया है। मुहम्मदियों के लिए वह आचरण जनक नहीं है। बाड़ को हटा दो। उसके आदेशानुसार मथुरा के फौजदार अब्दुलनबी खान ने बाड़को हटा दिया।''
(अखबारातः ९वाँ वर्ष, स्बीत ७, १४ अक्टूबर १६६६)

२० नवम्बर १६६५ ''चूँकि महामहिम शहंशाह के ध्यान में लाया गया है कि गुजरात प्रान्त के निकट के क्षेत्रों के लोगों ने शहंशाह के प्रवेश से पूर्व के शाही आदेशाकें के अन्तर्गत ध्वंस किये गये मन्दिरों को पुनः बना लिया है... अतः महामहिल आदेश देते हैं कि... पूर्व में ध्वंस किये गये और आल ही में पुनः स्थापित मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए''
(फरमान जो मीरात २७३ में दिया गया)

९ अप्रैल १६६९ ''सभी प्रान्तों के गवर्नरों को शहंशाह ने आदेश दिया कि अविश्वासियों के सभी स्कूलों और मन्दिरों का विध्वंस कर दिया जाए और उनकी शिक्षा और धार्मिक क्रियाओं को पूरी शक्ति के साथ समाप्त कर दिया जाए-
''मासिर-ई-आलमगीरी, (डी ग्राफ, १६७० में जब वह हुगली में था आदेश सुना ओरमें का फ्रोग, २५०)

मई १६६९ ''गदा धारी सलील बहादुर को मालारान के मन्दिर को तोड़ने के लिए भेजा गया।'' (मासीर-ई-आलम गीरी ८४)

२ सितम्बर १६६९ ''न्यायालय में समाचार आया कि शाही आदेशानुसार उसके अफसरों ने बनारस के विश्वनाथ मन्दिर का ध्वंस कर दिया था (उसी पुस्तक में, ८८)जनवरी १६७० ''रमजान के इस महीने में धार्मिक मन वाले शहंशाह ने मथुरा के केशव का देहरा नामक मन्दिर के ध्वंस का आदेश किया। अल्पकाल में उसके अफसरों ने आज्ञा पालन कर दी। बहुत बड़े व्यय के साथ उस मन्छिर के स्थान पर एक मस्जिद बना दी गई। उस मन्दिर का निर्माण बीर सिंह बुन्देला द्वारा तेतीस लाख रुपयों के व्यय से कराया गया था। महान पन्थ इस्लाम के अल्लाह की खयाति बढ़े कि, अविश्वास और अशांति विनाशक, इस पवित्र शासन में, इतना महान, आश्चर्यजनक, और देखने में असम्भव, कार्य सम्पन्न हो गया। शहंशाह के पन्थ की शक्ति और उसकी अल्लाह के प्रति भक्ति की महिमा के इस उदाहरण को देखकर राजा लोग आश्चर्यचकित, और श्वास रुके, अनुभव करने लगे और भौचक्के हो ऐसे देख रहे थे जैसे एक मूर्ति दीवाल को रदेखती है। मन्दिर में स्थापित छोटी बड़ी सारी मूर्तियाँ, जिनमें बहुमूल्य जवाहरात जड़े हुए थे, आगरा नगर में लाई गईं, और जहाँनारा मस्जिद की सीढ़ियों में लगा दी गईं ताकि, उन्हें निरन्तर पैरों तले रौंदी जा सकें।''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ ९५-९६)

''सैनोन के सीता राम जी मन्दिर का उसने आंशिक ध्वंस किया; उसके अफसरों में से एक ने पुजारी कोकाट डाला, मूर्ति को तोड़ दिया, और गोंड़ा की देवीपाटन के पूजाग्रह (मन्दिर) को अपवित्र कर दिया।''
(क्रुक का एन. डब्ल्यू. पी. ११२)

''कटक से लेकर उड़ीसा की सीमा पर मेदिनीपुर तक के सभी थानों के फौजदारों, प्रशासन अधिकारियों (मुतसद्दिसों), जागीरदारों के प्रतिनिधियों, कोरियों, औ अमल कर्ता सेवकों के लिए आदेश प्रसारित किये गये कि; उड़ीसा प्रान्त के एक समाचार पत्र से समाचार पाकर कि मेदिनीपुर के एक गाँव तिलकुटी में एक नया मन्दिर बनाया गया है, शहंशाह के आदेशानुसार शाही भुगतान के स्वामी असद खाँन ने पत्र लिखा और पवित्र आदेश दिया कि उस मन्दिर का और महत्वहीन अविश्वासियों द्वारा प्रदेश भर, में जहाँ कहीं, कोई मन्दिर बनाया गया हो, सभी का विनाश कर दिया जाए। अतः अधिकतम तीव्रता से, आपको आदेश दिया जाता है, कि इस पत्र की प्राप्ति के तुरन्त बाद, आप उपर्लिखित मन्दिरों को अविलम्ब ध्वंस कर दें। विगत दस बारह सालों में, जो भी मूर्तिघर बना हो, भले को वह ईंटों से बनाया गया हो, या मिट्‌टी से, प्रत्येक को अविलम्ब नष्ट कर दिया जाए। घृणित अविश्वासियों को, उनके प्राचीन मन्दिरों की मरमत भी, नहीं करनी देनी चाहिए। काजीकी सील के अन्तर्गत, और पवित्र शेखों द्वारा प्रमाणित मन्दिरों के विनाश की सूचना न्यायालय में भेज दी जानी चाहिए।
[मराकात-ई-अबुल हसन, (१६७० में पूर्ण की गई) पृष्ठ २०२]

''हर एक परगने में थानों के अफ़सर मूर्ति भंजन के आदेशों के साथ आते हैं।'' (२७ जून १६७२ को लिखित और जे. एम. रे. के बंगाली हिस्ट्री ऑफ ढाका आई, ३८९ में प्रकाशित ढाका के धर्मारिया स्थान के याशो माधव मन्दिर में सुरक्षित रखे, पत्र के अनुसार)

''खण्डेला के राजपूतों को दण्ड देने, और उस स्थान के बड़े मन्दिरों के ध्वंस करने के लिए दराब खाँ को भेजा गया था।'' (मासीर-ई-आलमगीरी १७१)। ''उसने ८ मार्च १६७९ को खण्डेला और शानुला के मन्दिरों का ध्वंस कर दिया और आसपास, अड़ौस पड़ौस, अन्य के मन्दिरों को भी ध्वंस कर दिया।''
(मासीर-ई-आलमगीरी १७३)

२५ मई १६७९, ''जोधपुर में मन्दिरों का ध्वंस करके और खण्डित मूर्तियों की कई गाड़िया भर कर खान-र्ठ-जहान बहादुर लौटा। शहंशाह ने आदेश दिया कि मूर्तियों, जिनमें अधिकांश सोने, चाँदी, पीतल, ताँबा या पत्थर की थीं, को दरबार के चौकोर मैदान में बिखेर दिया जाए और जामामस्जिद की सीढ़ियों में लगा दिया जाए ताकि उनकों पैरों तले रौंदा जा सके।''

(मासीर-ई-आलमगीरी पृष्ठ १७५)

१७ जनवरी १९८० ''उदयपुर के महाराणा के महल के सामने स्थित, एक विशाल मन्दिर, जो अपने युग के महान भवनों में से एक था, और अविश्वासियों ने जिसके निर्माण के ऊपर अपार धन व्यय किया था, उसे विध्वंस कर दिया गया, और उसकी मूर्तियाँ खण्डित कर दी गईं।''
(मासीर-ई- आलमगीरी १६८)

''२४ जनवरी को शहंशाह उदय सागर झील को देखने गया और उसके किनारे स्थित तीनों मन्दिरों के ध्वंस का आदेश दे आया।''
(पृष्ठ १८८, उसी पुस्तक में)।

''२९ जनवरी को हसन अली खाँ ने सूचित किया कि उदयपुर के चारों ओर के अन्य १७२ मन्दिर ध्वंस कर दिये गये हैं''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १८९)

''१० अगस्त १६८० आबू टुराब दरबार में लौटा और उसने सूचित किया कि उसने आम्बेर में ६६ मन्दिर तोड़ दिये हैं''
(पृष्ठ १९४)।

२ अगस्त १६८० को पश्चिमी मेवाड़ में सोमेश्वर मन्दिर को तोड़ देने का आदेश दिया गया।
(ऐडुब २८७a और २९०a)

सितम्बर १६८७ गोल कुण्डा की विजय के पश्चात्‌ शहंशाह ने 'अब्दुल रहीम खाँ को हैदराबाद शहर का आचरणनिराोक नियुक्त किया और आदेश दिया कि गैर-मुसलमानों (हिन्दुओं) के रीति रिवाजों व परम्पराओं तथा इस्लाम धर्म विरुद्ध नवीन विचारों को समाप्त कर दें और मन्दिरों को ध्वंस कर उनके स्थानों पर मस्जिदें बनवा दें।''
(खफ़ी खान ii ३५८-३५९)

''१६९३ में शहंशाह ने वाद नगर के मन्दिर हाटेश्वर, जो नागर ब्राह्मणों का संरक्षक था, को ध्वंस करने का आदेश किया''
- (मीरात ३४६)

१६९८ के मध्य में ''हमीदुद्दीन खाँन बहादुर, जिसे बीजापुर के मन्दिरों को ध्वंस करने और उस स्थान पर मस्जिद बनाने के लिए नियुक्त किया था, आदेशों का पालन कर दरबार में वापिस आया था। शहंशाह ने उसकी प्रशंसा की थी।''
(मीरात ३९६)

''मन्दिर का ध्वंस किसी भी समय सम्भव है क्योंकि वह अपने सािन से भाग कर नहीं जा सकता''
-(औरंगजेब से जुल्फि कार खान और मुगल खान को पत्र (कलीमत-ई-तय्यीबात ३९ं)

''महाराष्ट्र के नगरों के मकान बहुत अधिक मजबूत हैं क्योंकि वे पत्थरों और लोहें के द्वारा बनवाये गये हैं। अभियानों के मध्य कुल्हाड़ियाँ ले जाने वाले सरकारी आदमियों के पास पर्याप्त शक्ति सामर्थ्य व अवसर नहीं रहता कि मार्ग में दृष्टिगत हो जाने वाले,गैर-मुसलमानों के मन्दिरों को, तोड़ कर चूराकर, भूमिसार कर सकें। तुम्हें एक परम्परा निष्ठ निरीक्षक (दरोगा) नियुक्त कर देना चाहिए जो बाद में सुविधानुसार मन्दिरों को ध्वंस करा के उनकी नीवों को खुदवा दिया करे।''
(औरंगजेब से, रुहुल्ला खान को कांलीमत-ई-औरंगजेब में पृष्ठ ३४ रामपुर M.S. और ३५a I.0.L.M.S. ३३०१)

१ जनवरी १७०५ ''कुल्हाड़ीधारी आदमियों के दरोगा, मुहम्मद खलील को शहंशाह ने बुलाया... ओदश दिया कि पण्ढरपुर के मन्दिरों को ध्वंस कर दिया जाए और डेरे के कसाइयों को ले जाकर, मन्दिरों में गायों का वध कराया जाए... आज्ञा पालन हुई''
(अखबारात ४९-७)



अहमद शाह अब्दाली (१७५७ और १७६१)


मथुरा और वृन्दावन में जिहाद (१७५७)

''किसान जाटों ने निश्चय कर लिया था कि विध्वंसक, ब्रज भूमि की पवित्र राजधानी में, उनकी लाशों पर होकर ही जा सकेंगे... मथुरा के आठ मील उत्तर में। २८ फरवरी १७५७ को जवाहर सिंह ने दस हजार से भी कम आदमियों के साथ आक्रमणकारियों का डटकर, जीवन मरण की बाजी लगाकर, प्रतिरोध किया। सूर्योदया के बाद युद्ध नौ घण्टे तक चला और उसके अन्त में दोनोंओर के दस बारह हजार पैदल योद्धा मर गये, घायलों की गिनती तो अगणनीय थी।''

''हिन्दू प्रतिरोधक अब आक्रमणकारियों के सामने अब बुरी तरह धराशायी हो गये। प्रथम मार्च के दिन निकलने के बहुत प्रारम्भिक काल में अफगान अश्वारोही फौज, बिना दीवाल या रोक वाले और बिना किसी प्रकार का संदेह करने वाले, मथुरा शहर में फट पड़ी। और न अपने स्वामियों के आदेशों से, और न पिछले दिन प्राप्त कठोरतम संघर्ष वा प्रतिरोध के कारण, अर्थात दोनों ही कारणों से, वे कोई किसी प्रकार की भी दया दिखाने की मनस्थिति में नहीं थे। पूरे चार घण्टे तक, हिन्दू जनसंखया का बिना किसी पक्षपात के, भरपूर मात्रा में, दिलखोलकर, नरसंहार व विध्वंस किया गया। सभी के सभी निहत्थे असुरक्षित व असैनिक ही थे। उनमें से कुछ पुजारी थे... ''मूर्तियाँ तोड़ दी गईं और इस्लामी वीरों द्वारा, पोलों की गेदों की भाँति, ठुकराई गईं'', (हुसैनशाही पृष्ठ ३९)''

''नरसंहार के पश्चात ज्योंही अहमद शाह की सेनायें मथुरा से आगे चलीं गई तो नजीब व उसकी सेना, वहाँ पीछे तीन दिन तक रही आई। असंखय धन लूटा और बहुत सी सुन्दर हिन्दू महिलाओं को बन्दी बनाकरले गया।'' (नूर १५ b ) यमुना की नीली लहरों ने उन सभी अपनी पुत्रियों को शाश्वत शांति दी जितनी उसकी गोद में, उसी फैली बाहों को दौड़कर पकड़ सकीं। कुछ अन्यों ने, अपने सम्मान सुरक्षा और अपमान से बचाव के अवसर के रूप में, निकटस्थ, अपने घरों के कूओं में, कूदकर मृत्यु का आलिंगन कर लिया। किन्तु उनकी उन बहिनों के लिए, जो जीवित तो रही आईं, उनके सामने मृत्यु से भी कहीं अधिक बुरे भाग्य से, कहीं कैसी भी, सुरक्षा नहीं थी। घटना के पन्द्रह दिन बाद एक मुस्लिम प्रत्यक्षदर्शी ने विध्वंस हुए शहर के दृश्य का वर्णन किया है। ''गलियों और बाजारों में सर्वत्र वध किये हुए व्यक्तियों के श्रि रहित, धड़, बिखरे पड़े थे। सारे शहर में आग लगी हुई थी। बहुत से भवनों को तोड़ दिया गया था। जमुना में बहने वाला पानी, पीले जैसे रंग का था मानो कि रक्त से दूषित हो गया हो।''

''मथुरा के विनाश से मुक्ति पा, जहान खान आदेशों के अनुसार देश में लूटपाट करता हुआ घूमता फिरा। मथुरा से सात मील उत्तर में, वृन्दावन भी नहीं बच सका... पूर्णतः शांत स्वभाव वाले, आक्रामकताहीन, सन्त विष्णु भक्तों पर, वृन्दावन में सामान्यजनों के नरसंहार का अभ्यास किया गया (६ मार्च) उसी मुसलमान डाइरी लेखक ने वृन्दावन का भ्रमण कर लिखा था; ''जहाँ कहीं तुम देखोगे शवों के ढेर देखने को मिलेंगे। तुम अपना मार्ग बड़ी कठिनाई से ही निकाल सकते थे क्योंकि शवों की संखया के आधिक्य और बिखराव तथा रक्त के बहाव के कारण मार्ग पूरी तरह रुक गया था। एक स्थान पर जहाँ हम पहुँचे तो देखा कि.... दुर्गन्ध और सड़ान्ध हवा में इतनी अधिक थी कि मुँह खोलने और साँस लेना भी कष्ट कर था''
(फॉल ऑफ दी मुगल ऐम्पायर-सर जदुनाथ सरकार खण्ड प्ट नई दिल्ली १९९९ पृष्ठ ६९-७०)



अब्दाली का गोकुल पर आक्रमण

''अपन डेरे की एक टुकड़ी को गोकुल विजय के लिए भेजा गया। किन्तु यहाँ पर राजपूताना और उत्तर भारत के नागा सन्यासी सैनिक रूप के थे। राख लपेटे नग्न शरीर चार हजार सन्यासी सैनिक, बाहर खड़े थे और तब तक लड़ते रहे जब तक उनमें से आधे मर न गये, और उतने ही शत्रु पक्ष के सैनिकों की भी मृत्यु हुई। सारे वैरागी तो मर गये, किन्तु शहर के देवता गोकुल नाथ बचे रहे, जैसा कि एक मराठा समाचार पत्र ने लिखा।''
(राजवाड़े प ६३, उसी पुस्तक में, पृष्ठ ७०-७१)


पानीपत में जिहाद (१७६१)

''युद्ध के प्रमुख स्थल पर कत्ल हुए शवों के इकत्तीस, पृथक-पृथक, ढेर गिने गये थे। प्रत्येक ढेर में शवों की संखया, पाँच सौं से लेकर एक जाहर तक, और चार ढेरों में पन्द्रह सौं तक शव थे, कुल मिलाकर अट्‌ठाईस हजार शव थे।
इनके अतिरिक्त मराठा डेरे के चारों ओर की रवाई शवों से पूरी तरह भरी हुई थी। लम्बी घेराबन्दी के कारण, इनमें से कुछ रोगों, और आकल के शिकार थे, तो कुछ घायल आदमी थे, जो युद्ध स्थल से बचकर, रेंग रेंग कर, वहाँ मरने आ पहुँचे थे। भूख और थकान के कारण, मरने वालों और दुर्रानी की निरन्तर बिना रुके पीछा करने वाली सेना के सामने प्रतिरोध न करने वालों, के मर कर गिर जाने वाले शवों से, पानीपत के पश्चित और दक्षिण में, मराठों की पीछे लौटती हुई सेना की दिशा में, जंगल और सड़क भरे पड़े थे। उनकी संखया- तीन चौथाई असैनिक और एक चौथाई सैनिक- युद्ध में मरने वालों की संखया से बहुत कम थी। जो घायल पड़े थे शीत की विकरालता के कारण मर गये।''

''संघर्षमय महाविनाश के पश्चात पूर्ण निर्दयतापूर्वक, नर संहार प्रारम्भ हुआ। मूर्खता अथवा हताश वश कई लाखमराठे जो विरोधी वातावरण वाले शहर पानीपत में छिप गये थे, उन्हें अगले दिन खोज लिया गया, और तलवार से वध कर दिया गया। एक अति अविश्वसनीय विवरण के अनुसार अब्दुस समद खान के पुत्रों और मियाँ कुत्ब को अपने पिता की मृत्यु का बदला ले लेने के लिए पूरे एक दिन भर मराठों के लाइन लगाकर (बिना भेद के ) वध करेन की दुर्रानी की, शाही, अनुमति मिल गई थी'', और इसमें लगभग नौ हजार लोगों का वध किया गया था खभाऊ बखर १२३,; वे सभी प्रत्यक्षतः, असैनिक व निहत्थे ही थे। प्रत्यक्षदर्शी काशीराज पण्डित ने इस दृश्य का वर्णन इस प्रकार किया है- ''दुर्रानी के प्रत्येक सैनिक ने, अपने-अपने डेरों से, सौ या दो सौ, बन्दी बाहर निकाले, और यह चीखते हुए, चिल्लाते हुए कि, वह अपने देश से जब चला था तब उसकी माँ, बाप, बहिन और पत्नी ने उससे कहा था कि पवित्र धर्म युद्ध में विजय पा लेने के बाद वह उनके प्रत्येक के नाम से इतने काफिरों का वध करे कि उस काम के कारण', अविश्वासियों के वध के कारण, उन्हें उचित पुरस्कार के लिए धार्मिक श्रेष्ठता की मान्यता मिल जाए', और उन्हें डेरों के बाहरी क्षेत्रों में तलवारों से वध कर दिया। ( ' सुरा ८ आयत ५९-६०)''इस प्रकार हजारों सैनिक और अन्य नागरिक पूर्ण निर्ममता पूर्वक कत्ल कर दिये गये। शाह के डेरे में उसके सरदारों के आवासों को छोड़कर, प्रत्येक डेरे में उसके सामने कटे हुए शिरों के ढेर पड़े हुए थे।''
(उसी पुस्तक में, पृष्ठ २१०-११)


टीपू सुल्तान (१७८६-१७९९)

तथाकथित अकबर महान के पश्चात हमारे मार्किसस्ट इतिहासज्ञों की दुष्टि में सैक्यूलरवाद, प्रजातंत्र, उपनिवेशवाद विरोधी व सहिष्णुता का निष्कर्ष निकालने के लिए टीपू सुल्तान एक जीता जागता, सशरीर सुविधाजनक उदाहरण या नमूना हैं किन्तु सामयिक प्रलेखों (सुरा ९ आयत ७३) से पूर्णतः स्पष्ट है कि धार्मिक आदेशों से प्रोत्साहित कुर्ग और मलाबार के हिन्दुओं पर टीपू के अत्याचार और यातानाएं उन क्षेत्रों के इतिहास में अनुपम एवम्‌ अद्वितीय ही थे। उपर्लिखित इतिहासज्ञों (मार्किसस्टों) की, नस्ल ने, टीपू को, उसके द्वारा किये गये बर्बर अतयाचारों को पूर्णतः दबा, छिपा कर, आतताई को सैक्यूलरवादी, राष्ट्रवादी, देवतातुल्य, प्रमाणित व प्रस्तुत करने में कोई भी, कैसी भी, कमी नहीं रखी है, ताकि हम, मूर्ति पूजकों की पृथक-पृथक मूर्ख जाति, जो छद्‌म देवताओं की भी पूजा कर लेते हैं,उसे वैसा ही मान लें। और सत्य तो यह है कि बहुतांश में ये इतिहासकार अपने इस कुटिल उद्‌देश्य में, भले को पूरी तरह नहीं, सफल भी हो गये हैं, किन्तु महा महिम टीपू सुल्तान बड़े, कृपालु और उदार थे कि उन्होंने अपने द्वारा हिन्दुओं पर किय गये अत्याचारों का वर्णन, और अन्य सामयिक प्रलेखों में दक्षिण भारत के इस मुजाहिद का वास्तविक स्वरूप, पूर्णतः प्रकाशित हो जाता है।


टीपू के पत्र

टीपू द्वारा लिखित कुछ पत्रों, संदेशों, और सूचनाओं, के कुछ अंश निम्नांकित हैं। विखयात इतिहासज्ञ, सरदार पाणिक्कर, ने लन्दन के इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी से इन सन्देशों, सूचनाओं व पत्रों के मूलों को खोजा था।

(i) अब्दुल खादर को लिखित पत्र २२ मार्च १७८८

"बारह हजार से अधिक, हिन्दुओं को इ्रस्लाम से सम्मानित किया गया (धर्मान्तरित किया गया)। इनमें अनेकों नम्बूदिरी थे। इस उपलब्धि का हिन्दुओं के मध्य व्यापक प्रचार किया जाए। स्थानीय हिन्दुओं को आपके पास लाया जाए, और उन्हें इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए। किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए।''
(भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त १९२३)


(ii) कालीकट के अपने सेना नायकको लिखित पत्र दिनांक १४ दिसम्बर १७८८

''मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन अली के साथ अपने दो अनुयायी भेज रहा हूँ। उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लेना और वध कर देना...''। मेरे आदेश हैं कि बीस वर्ष से कम उम्र वालों को काराग्रह में रख लेना और शेष में से पाँच हजार का पेड़ पर लटकाकार वध कर देना।''
(उसी पुस्तक में)

(iii) बदरुज़ समाँ खान को लिखित पत्र (दिनांक १९ जनवरी १७९०)

''क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है निकट समय में मैंने मलाबार में एक बड़ी विजय प्राप्त की है चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मूसलमान बना लिया गया था। मेरा अब अति शीघ्र ही उस पानी रमन नायर की ओर अग्रसर होने का निश्चय हैं यह विचार कर कि कालान्तर में वह और उसकी प्रजा इस्लाम में धर्मान्तरित कर लिए जाएँगे, मैंने श्री रंगापटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।''
(उसी पुस्तक में)
टीपू ने हिन्दुओं के प्रति यातनाआं के लिए मलाबार के विभिन्न क्षेत्रों के अपने सेना नायकों को अनेकों पत्र लिखे थे।

''जिले के प्रत्येक हिन्दू का इस्लाम में आदर (धर्मान्तरण) किया जाना चाहिए; उन्हें उनके छिपने के स्थान में खोजा जाना चाहिए; उनके इस्लाममें सर्वव्यापी धर्मान्तरण के लिए सभी मार्ग व युक्तियाँ- सत्य और असत्य, कपट और बल-सभी का प्रयोग किया जाना चाहिए।''
(हिस्टौरीकल स्कैचैज ऑफ दी साउथ ऑफ इण्डिया इन एन अटेम्पट टूट्रेस दी हिस्ट्री ऑफ मैसूर- मार्क विल्क्स, खण्ड २ पृष्ठ १२०)

मैसूर के तृतीय युद्ध (१७९२) के पूर्व से लेकर निरन्तर १७९८ तक अफगानिस्तान के शासक, अहमदशाह अब्दाली के प्रपौत्र, जमनशाह, के साथ टीपू ने पत्र व्यवहार स्थापित कर लिया था। कबीर कौसर द्वारा लिखित, 'हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान' (पृ' १४१-१४७) में इस पत्र व्यवहार का अनुवाद हुआ है। उस पत्र व्यवहार के कुछ अंग्रेजश नीचे दिये गये हैं।

टीपू के ज़मन शाह के लिए पत्र

(i) ''महामहिल आपको सूचित किया गया होगा कि, मेरी महान अभिलाषा का उद्देश्य जिहाद (धर्म युद्ध) है। इस युक्ति का इस भूमि पर परिणाम यह है कि अल्लाह, इस भूमि के मध्य, मुहम्मदीय उपनिवेश के चिह्न की रक्षा करता रहता है, 'नोआ के आर्क' की भाँति रक्षा करता है और त्यागे हुए अविश्वासियों की बढ़ी हुई भुजाओं को काटता रहता है।''

(ii) ''टीपू से जमनशाह को, पत्र दिनांक शहबान का सातवाँ १२११ हिजरी (तदनुसार ५ फरवरी १७९७): ''....इन परिस्थितियों में जो, पूर्व से लेकर पश्चित तक, सूर्य के स्वर्ग के केन्द्र में होने के कारण, सभी को ज्ञात हैं। मैं विचार करता हूँ कि अल्लाह और उसके पैगम्बर के आदेशों से एक मत हो हमें अपने धर्म के शत्रुओं के विरुद्ध धर्म युद्ध क्रियान्वित करने के लिए, संगठित हो जाना चाहिए। इस क्षेत्र के पन्थ के अनुयाई, शुक्रवार के दिन एक निश्चित किये हुए स्थान पर सदैव एकत्र होकर इन शब्दों में प्रार्थना करते हैं। ''हे अल्लाह! उन लोगों को, जिन्होंने पन्थ का मार्ग रोक रखा है, कत्ल कर दो। उनके पापों को लिए, उनके निश्चित दण्ड द्वारा, उनके शिरों को दण्ड दो।''
मेरा पूरा विश्वास है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह अपने प्रियजनों के हित के लिए उनकी प्रार्थनाएं स्वीकार कर लेगा और पवित्र उद्‌देश्य की गुणवत्ता के कारण हमारे सामूहिक प्रयासों को उस उद्‌देश्य के लिए फलीभूत कर देगा। और इन शब्दों के, ''तेरी (अल्लाह की) सेनायें ही विजयी होगी'', तेरे प्रभाव से हम विजयी और सफल होंगे।


लेख

टीपू की बहुचर्चित तलवार' पर फारसी भाषा में निम्नांकित शब्द लिखे थे- ''मेरी चमकती तलवार अविश्वासियों के विनाश के लिए आकाश की कड़कड़ाती बिजली है। तू हमारा मालिक है, हमारीमदद कर उन लोगों के विरुद्ध जो अविश्वासी हैं। हे मालिक ! जो मुहम्मद के मत को विकसित करता है उसे विजयी बना। जो मुहम्मद के मत को नहीं मानता उसकी बुद्धि को भृष्ट कर; और जो ऐसी मनोवृत्ति रखते हैं, हमें उनसे दूर रख। अल्लाह मालिक बड़ी विजय में तेरी मदद करे, हे मुहम्मद!''

(हिस्ट्री ऑफ मैसूर सी.एच. राउ खण्ड ३, पृष्ठ १०७३)
*ब्रिटिश म्यूजियम लण्डल का जर्नल

हमारे सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञों की रुचि, प्रसन्नता व ज्ञान के लिए श्री रंग पटनम दुर्ग में प्राप्त टीपू का एक शिला लेख पर्याप्त महत्वपूर्ण है। शिलालेख के शब्द इस प्रकार हैं- ''हे सर्वशक्तिमान अल्लाह! गैर-मुसलमानों के समस्त समुदाय को समाप्त कर दे। उनकी सारी जाति को बिखरा दो, उनके पैरों को लड़खड़ा दो अस्थिर कर दो! और उनकी बुद्धियों को फेर दो! मृत्यु को उनके निकट ला दो (उन्हें शीघ्र ही मार दो), उनके पोषण के साधनों को समाप्त कर दो। उनकी जिन्दगी के दिनों को कम कर दो। उनके शरीर सदैव उनकी चिंता के विषय बने रहें, उनके नेत्रों की दृष्टि छी लो, उनके मुँह (चेहरे) काले कर दो, उनकी वाणी को (जीभ को), बोलने के अंग को, नष्ट कर दो! उन्हें शिदौद की भाँति कत्ल करदो जैसे फ़रोहा को डुबोया था, उन्हें भी डुबो दो, और भयंकरतम क्रोध के साथ उनसे मिलो यानी कि उन पर अपार क्रोध करो। हे बदला लेने वाले! हे संसार के मालिक पिता! मैं उदास हूँ! हारा हुआ हूँ,! मुझे अपनी मदद दो।''
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १०७४)


टीपू का जीवन चरित्र

टीपू की फारसी में लिखी, 'सुल्तान-उत-तवारीख' और 'तारीख-ई-खुदादादी' नाम वाली दो जीवनयिाँ हैं। बाद वाली पहली जीवनी का लगभग यथावत (हू बू हू) प्रतिरूप नकल है। ये दोनों ही जीवनियाँ लन्दन की इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी में एम.एस. एस. क्र. ५२१ और २९९ क्रमानुसार रखी हुई हैं। इन दोनों जीवनयिों में हिन्दुओं पर उसके द्वारा ढाये अत्याचारों, और दी गई यातनाओं, का विस्तृत वर्णन टीपू ने किया है। यहाँ तक कि मोहिब्बुल हसन, जिसने अपनी पुस्तक, हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, टीपू को एक समझदार, उदार, और सैक्यूलर शासक चित्रित व प्रस्तुत करने में कोई कैसी भी कमी नहीं रखी थी, को भी स्वीकार करना पड़ा था कि ''तारीख यानी कि टीपू की जीवनियों के पढ़ने के बाद टीपू का जो चित्र उभरता है वह एक ऐसे धर्मान्ध, पन्थ के लिए मतवाले, या पागल, का है जो मुस्लिमेतर लोगों के वध और उनके इस्लाम में बलात परिवर्तन करान में ही सदैव लिप्त रहा आया।''
(हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, मोहिब्बुल हसन, पृष्ठ ३५७)


प्रत्यक्ष दर्शियों के वर्णन

इस्लाम के प्रोत्साहन के लिए टीपू द्वारा व्यवहार में लाये अत्याचारों और यातनाओं के प्रत्यक्ष दर्शियों में से एक पुर्तगाली यात्री और इतिहासकार, फ्रा बारटोलोमाको है। उसने जो कुछ मलाबार में, १७९० में, देखा उसे अपनी पुस्तक, 'वौयेज टू ईस्ट इण्डीज' में लिख दिया था- ''कालीकट में अधिकांश आदमियों और औरतों को फाँसी पर लटका दिया जाता था। पहले माताओं को उनके बच्चों को उनकी गर्दनों से बाँधकर लटकाकर फाँसी दी जाती थी। उस बर्बर टीपू द्वारा नंगे (वस्त्रहीन) हिन्दुओं और ईसाई लोगों को हाथियों की टांगों से बँधवा दिया जाता था और हाथियों को तब तक घुमाया जाता था दौड़ाया जाता था जब तक कि उन सर्वथा असहाय निरीह विपत्तिग्रस्त प्राणियों के शरीरों के चिथड़े-चिथड़े नहीं हो जाते थे। मन्दिरों और गिरिजों में आग लगाने, खण्डित करने, और ध्वंस करने के आदेश दिये जाते थे। यातनाओं का उपर्लिखित रूपान्तर टीपू की सेना से बच भागने वालेऔर वाराप्पुझा पहुँच पाने वाले अभागे विपत्तिग्रस्त व्यक्तियों से सुन वृत्तों के आधार पर था... मैंने स्वंय अनेकों ऐसे विपत्ति ग्रस्त व्यक्तियों को वाराप्पुझा नहीं को नाव द्वारा पार कर जोने के लिए सहयोग किया था।''
(वौयेज टू ईस्ट इण्डीजः फ्रा बारटोलोमाको पृष्ठ १४१-१४२)


टीपू द्वारा मन्दिरों का विध्वंस

दी मैसूर गज़टियर बताता है कि ''टीपू ने दक्षिण भारत में आठ सौं से अधिक मन्दिर नष्ट किये थे।''

के.पी. पद्‌मानाभ मैनन द्वारा लिखित, 'हिस्ट्री ऑफ कोचीन और श्रीधरन मैनन द्वारा लिखित, हिस्ट्री ऑफ केरल' उन भग्न, नष्ट किये गये, मन्दिरों में से कुछ का वर्णन करते हैं- ''चिन्गम महीना ९५२ मलयालम ऐरा तदुनसार अगस्त १७८६ में टीपू की फौज ने प्रसिद्ध पेरुमनम मन्दिर की मूर्तियों का ध्वंस किया और त्रिचूर ओर करवन्नूर नदी के मध्य के सभी मन्दिरों का ध्वंस कर दिया। इरिनेजालाकुडा और थिरुवांचीकुलम मन्दिरों को भी टीपू की सेना द्वारा खण्डित किया गया और नष्ट किया गया।'' ''अन्य प्रसिद्ध मन्दिरों में से कुछ, जिन्हें लूटा गया, और नष्ट किया गया, था, वे थे- त्रिप्रंगोट, थ्रिचैम्बरम्‌, थिरुमवाया, थिरवन्नूर, कालीकट थाली, हेमम्बिका मन्दिरपालघाट का जैन मन्दिर, माम्मियूर, परम्बाताली, पेम्मायान्दु, थिरवनजीकुलम, त्रिचूर का बडक्खुमन्नाथन मन्दिर, बैलूर शिवा मन्दिर आदि।''

''टीपू की व्यक्तिगत डायरी के अनुसार चिराकुल राजा ने टीपू सेना द्वारा स्थानीय मन्दिरों को विनाश से बचाने के लिए, टीपू सुल्तान को चार लाख रुपये का सोना चाँदी देने का प्रस्ताव रखा था। किन्तु टीपू ने उत्तर दिया था, ''यदि सारी दुनिया भी मुझे दे दी जाए तो भी मैं हिन्दू मन्दिरों को ध्वंस करने से नहीं रुकूँगा''
(फ्रीडम स्ट्रगिल इन केरल : सरदार के.एम. पाणिक्कर)

टीपू द्वारा केरल की विजय के प्रलयंकारी भयावह परिणामों का सविस्तार सजीव वर्णन, 'गजैटियर ऑफ केरल के सम्पादक और विखयात इतिहासकार ए. श्रीधर मैनन द्वारा किया गया है। उसके अनुसार, ''हिन्दू लोग, विशेष कर नायर लोग और सरदार लोग जिन्होंने इस्लामी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था, टीपू के क्रोध के प्रमुखा भाजन बन गये थे। सैकड़ों नायर महिलाओं और बच्चों को भगा लिया गया और श्री रंग पटनम ले जाया गया या डचों के हाथ दास के रूप में बेच दिया गया था। हजारों ब्राह्मणों, क्षत्रियों और हिन्दुओं के अन्य सम्माननीय वर्गों के लोगों कोबलात इस्लाम में धर्मान्तरित कर दिया गया था या उनके पैतृक घरों से भगा दिया गया था।''

सुल्तान और भारतीय राष्ट्रवाद

हमारे मार्क्सिस्ट इतिहासकारों द्वारा टीपू सुल्तान जैसे हृदय हीन, अत्याचारी, को वीर पुरुष के रूप में स्वागत किया गया है। किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न है कि टीपू का किस राष्ट्रीयता से सम्बन्ध था और उसके जीवन की प्रेरणा स्रोत-कौन-सी राष्ट्रीयता थी? एक राष्ट्र का जन्म सभ्यता से होता है। राष्ट्रीयता किसी सभ्यता विशेश की मानवीय महत्वाकांक्षा होती है जिसका उदय एक विचार प्रवाह से होता है, जो ऐसी उदीय मानता की प्रतिरुप सांस्कृतिक लक्षण से दिशा पाती है। टीपू का सम्बन्ध उस राष्ट्र से कभी भी नहीं रहा जिसके गृह स्थान का, उसके पन्थ के सह मतावलम्बियों ने, एक हजार वर्ष तक विध्वंस किया, और लूटा, वह हिन्दू भूमि का एक मुस्लिम शासक था। जैसा उसने स्वंय कहा, उसके जीवन का उद्‌देश्य अपने राज्य को दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) बनाना था। केवल ब्रिटिशों के विरुद्ध युद्ध करने और उनके द्वारा मारे जाने मात्र से कोई राष्ट्रवादी नहीं बन जाता। टीपू ब्रिटिशों से अपने ताज की सुरक्षा के लिए लड़ा था न कि देश को विदेशी गुलामी से मुक्त कराने केलिए। उसने तो स्वंय ने, भारत पर आक्रमण करने, और राज्य करने के लिए अफगानिस्तान के जहनशाह को आमंत्रित किया था।
(जहनशाह को लिखे पत्रों को पढ़िये)

सैक्यूलरिस्ट जैसा कहना पसन्द करते हैं, इण्डियन नेशनलिज्म अपने प्रादुर्भाव के समय से ही हिन्दू राष्ट्रीयता के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं रही है। हमारे देशवासियों के हृदयों में, अलैक्जैण्डर से लेकर हूण, और बिन कासिम से लेकर ब्रिटिश सभी आक्रमणकारियों के विरुद्ध, अपने न रुकने वाले संघर्ष वा प्रतिरोध के लिए, अभीष्ट प्रेरणा इसी राष्ट्रीयता की भावना से प्राप्त होती रही है। टीपू जैसा एक मुजाहिद, हमारे राष्ट्रीय गर्व और मान्यताओं के लिए, केवल अनपयुक्त एवम्‌ बेमेल ही नही है, घातक भी है। भारत के सैक्यूलरिस्टों की समझ में आ जाना चाहिए कि इन मुस्लिम अत्याचारियों और आतताइयों के, हिन्दुओं पर किये गये अत्याचारों, को दबा छिपाकर, तथा उन्हें सैक्यूलरिज्म का लबादा पहनाने से, कोई कैसा भी लाभ नहीं हो सकेगा। इससे और अधिक मात्रा में गजनबी, गौरी, मुगल, बाबर और टीपू पैदा होंगे जो सैक्यूलरिज्म के जनाजे, कफन, को देश में ढोते रहेंगे।

सामान्य हिन्दुओं को भी समझ लेनाचाहिए कि, अपने देश के इतिहास का पूर्ण ज्ञान, और अपने पूर्वजों के भाग्य, दुर्भाग्य, से पाठ सीख लेना अनिवार्य है; क्योंकि इतिहास की पुनरावृत्ति होती है, उन मूर्खों के लिए, जो अपने इतिहास से अभीष्ट पाठ नहीं लेते, और चेतावनियों को नहीं समझ पाते, या समझना नहीं चाहते।

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  1. स्वामी लक्ष्मिशंकाराचार्य जी की पुस्‍तक ''इस्लाम आतंक ? या आदर्श'' से भी गलतफहमी दूर की जासकती है


    http://siratalmustaqueem.blogspot.com/2010/09/blog-post_15.html

    विद्वानों ने मुझसे कहा -" आपने क़ुरआन माजिद की जिन आयतों का हिंदी अनुवाद अपनी किताब में लिया है, वे आयतें अत्याचारी काफ़िर मुशरिक लोगों के लिए उतारी गयीं जो अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) से लड़ाई करते और मुल्क में फ़साद करने के लिए दौड़े फिरते थे। सत्य धर्म की रह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरुद्ध ही क़ुरआन में जिहाद का फ़रमान है।
    उन्होंने मुझसे कहा कि इस्लाम कि सही जानकारी न होने के कारण लोग क़ुरआन मजीद कि पवित्र आयतों का मतलब समझ नहीं पाते। यदि आपने पूरी क़ुरआन मजीद के साथ हज़रात मुहम्मद ( सल्लालाहु अलैहि व सल्लम ) कि जीवनी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते ।"
    मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैंने सब से पहले पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद कि जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नज़रिए से जब मन की शुद्धता के साथक़ुरआन मजीद शुरू से अंत तक पढ़ी, तो मुझे क़ुरआन मजीद कि आयतों का सही मतलब और मक़सद समझ आने लगा ।
    सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी किताब ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा है जिसका मुझे हार्दिक खेद है ।
    मैं अल्लाह से, पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांगता हूँ तथा अज्ञानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूं। सभी जनता से मेरी अपील है कि ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' पुस्तक में जो लिखा है उसे शुन्य समझें ।

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