Tuesday, February 1, 2011

भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूरवज (मुसलमान कैसे बने)‎ > ‎मृत्यु का भय और परिवार की गुलामी- Part 3

३. मृत्यु का भय और परिवार की गुलामी
'इस्लाम का जन्म जिस वातावरण में हुआ था वहाँ तलवार की सर्वोच्च कानून था और है।........मुसलमानों में तलवार आज भी बहुतायत से दृष्टिगोचर होती है। यदि इस्लाम का अर्थ सचमुच में ही 'शांति' है तो तलवार को म्यान में बंद करना होगा।' (महात्मा गाँधी : यंग इंडिया, ३० सित; १९२७)

जहाँ दक्षिण भारत में इस्लाम, शासकों के आर्थिक लोभ के कारण एवं मुस्लिम व्यापारियों के शांतिपूर्ण प्रयासों द्वारा पैर पसार रहा था, वहीं उत्तर भारत में वह अरब, अफगानी, तूरानी, ईरानी, मंगोल और मुगल इत्यादि मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा कुरान और तलवार का विकल्प लेकर प्रविष्ट हुआ। इन आक्रान्ताओं ने अनगिनत मंदिर तोड़े, उनके स्थान पर मस्जिद, मकबरे, और खानकाहें बनाए। उन मस्जिदों की सीढ़ियों पर उन उपसाय मूर्तियों के खंडित टुकड़ों को बिछाया जिससे वह हिन्दुओं की आँखों के सामने सदैव मुसलमानों के जूतों से रगड़ी जाकर अपमानित हों और हिन्दू प्रत्यक्ष देखें कि उन बेजान मूर्तियों में मुसलमानों का प्रतिकार करने की कोई शक्ति नहीं है। उन्होंने मंदिरों और हिन्दू प्रजा से, जो स्वर्ण और रत्न, लूटे उनकी मात्रा मुस्लिम इतिहासकार सैकड़ों और सहस्त्रों मनों में देते हैं। जिन हिन्दुओं का इस्लाम स्वीकार करने से इनकार करने पर वध किया गया, उनकी संखया कभी-कभी लाखों में दी गई है और उनमें से जो अवयस्क बच्चे और स्त्रियाँ गुलाम बनाकर विषय-वासना के शिकार बने, उनकी संखया सहस्त्रों में दी गई है। इस्लाम के अनुसार, उनमें से ४/५ भाग को भारत में ही आक्रमणकारियों और उसके सैनिकों में बाँट दिये जाते थे और शेष १/५ को, शासकों अथवा खलीफा इत्यादि को भेंट में भेज दिये जाते थे और सहस्त्रों की संखया में वह विदेशों में भेड़ बकरियों की तरह गुलामों की मंडियों में बेंच दिये जाते थे। स्वयं दिल्ली में भी इस प्रकार की मंडियाँ लगती थीं। भारत की उस समय की आबादी केवल दस-बारह करोड़ रही होगी। ऐसी दशा में लाखों हिन्दुओं के कत्ल और हजारों के गुलाम बनाये जाने से समस्त भारत के हिन्दुओं पर कैसा आतंक छाया होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

मुसलमानों के उन हिन्दू-पूर्वजों का चरित्र कैसा था? अल-इदरीसी नामक मुस्लिम इतिहासकार के अनुसार 'न्याय करना उनका स्वभाव है। वह न्याय से कभी परामुख नहीं होते। इनकी विश्वसनीयता, ईमानदारी और अपनी वचनबद्धता को हर सूरत में निभाने की प्रवृति विश्व विखयात है। उनके इन गुणों की खयाति के कारण सम्पूर्ण विश्व के व्यापारी उनसे व्यापार करने आते हैं।(१३)

अलबेरुनी के अनुसार, जो महमूद गजनवी के साथ भारत आया था, अरब विद्वान, बौद्ध भिक्षुओं और हिन्दू पंडितों के चरणों मे बैठकर दर्शन्, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, रसायन और दूसरे विषयों की शिक्षा लेते थे। खलीफा मंसूर (७४५-७६) के उत्साह के कारण अनेक हिन्दू विद्वान उसके दरबार में पहुँच गये थे। ७७१ ई. में सिन्धी हिन्दुओं के एक शिष्ट मंडल ने उसको अनेक ग्रंथ भेंट किये थे। ब्रह्‌म सिद्धांत और ज्योतिष संबंधी दूसरे ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भारतीय विद्वानों की सहायता से इब्राहीम-अल-फाजरी द्वारा बगदाद में किया गया था। बगदाद के खलीफा हारु-अल-रशीद के बरमक मंत्रियों (मूल संस्कृत पर प्रमुख) के परिवार जो बौद्ध धर्म त्यागकर, मुसलमान हो गये थे, निरन्तर अरबी विद्वानों को भारत में द्गिाक्षा प्राप्त करने के लिये भेजते थे और हिन्दू विद्वानों को बगदाद आने को आमंत्रित करते थे। एक बार जब खलीफा हारु-अल-रशीद एक ऐसे रोग से ग्रस्त हो गये, जो स्थानीय हकीमों की समझ में नहीं आया, तो उन्होंने हिन्दू वैद्यों को भारत से बुलवाया। मनका नामक हिन्दू वैद्य ने उनको ठीक कर दिया। मनका बगदाद में ही बस गया। वह बरमकों के अस्पताल से संबंद्ध हो गया और उसने अनेक हिन्दू ग्रंथों का फारसी और अरबी में अनुवाद किया। इब्न धन और सलीह, जो धनपति और भोला नामक हिन्दुओं के वंशज थे, बगदाद के अस्पतालों में अधीक्षक नियुक्त किये गये थे। चरक, सुश्रुत के अष्टांग हदय निदान और सिद्ध योग का तथा स्त्री रोगों, विष, उनके उतार की दवाइयों, दवाइयों के गुण दोष, नशे की वस्तुओं, स्नायु रोगों संबंधी अनेक रोगों से संबंधित हिन्दू ग्रंथों का वहाँ खलीफा द्वारा पहलवी और अरबी भाषा में अनुवाद कराया गया, जिससे गणित और चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान मुसलमानों में फैला। (के.एस.लाल-लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इंडिया, पृ. ३५-३६)। फिर भी इस्लाम इस विज्ञान युक्त संस्कृति को 'जहालिया' अर्थात्‌ मूर्खतापूर्ण संस्कृति मानता है और उसको नष्ट कर देना ही उसका ध्येय रहा है क्योंकि उनका दोष यह था कि वे मुसलमान नहीं थे। इस्लाम के बंदों के लिये उनका यह पाप उन्हें सब प्रकार से प्रताड़ित करने, वध करने, लूटने और गुलाम बनाने के लिये काफी था।

मुस्लिम इतिहासकारों ने इन कत्लों और बधिक आक्रमणकारियों द्वारा वध किये गये लोगों के सिरों की मीनार बनाकर देखने पर आनंदित होने के दृश्यों के अनेक प्रशंसात्मक वर्णन किये हैं। कभी-कभी स्वयं आक्रमणकारियों और सुल्तानों द्वारा लिखित अपनी जीवनियों में उन्होंने इन बर्बरताओं पर अत्यंत हर्ष और आत्मिक संतोष प्रकट करते हुए अल्लाह को धन्यवाद दिया है कि उनके द्वारा इस्लाम की सेवा का इतना महत्त्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा सिद्ध हो सका।

इन बर्बरताओं के ये प्रशंसात्मक वर्णन, जिनके कुछ मूल हस्तलेख आज भी उपलब्ध हैं, उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष आधुनिक, इतिहासकारों के गले की हड्‌डी बन गये हैं, जो इन ऐतिहासिक तथ्यों को हिन्दू-मुस्लिम एकता की मृग मरीचिका को वास्तविक सिद्ध करने के उनके प्रयासों में बाधा समझते हैं। इस उद्‌देश्य से वह इस क्रूरता को हिन्दुओं से छिपाने के लिये झूँठी कहानियों के तानों-बानों की चादरें बुनते हैं। परन्तु ये क्रूरता के ढ़ेर इतने विशाल हैं कि जो छिपाये नहीं छिपते हैं।

दुर्भाग्यवश भारतीय शासकों का चिंतन आज भी वहीं है जो ७वीं द्गाताब्दी में दक्षिण में इस्लाम के प्रवेश के समय वहाँ के हिंदू शासकों का था। यदि उन दिनों खाड़ी देशों से व्यापार द्वारा आर्थिक लाभ का लोभ था तो अब मुस्लिम वोटों की सहायता से प्रांतों और केंद्र में सत्ता प्राप्त करने और सत्ता में बने रहने का लोभ है। यह लोभ साधारण नहीं है। जिस प्रकार करोड़ों और अरबों रुपये के घोटाले प्रतिदिन उजागर हो रहे हैं, जिस प्रकार के मुगलिया ठाठ से हमारे 'समाजवादी धर्मनिरपेक्ष' नेता रहते हैं, वह तो अच्छे-अच्छे ऋषि मुनियों के मन को भी डिगा सकते हैं। इसलिये भारतीय बच्चों को दूषित इतिहास पढ़ाने पर शासन बल देता है। एन.सी.ई.आर.टी. ने, जो सरकारी और सरकार द्वारा सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के लेखन और प्रकाशन पर नियंत्रण रखने वाला केंद्रीय शासन का संस्थान है, लेखकों और प्रकाशकों के 'पथ प्रदर्शन' के लिये सुझाव दिये हैं। इन सुझावों का संक्षिप्त विवरण नई दिल्ली जनवरी १७, १९७२ के इंडियन एक्सप्रेस में दिया गया है। कहा गया है कि 'उद्‌देश्य यह है कि अवांछित इतिहास और भाषा की ऐसी पुस्तकों को पाठ्‌य पुस्तकों में से हटा दिया जाये जिनसे राष्ट्रीय एकता निर्माण में और सामाजिक संगठन के विकसित होने में बाधा पड़ती है-२० राज्यों और तीन केन्द्र शासित प्रदेशों ने एन.सी.ई.आर.टी. के सुझावों के तहत कार्य प्रारंभ भी कर दिया है। पश्चिमी बंगाल के बोर्ड ऑफ सेकेन्ड्री एजुकेद्गान द्वारा २९ अप्रैल १९७२ को जो अधिसूचना स्कूलों और प्रकाशकों के लिए जारी की गई उसमें भारत में मुस्लिम राज्य के विषय में कुछ 'शुद्धियाँ' करने को कहा गया है जैसे कि महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने का वास्तविक उद्‌देश्य, औरंगजेब की हिन्दुओं के प्रति नीति इत्यादि। सुझावों में विशेष रूप से कहा गया है कि 'मुस्लिम शासन की आलोचना न की जाये। मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा मंदिरों के विध्वंस का नाम न लिया जाये। 'इस्लाम में बलात्‌ धर्मान्तरण के वर्णन पाठ्‌य पुस्तकों से निकाल दिये जायें।(१४)

तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष' हिन्दू शासकों और इतिहासकारों द्वारा इतिहास को झुठलाने के इन प्रभावी प्रयासों के फलस्वरूप सरकारी और सभी हिन्दू स्कूलों में शिक्षा प्राप्त हिन्दुओं की नई पीढ़ियाँ एक नितांत झूठ ऐतिहासिक दृष्टिकोण को सत्य मान बैठी हैं कि 'इस्लाम गैर-मुसलमानों के प्रति प्रेम औरसहिद्गणुता के आदेद्गा देता है। भारत पर आक्रमण करने वाले मौहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मौहम्मद गौरी, तैमूर, बाबर, अब्दाली इत्यादि मुसलमानों का ध्येय लूटपाट करना था, इस्लाम का प्रचार-प्रसार नहीं था। उनके कृत्यों से इस्लाम का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिये। ये लोग अपनी हिन्दू प्रजा के प्रति दयालु और प्रजावत्सल थे। कभी-कभी उनके मंदिरों को दान देते थे। उन्हें देखकर प्रसन्न होते थे।' जबकि वास्तविकता यह है कि हिन्दुओं के प्रति उनके उस प्रकार के क्रूर आचरण का कारण उन सबके मन में अपने धर्म-इस्लाम के प्रति अपूर्व सम्मान और धर्मनिष्ठा थी ओर इस्लाम के प्रति धर्मनिष्ठता का अर्थ केवल इस्लाम के प्रति प्रेम ही नहीं है, सभी गैर-इस्लामी धर्मों, दर्शनों और विश्वासों के प्रति घृणा करना भी है।(१५)

मुस्लिम धार्मिक विद्वान्‌ उनको इसी कारण परम आदर की दृष्टि से इस्लाम के ध्वजारोहक के रूप में देखते हैं और अपने बच्चों को भी ऐसा ही करने की शिक्षा देते हैं।

जहाँ एक ओर, हिन्दुओं की भावी पीढ़ियों को वास्तविकता से दूर रखकर भ्रमित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर भारत में स्वतंत्रता के पश्चात्‌ खड़े किये गये, लगभग ४० हजार मदरसों और ८ लाख मकतवों, में मुस्लिम बच्चों को गैर-इस्लाम से घृणा करना, और इन लुटेरों को इस्लाम के महापुरुष और उनके शासन को, अकबर के कुफ्र को प्रोत्साहन देने वाले शासन से बेहतर बताया जा रहा है। फिर इसमें आश्चर्य की क्या बात है कि भारत सरकार के एक मंत्री (गुलाम नबी आजाद) को कहना पड़ा कि- 'कश्मीर में जमाते इस्लामी द्वारा चलाये जाने वाले मदरसों ने देश के धर्म निरपेक्ष ढाँचे को बहुत हानि पहुँचाई है।.......घाटी के नौजवानों का बन्दूक की संस्कृति से परिचय करा दिया है।'(१६)

मंत्री जी के वक्तव्य से यह भ्रम हो सकता है कि उनका आरोप केवल जमाते इस्लामी द्वारा चलाये जाने वाले मदरसों के लिये ही सत्य है, दूसरों के लिये नहीं। किन्तु डॉ. मुशीरुल हक, जो न केवल स्वयं मदरसा शिक्षा प्राप्त हैं, अपितु विदेशी विश्व-विद्यालयों के भी विद्वान हैं के अनुसार 'सभी मदरसों में पाठ्‌यचर्या, पाठ्‌य-पुस्तकें, पाठ्‌यनीति अकादमिक तथा धार्मिक शिक्षण एक जैसा ही है।'(१७) यह भिन्न हो भी नहीं सकता क्योंकि बुनियादी पुस्तकें कुरान, हदीस इत्यादि एक ही हैं।

अफगानिस्तान में मदरसों में शिक्षा पा रहे सशस्त्र विद्यार्थियों (तालिबान) द्वारा गृह युद्ध में कूदकर जिस प्रकार अपेक्षाकृत उदारवादी मुस्लिम शासकों के दाँत खट्‌टे कर दिये गये, उससे उड्‌डयन मंत्री के उपरोक्त उद्धत वक्तव्य को बल मिलता है। यह तालिबान कट्‌टरवादी (शुद्ध) इस्लाम की स्थापना के लिये समर्पित अनुशासनबद्ध जिहादी सेनाओं के समर्पित योद्धा हैं। उनका उपयोग किसी समय भी इस रूप् में किया जा सकता है। चाहे अफगानिस्तान हो या काश्मीर अथवा कोई दूसरा देश।

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