बालविवाह इस्लाम का आधार !
मुहम्मद का उदेश्य लोगों को मानवता सिखाने ,अध्यात्मिक उन्नति करना ,लोगों की भलाई करने का नहीं था .बल्कि इस्लाम का विस्तार करने का था .ताकि पूरे विश्व पर हुकूमत की जा सके .इस्लाम में औरतों का मुख्य स्थान है ,जिहादी औरतों के लिए युद्ध करते थे .औरतें खरीदते थे ,औरतें इनाम में मिलती.यहाँ तक कुरान में मौत के बाद में भी औरतें देने का लालच दिया गया है .अरब छोटी छोटी बच्चियों से वासना पूर्ति करने के शौक़ीन होते हैं .मुहम्मद भी एक अरब था ,उसने भी एक छोटी सी बच्ची आयशा से शादी की थी .लेकिन मुहम्मद ने हद तो तब करदी जब खुद अपने ससुर उमर खत्ताब की शादी अपनी सगी नातिनी (grand daughter ) उम्मे कुलसुम से करवा थी .ताकि इस्लाम फ़ैल सके .यह बात सभी प्रमाणिक हदीसों में मौजूद हैं .इसी के बारे में विस्तार में जानकारी दी जा रही है .लेख में अरबी से साथ अंगरेजी भी दी गयी है .हिंदी अनुवाद मैंने किया है .इस लेख के मुख्य व्यक्ति उमर खत्ताब और उम्मे कुलसुम हैं .
1 -उमर खत्ताब عمر خطّابUmar Khattab .
उमर कुरैश कबीले का सरदार था .और काफी धनवान था .उमर का जन्म सन 580 में मक्का में हुआ था .इसका पूरा नाम "उमर इब्न अल खत्ताब इब्न नुफैल इब्न अब्दुल उज्जा عمر ابن الخطاب ابن نفيل ابن عبد العزي"था उस समय मुहम्मद का प्रभाव बढ़ रहा था .लोग मुहमद को रसूल कहने लगे थे .जब सन 619 में मुहम्मद की पहली पत्नी खदीजा की मौत हो गयी तो मुहम्मद को शादियाँ करने का शौक हो गया .इसलिए उमर ने अपनी लड़की हफ्शा की शादी मुहम्मद से करा दी .हफ्शा का जन्म सन 607 में हुआ था .वह मुहम्मद की पांचवीं पत्नी थी मुहम्मद और हफ्शा सन की शादी सन 625 को हुई थी .इस तरह उमर मुहम्मद का सगा ससुर था .हदीसों से इसके प्रमाण मिलते हैं -
अबू दाऊद-किताब 2 हदीस 2448 ,इब्ने माजा-किताब 3 हदीस 2086 और सही मुस्लिम -किताब 2 हदीस 2642
उमर सुन्नी मुसलमानों का दूसरा खलीफा माना जाता है .मुहम्मद उमर के माध्यम से इस्लाम फैलाना चाहता था .और उसे "फारूक आजम "की उपाधि दे दी थी .लेकिन शिया लोग उमर को शराबी ,अय्याश ,बच्चियों से वासना पूर्ति करने वाला ( Pedophil ) मानते हैं ,और उमर पर लानत भेजते हैं .उमर ने सन 641 में फारस के एक शहर निहावंद (Nihawand ) पर हमला किया था .और हमले में सैकड़ों औरतों और मर्दों को गुलाम बना लिया था .जिनको अपने लोगों में बाँट दिया था ,और बेच दिया था .उन्हीं गुलामों एक "फीरोज उर्फ़ अबू लू लू فيروز عرف ابو لولو"था जो एक लुहार था .लू लू ने बदला लेने के लिए सन 644 में उमर की हत्या कर दी .उमर सन 634 से 644 तक खलीफा बना रहा .
यद्यपि उमर शादीशुदा था .फिर भी छोटी बच्चियों पर बुरी नजर रखता था .एक बार उसकी नजर अली की छोटी पुत्री "उम्मे कुलसुम "पर पड़ी ,जो गुड़ियों से खेल रही थी .उमर उस बच्ची को हासिल करने की योजना बनाने लगा .
2 -उम्मे कुलसुमامّكلثوم Umme Kulthum
उम्मे कुलसुम मुहम्मद की लड़की फातिमा की बेटी थी .यानि मुहमद की नातिनी ( Grand Daughter ) थी ,मुहम्मद ने अपनी पुत्री फातिमा की शादी सन 623 में अपने ही चचेरे भाई "अली बिन अबू तालिबعلي بن ابوطالب "से करा दी थी .उम्मे कुलसुम अली औरفاطمه फातिमा की चौथी संतान थी .उसका जम सन 628 या हिजरी सन 6 में हुआ था .अली और फातिमा के चार बच्चे हुए ,हसन (625 ),हुसैन (626 ),जैनब और उमे कुलसुम .यानि कुलसुम सबसे छोटी थी .कुलसुम की माँ फातिमा जा जन्म सन 605 में हुआ था और मौत सन 632 में हुई थी .उसी साल मुहम्मद की मृत्यु हुई थी .अर्थात यह घटना उस समय की है ,जब मुहम्मद जिन्दा था ,
कुलसुम कब्र सीरिया के शहर दमिश्क में "बागे सगीर باغ سغير"नामकी जगह में है .बोहरा मुस्लिम वहां जियारत करते हैं .शादी के बाद उम्मे कुलसुम का एक लड़का भी हुआ था जिसका नाम "जैद बिन उमर زيد بن عمر"था
.उमर और उम्मे कुलसुम की शादी कैसे हुई थी इसके बारे में बताया जा रहा है -
3 -उमर षडयंत्र
इस्लाम में आयु और रिश्तों का कोई महत्त्व नहीं होता ,केवल संतान पैदा करना जरुरी माना गया है .इस्लाम में 9 साल की बच्ची से 56 साल के बुढ्ढे की शादी को जायज बताया गया है .कुरान के अनुसार आदम की संतानों ने अपनी सगी बहिनों से शादी की थी जिस दिन उमर की नजर उम्मे कुलसुम पर पड़ी थी ,उसी दिन से वह अली और फातिमा से कुलसुम का हाथ मांगने लगा था .और शादी के लिए तरह तरह के तर्क देने लगा था .अली और फातिमा सीधे थे और उमर मक्कार था .उमर ने अली से कहा -
उमर ने अली से कहा कि मैं रसूल का सहाबी (Companion ( हूँ ,मैं चाहता हूँ कि हमारी रिश्तेदारी और पक्की हो जाये .
umar said i have had companionship of prophet i would like also have this kinship
قال عمر لقد كان النبي الرفقة وأود أيضا أن هذه القرابة
Tabaqat al-Kubra (vol. 8 p. 338,
4 -अली ने उमर को फटकारा
जब उमर ने अली से उम्मे कुलसुम से उसकी शादी का प्रस्ताव रखा तो अली को बड़ा गुस्सा आया ,उस समय उम्मे कुलसुम एक छोटी सी बच्ची थी .अली ने उमर से कहा -
"अली ने उमर से कहा अगर तुम मुसलमानों के खलीफा नहीं होते तो ,इस बात के लिए मैं तुम्हारे मुंह पर थूक देता "
If it hadn't been the fact that you were Khalifa of the Muslims I would have spat in your face".
واضاف "اذا لم يكن حقيقة ان كنت خليفة للمسلمين ولقد بصق في وجهك".
Al Isaba Volume 4 page 492
5 - उमर का दबाव और अली का गुस्सा
पहले तो अली को उमर की इस बात से बड़ा क्रोध आया ,लेकिन उमर ने दुसरे सहाबियोंसे अली पर दबाव डलवाया तो अली विवश हो गया .और अपनी पुत्री कुलसुम को खलीफा का दरबार देखने के लिए भेज दिया .-
अबू उम्र ने कहा कि जुबैर बाकरी ने यह घटना इस तरह बयान की है ",जब उमर अली के पास उसकी लड़की का हाथ मांगने को गया तो .अली ने कहा अभी मेरी बच्ची काफी छोटी है .लेकिन जब उमर ने बार बार आग्रह किया तो ,अली राजी हो गए .फिर अली ने लड़की को एक दुपट्टा देकर कहा अगर लड़की तुम्हें पसंद कर लेगी तो मैं मान जाऊँगा .जब लड़की उमर के महल में गयी तो उमर ने उस से कहा तुम अपने पिता से कहो कि वह इस रिश्ते को स्वीकार कर लें .फिर जब लड़की उमर के पास बैठी तो उमर उसकी जांघों पर हाथ फिराने लगा .इस से लड़की क्रोधित होकर चिल्ला कर बोली तुम मेरे साथ ऐसा व्यवहार करते हो .अगर तुम खलीफा नहीं होते तो मैं तुम्हारी नाक तोड़ देती .लड़की रोते हुए घर वापस आगई .और अली को सारी बातें दुहराते हुए बोली कि अपने मुझे ऐसे गंदे आदमी के पास भेज दिया .लेकिन अली ने कहा वह तम्हारेभावी पति है "
" يروي أبو عمر على سلطة بكري الزبير، 'سأل عمر عن يد ابنة علي ، فأجاب أنها كانت صغيرة جدا. سألت عمر أكثر مرتين. وقال علي "أنا فتاة يرسل لك، إذا كنت مثلها من يقول" أنا أقبل ''. علي ثم ترسل الفتاة بقطعة قماش وأخبرها أن أقول [لعمر] 'وهذا هو الحجاب الذي كنت أتحدث عنه". وأعربت هذه الكلمات لعمر، الذي قال "أخبر والدك أن أوافق". ثم تطرق عمر العجل الفتاة. فتساءلت "أنت لم تفعل بي هذا؟ إذا لم يكن من لحقيقة أنك خليفة للمسلمين كنت قد كسر أنفك. ذهبت الفتاة المنزل وكررت الحلقة إلى والدها، وذكرت أنت أرسلتني إلى رجل كريه "، مع أن علي قال" إنه زوجك "
"
Abu Umar narrates on the authority of Zubayr Bakri, 'Umar asked for the hand of Ali's daughter, who replied that she was too young. 'Umar asked twice more. 'Ali said 'I shall send the girl to you, if you like her than say 'I accept''. 'Ali then sent the girl with a cloth and told her to say [to 'Umar] 'This is the scarf that I was talking about'. She conveyed these words to 'Umar, who said 'Tell your father that I accept'. Umar then touched the girl's calf. She exclaimed 'You have done this to me? If it hadn't been for the fact that you are Khalifa of the Muslims I would have broken your nose'. The girl went home and repeated the episode to her father, stating 'You sent me to a foul man', with that 'Ali said 'He is your husband'."
Asad al Ghaybah Volume 5 page 367
6 -उमर ने अली को लालच दिया
जब उमर ने अली से उम्मे कुलसुम का हाथ माँगा था और कहा कि अभी मेरी बच्ची छोटी है .तब उमर ने कहा तुम अगर किसी तरह से शादी करा दो तो मैं उम्मे कुलसुम को इतना ऊंचा पद दूंगा जो किसी को भी नहीं मिलेगा .तब अली ने एक शाल उढ़ाकर कुलसुम को उमर के पास भेज दिया .और कहा अगर मेरी बच्ची मान जाये तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी .लेकिन जब उम्म्मे कुलसुम उमर के पास गयी तो उमर ने उसे पकड़ लिया .नाराज होकर उम्मे कुलसुम बोली मुझे लगता है तू खलीफा नहीं है .वर्ना तू मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं करता .लड़की ने यह बात पिता से कई और कहा अपने मुझे एक चरित्र हीन व्यक्ति के पास क्यों भेजा ,जब उमर को यह खबर मिली तो उसने सभी मुहाजिरों को जमा कर लिया और बोला तुम मुझे बधाई दो .जब लोगों ने कारण पूछा तो उमर बोला आज मैंने अली कि लड़की उम्मे कुलसुम से निकाह कर लिया है .
"سأل عمر علي ليد كلثوم. فأجاب علي أنها كانت صغيرة جدا. وقال عمر الزواج منها لي وافعل كما أقول لك لأني أتمنى أن يصل إلى هذا الموقف الذي لا أحد آخر قد يتحقق. علي ثم قال : "كنتترسل كلثوم Umme لك. إذا كنت مثلها ثم يتزوجها أعطي لكم ". علي ثم ترسل الفتاة بقطعة قماش وأخبرها أن أقول [لعمر] 'وهذا هو الحجاب الذي كنت أتحدث عنه". وأعربت هذه الكلمات لعمر، الذي قال "أخبر والدك أن أوافق". ثم تطرق عمر العجل الفتاة. انها مصيح ، "لقد فعلت هذا لي؟ إذا لم يكن من حقيقة أن كنت خليفة للمسلمين كنت قد كسر أنفك. ذهبت الفتاة المنزل وكررت الحلقة إلى والدها، وذكرت أنت أرسلتني إلى رجل كريه "، مع أن علي قال" إنه زوجك. عمر ثم حضر جمع من المهاجرين، وقال "يهنئون لي'. وقالوا : لماذا؟ وقال "لقد تزوجت كلثوم عليبنت".
"'Umar asked Ali for the hand of Umme Kalthum. 'Ali replied that she was too young. 'Umar said 'Marry her to me and do as I say for I wish to attain to that position which no one else has attained. 'Ali then said, 'I shall send Umme Kalthum to you. If you like her then I shall marry her to you.' 'Ali then sent the girl with a cloth and told her to say [to 'Umar] 'This is the scarf that I was talking about'. She conveyed these words to Umar, who said 'Tell your father that I accept'. Umar then touched the girl's calf. She exclaimed, 'You have done this to me? If it had not been the fact that you were Khalifa of the Muslims I would have broken your nose'. The girl went home and repeated the episode to her father, stating 'You sent me to a foul man', with that 'Ali said 'He is your husband'. Umar then attended a gathering of the Muhajireen and said 'Congratulate me'. They said 'Why?' He said 'I have married Umme Kalthum binte 'Ali.'"
Al Istiab Volume 4 page 467:
7 -अली को शादी के लिए दबाव डाला गया
उमर हर हालत में अली की बच्ची से शादी करना चाहता था .जब अली ,और उम्मे कुलसुम ने ने इंकार कर दिया तो उमर ने एक चाल चली ,
"जब उमर ने अली सेउसकी लड़की हाथ माँगा तो ,अली ने कहा अभी मेरी लड़की तो बच्ची है .उमर निराश हो गया और मस्जिद के मिम्बर पर चढ़ कर चिल्ला कर बोला .मुझे अली ने निराश कर दिया .लेकिन मुझ से रसूल ने कहा था कि जब क़यामत के दिन सभी के खानदानों के वंश नष्ट हो जायेंगे तो सिर्फ मेरा वंश ही बचा रहेगा .इसीलिए मैं अली के वंश को बचाना चाहता हूँ .यह सुन कर अली ने उम्मे कुलसुम को एक दुलहन कि तरह सजा कर उमर के पास भेज दिया ,जैसे ही लड़की उमर के सामने गयी उमर ने उसे बांहों में लेकर चूमा और उस पर दुआओं कि बरसात कर दी .जब लड़की जाने लगी तो उमर ने उसके टखने पकड़ लिए और कहा तुम अपने पिता से वचन लो कि वह इस शादी के लिए राजी हो जाएँ .
जब वापस आकर लड़की ने अपने पिता से यह बात कही तो रसूल कि बात मानकर अली शादी के लिए राजी हो गया .
"سألت عمر عن يد ابنة 'علي. فأجاب علي أنها صغيرة جدا. عمر جعل في النهاية علي اليأس، وكان [عمر] صعد المنبر معلنا "والله، لقد جعلت علي يائسة كما سمعت رسول الله (ق) ويقول انه في يوم القيامة عن شجرة العائلة وقطعت لي حفظ هذه من بلادي الأسرية ". من أوامر "كان علي اعدادهم ثم كلثوم وإرسالها إلى عمر. حصل عندما رآها عمر، حتى ، أخذها في حضنه، قبلها، وأغ عليهامّ كلثوم على بلدها. أمسك عندما نهض لمغادرة والكاحل وقالامّ كلثوم لها : قولي لأبيك أن وأنا على استعداد ". تزوج علي عندما عاد الى بلاده وقال والدها حول ما حدث، لها عمر "
"Umar asked for the hand of 'Ali's daughter. 'Ali replied that she is too young. Umar eventually made 'Ali desperate, and he [Umar] climbed the pulpit declaring 'By Allah, I have made 'Ali desperate as I heard Rasulullah (s) say that on the Day of Judgement all family trees shall me severed save those of my family'. By the orders of 'Ali Umme Kalthum was then groomed and sent to Umar. When Umar saw her, he got up, took her in his lap, kissed her, and showered blessings on her. When she got up to leave, he grabbed her ankle and said, 'Tell your father that I am willing'. When she returned home and told her father about what had transpired, Ali married her to Umar".
Sawaiqh al Muhriqa page 280 and Asaaf al Ghaneen page 162
8 -आखिर अली शादी के लिए राजी हो गया
जब उमर ने अली से शादी के लिए बीबी कुलसुम का हाथ माँगा तो .अली ने कहा हे मुसलमानों के सरदार अभी तो मेरी बेटी दूध पीती है .लेकिन उमर बोला तुम झूठ कहते हो .मुझे टाल रहे हो .तब अली ने कुलसुम को बुलाया और उसे नहला कर एक शाल उढ़ाकर उमर के पास यह कहा कि खलीफा कहते है कि वह मेरे परिवार का बहुत सम्मान करते है .फिर जब लड़की उमर के पास गयी तो उमर बोला अल्लाह तुम अपर और तुम्हारे पिता पर आशीर्वाद देगा .तुम पिता को इस शादी के लिए राजी कर लो .लड़की जब वापस ई तो पिता से बोली कि खलीफा ने शाल को खोलकर नहीं देखा .सिर्फ मुझे घूरता रहा. यह सुन कर अली ने उमे कुलसुम की शादी उमर से करा दी .बाद में उनका एक लड़का "जैद"भी पैदा हुआ था .
"ردت علي : يا أمير المؤمنين، فهي تتغذى حليب الأطفال. الذي أجاب عمر، 'والله! هذا ليس صحيحا. كنت تسعى لتجنب لي '
Umar asked Imam Ali for the hand of Bibi Umme Kalthum (as) in marriage, to which Ali replied, 'O Commander of the Faithful, she is a milk fed child'. To which Umar replied, 'By Allah! That is not true. You are seeking to avoid me'. ' Ali therefore ordered that Umme Kalthum have a bath and then wear a shawl. 'Ali told her to go to the Khalifa, 'give him my regards and ask him if he likes the shawl, he can keep it, other wise, he should return it'. When she came to Umar, he said, 'May Allah bless you and your father, I like it'. Hence Umme Kalthum came back to her father and told her that Umar did not open the shawl but just looked at me. Ali married her to Umar and they had a child named Zayd.
Tabaqat ibn Sa'd Volume 8 page 464 Dhikr Umm Kalthum
9 -उमर और उम्मे कुलसुम की शादी जायज थी ?
उमर के द्वारा उम्मे कुलसुम को आलिंगन करना और चूमना हराम नहीं है ,कि वह कम उम्र की थी .लेकिन किशोर लड़की के साथ ऐसा कामकरने की इजाजत नहीं है
عمر أفعال من المعانقة والتقبيل كلثوم ليست حراما لأنها كانت تحت السن القانونية، ومثل هذه الأعمال مسموح بها ليست الحال مع امرأة المراهقين "
'Umar's actions of embracing and kissing Umme Kalthum are not haraam as she was underage and such actions are permissible as is not the case with an adolescent woman"
Sawaiqh, Page 94, Ibn Hajr al Makki
10-उमर और कुलसुम की शादी कैसे हुई ?
याद रखिये शादी के समय उमर की आयु 58 साल और उम्मे कुलसुम की आयु केवल 11 साल थी .और अगर शिया लोगों की बात मने तो शादी के समय उम्मे कुलसुम की आयु केवल 5 -6 साल की थी .फिर भी लोगों ने इस बेमेल शादी को इसलिए जायज ठहरा दिया था ,क्योंकि उमर ने इस शादी के लिए "मेहर "के रूप में 40 ,000 (चालीस हजार ) दिरहम दिए थे .आज भी मुसलमान रुपयों के लिए अपनी लड़कियाँ आमिर अरबों को बेच देते हैं .और मुल्ले इसे जायज बता देते हैं .
मुसलमान अपने कुकर्मों पर परदा डालने के लिए दूसरों को गालियाँ देते रहते हैं .लेकिन उनके कुकर्मों का भंडा खुद उनकी किताबो से फूट जाता है .मुहम्मद से लेकर खलीफा ,सहाबी और मुल्ले सभी अय्याश और बच्चियों से सम्भोग करने के शौक़ीन (pedophil ) थे .यह एक उदहारण है .ऐसे कई सबूत दिए जा सकते है .मुसलमानों की आदत है कि अपने कुकर्मों को जायज बताने के लिए कुरान की किसी आयात और हदीस या फतवे का सहारा लेते है .यही परंपरा आज तक चल रही है .
वास्तव में इस्लाम मानवता के लिए एक अभिशाप है .
http://www.answering-ansar.org/answers/umme_kulthum/en/chap2.php
http://answering-islam.org/Shamoun/prepubescent3.htm
Wednesday, September 21, 2011
भारत में छूआछूत का कलंक मुगलों की देन
कुछ लोगों का मानना है कि भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार बहुत ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुआ है. उनका यह भी कहना है की हिंदू समाज में छुआछात के कारण भारत में हिन्दुओं ने बड़ी मात्रा में इस्लाम को अपनाया. उनके शब्दों में -
"हिंदुओं के मध्य फैले रूढिगत जातिवाद और छूआछात के कारणवश खासतौर पर कथित पिछड़ी जातियों के लोग इस्लाम के साम्यभाव और भाईचारे की ओर आकृष्ट हुए और स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को ग्रहण किया।"
जिन लोगों ने अंग्रेजों द्वारा लिखे गए व स्वतंत्र भारत के वामपंथी 'बुद्धिजीवियों' द्वारा दुर्भावनापूर्वक विकृत किये गए भारतीय इतिहास को पढ़कर अपनी उपर्युक्त धारणाएँ बना रखीं हैं, उन्हें इतिहास का शोधपरक अध्ययन करना चाहिए. उपर्युक्त कथन के विपरीत, सूर्य जैसा जगमगाता हुआ सच तो यह है कि भारत के लोगों का इस्लाम के साथ पहला-पहला परिचय युद्ध के मैदान में हुआ था. भारतवासियों ने पहले ही दिन से 'दीन' के बन्दों के 'ईमान' में मल्लेछ प्रवृत्ति वाले असुरों की झलक को साफ़-साफ़ देख लिया था तथा उस पहले ही दिन से भारत के लोगों ने उन क्रूर आक्रान्ताओं और बर्बर लोगों से घृणा करना शुरू कर दिया था.
अतः, इस कथन में कोई सच्चाई नहीं है कि भारत के लोगों ने इस्लाम के कथित 'साम्यभाव और भाईचारे' के दर्शन किये और उससे आकर्षित होकर स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को ग्रहण किया.
असल में, हिंदुत्व और इस्लाम, दोनों बिलकुल भिन्न विचारधाराएँ हैं, बल्कि साफ़ कहा जाए तो दोनों एक दूसरे से पूर्णतया विपरीत मान्यताओं वाली संस्कृतियाँ हैं, जिनके मध्य सदियों पहले शुरू हुआ संघर्ष आज तक चल रहा है.
हाँ, इस्लामी आक्रमण के अनेक वर्षों बाद भारत में कुछ समय के लिए सूफियों का खूब बोलबाला रहा. सूफियों के उस 'उदारवादी' काल में निश्चित रूप से इस्लामी क्रूरता भी मंद पड़ गयी थी. परन्तु, उस काल में भी भारत के मूल हिंदू समाज ने कथित इस्लामी 'साम्यभाव' से मोहित होकर स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को अपनाने का कोई अभियान शुरू कर दिया था, इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है.
हाँ, संघर्ष की इस लम्बी कालावधि में स्वयं समय ने ही कुछ घाव भरे और अंग्रेजों के आगमन से पहले तक दोनों समुदायों के लोगों ने परस्पर संघर्ष रहित जीवन जीने का कुछ-कुछ ढंग सीख लिया था. उस समय इस्लामिक कट्टरवाद अंततः भारतीय संस्कृति में विलीन होने लगा था.
यथार्थ में, भारत के हिन्दुओं को इस्लाम के कथित 'साम्यभाव और भाईचारे' का कभी भी परिचय नहीं मिल पाया. इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि मुसलमानों ने भारत के सनातन-हिंदू-धर्मावलम्बियों के साथ किसी दूसरे कारण से नहीं, बल्कि इस्लाम के ही नाम पर लगातार संघर्ष जारी रखा है. हिन्दुओं ने भी इस्लामी आतकवादियों के समक्ष कभी भी अपनी हार नहीं मानी और वे मुसलमानों के प्रथम आक्रमण के समय से ही उनके अमानवीय तौर-तरीकों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करते आ रहे हैं. महमूद गज़नबी हो या तैमूरलंग, नादिरशाह हो या औरंगजेब, जिन्ना हो या जिया उल हक अथवा मुशर्रफ, कट्टरपंथी मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं का संघर्ष पिछले 1200 वर्षों से लगातार चलता आ रहा है.
जिस इस्लाम के कारण भारत देश में सदियों से चला आ रहा भीषण संघर्ष आज भी जारी हो, उसके मूल निवासियों के बारे में यह कहना कि यहाँ के लोग उसी 'इस्लाम के साम्यभाव और भाईचारे की ओर आकृष्ट हुए', एक निराधार कल्पना मात्र है, जोकि सत्य से कोसों दूर है. भारत के इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता जिसमे हिंदू समाज के लोगों ने इस्लाम में साम्यभाव देखा हो और इसके भाई चारे से आकृष्ट होकर लोगों ने सामूहिक रूप से इस्लाम को अपनाया हो.
आइये, अब हिन्दुओं के रूढ़िगत जातिवाद और छुआछूत पर भी विचार कर लें. हिन्दुओं में आदिकाल से गोत्र व्यवस्था रही है, वर्ण व्यवस्था भी थी, परन्तु जातियाँ नहीं थीं. वेद सम्मत वर्ण व्यवस्था समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन की दृष्टि से लागू थी. यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर सीधे-सीधे कर्म (कार्य) पर आधारित थी. कोई भी वर्ण दूसरे को ऊँचा या नीचा नहीं समझता था. उदारणार्थ- अपने प्रारंभिक जीवन में शूद्र कर्म में प्रवृत्त वाल्मीकि जी जब अपने कर्मों में परिवर्तन के बाद पूजनीय ब्राह्मणों के वर्ण में मान्यता पा गए तो वे तत्कालीन समाज में महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए. श्री राम सहित चारों भाइयों के विवाह के अवसर पर जब जनकपुर में राजा दशरथ ने चारों दुल्हनों की डोली ले जाने से पहले देश के सभी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के लिए बुलाया था, तो उन्होंने श्री वाल्मीकि जी को भी विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया था.
संभव है, हिंदू समाज में मुसलमानों के आगमन से पहले ही जातियाँ अपने अस्तित्व में आ गयी हों, परन्तु भारत की वर्तमान जातिप्रथा में छुआछूत का जैसा घिनौना रूप अभी देखने में आता है, वह निश्चित रूप से मुस्लिम आक्रान्ताओं की ही देन है.
कैसे? देखिए-आरम्भ से ही मुसलमानों के यहाँ पर्दा प्रथा अपने चरम पर रही है. यह भी जगजाहिर है कि मुसलमान लड़ाकों के कबीलों में पारस्परिक शत्रुता रहा करती थी. इस कारण, कबीले के सरदारों व सिपाहियों की बेगमे कभी भी अकेली कबीले से बाहर नहीं निकलती थीं. अकेले बाहर निकलने पर इन्हें दुश्मन कबीले के लोगों द्वारा उठा लिए जाने का भय रहता था. इसलिए, ये अपना शौच का काम भी घर में ही निपटाती थीं. उस काल में कबीलों में शौच के लिए जो व्यवस्था बनी हुई थी, उसके अनुसार घर के भीतर ही शौच करने के बाद उस विष्टा को हाथ से उठाकर घर से दूर कहीं बाहर फेंककर आना होता था. सरदारों ने इस काम के लिए अपने दासों को लगा रखा था. जो व्यक्ति मैला उठाने के काम के लिए नियुक्त था, उससे फिर खान-पान से सम्बंधित कोई अन्य काम नहीं करवाते थे. स्वाभाविक रूप से कबीले के सबसे निकम्मे व्यक्ति को ही विष्ठा उठाने वाले काम में लगाया जाता था. कभी-कभी दूसरे लोगों को भी यह काम सजा के तौर पर करना पड़ जाता था. इस प्रकार, वह मैला उठाने वाला आदमी इस्लामी समाज में पहले तो निकृष्ट/नीच घोषित हुआ और फिर एकमात्र विष्टा उठाने के ही काम पर लगे रहने के कारण बाद में उसे अछूत घोषित कर दिया गया.
वर्तमान में, हिंदू समाज में जाति-प्रथा और छूआछात का जो अत्यंत निंदनीय रूप देखने में आता है, वह इस समाज को मुस्लिम आक्रान्ताओं की ही देन है. आगे इसे और अधिक स्पष्ट करेंगे कि कैसे?
अपने लम्बे संघर्ष के बाद चंद जयचंदों के पाप के कारण जब इस्लाम भारत में अपनी घुसपैठ बनाने में कामयाब हो ही गया, तो बाद में कुतर्क फ़ैलाने में माहिर मुसलमान बुद्धिजीविओं ने घर में बैठकर विष्टा करने की अपनी ही घिनौनी रीत को हिंदू समाज पर थोप दिया और बाद में हिन्दुओं पर जातिवाद और छुआछात फ़ैलाने के उलटे आरोप मढ़ दिए.
यह अकाट्य सत्य है कि मुसलमानों के आने से पहले घर में शौच करने और मैला ढोने की परम्परा सनातन हिंदू समाज में थी ही नहीं. जब हिंदू शौच के लिए घर से निकल कर किसी दूर स्थान पर ही दिशा मैदान के लिए जाया करते थे, तो विष्टा उठाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. जब विष्टा ढोने का आधार ही समाप्त हो जाता है, तो हिंदू समाज में अछूत कहाँ से आ गया?
हिन्दुओं के शास्त्रों में इन बातों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि व्यक्ति को शौच के लिए गाँव के बाहर किस दिशा में कहाँ जाना चाहिए तथा कब, किस दिशा की ओर मुँह करके शौच के लिए बैठना चाहिए आदि-आदि.
प्रमाण-
नैऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्याभ्यधिकमभुवः I (पाराशरo)
" यदि खुली जगह मिले तो गाँव से नैऋत्यकोण (दक्षिण और पश्चिम के बीच) की ओर कुछ दूर जाएँ."
दिवा संध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्र उद्न्मुखः I
कुर्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ च दक्षिणामुखः II (याज्ञ o १ I १६, बाधूलस्मृ o ८)
"शौच के लिए बैठते समय सुबह, शाम और दिन में उत्तर की ओर मुँह करें तथा रात में दक्षिण की ओर "
(सभी प्रमाण जिस नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर, संवत २०५४, चोदहवाँ संस्करण, पृष्ठ १३ से उद्धृत किये गए हैं, वह पुस्तक एक सामान्य हिंदू के घर में सहज ही उपलब्ध होती है).
इस्लाम की विश्वव्यापी आँधी के विरुद्ध सत्वगुण संपन्न हिंदू समाज के भीषण संघर्ष की गाथा बड़ी ही मार्मिक है. 'दीन' के नाम पर सोने की चिड़िया को बार-लूटने के लिए आने वाले मुसलमानों ने उदार चित्त हिन्दुओं पर बिना चेतावनी दिए ही ताबड़तोड़ हमले बोले. उन्होंने हिंदू ललनाओं के शील भंग किये, कन्याओं को उठाकर ले गए. दासों की मण्डी से आये बर्बर अत्याचारियों ने हारे हुए सभी हिंदू महिला पुरुषों को संपत्ति सहित अपनी लूट की कमाई समझा और मिल-बाँटकर भोगा. हजारों क्षत्राणियों को अपनी लाज बचाने के लिए सामूहिक रूप से जौहर करना पड़ा और वे जीवित ही विशाल अग्नि-कुण्डों में कूद गयीं. क्षत्रियों को इस्लाम अपनाने के लिए पीड़ित करते समय घोर अमानवीय यंत्रनाएँ दीं गयीं. जो लोग टूट गए, वे मुसलमान बन जाने से इनके भाई हो गए और अगली लूट के माल में हिस्सा पाने लगे. जो जिद्दी हिंदू अपने मानव धर्म पर अडिग रहे तथा जिन्हें बलात्कारी लुटेरों का साथी बनना नहीं भाया, उन्हें निर्दयता से मार गिराया गया. अपने देश में सोनिया माइनो के कई खास सिपाहसालार तथा मौके को देखकर आज भी तुरंत पाला बदल जाने वाले अनेकानेक मतान्तरित मुसलमान उन्हीं सुविधाभोगी क्षत्रियों की संतानें हैं, जो पहले कभी हिंदू ही थे तथा जिन्होंने जान बचाने के लिए अपने शाश्वत हिंदू धर्म को ठोकर मार दी. उन लोगों ने अपनी हिफाज़त के लिए अपनी बेटियों की लाज को तार-तार हो जाने दिया और उन नर भेड़ियों का साथ देना ही ज्यादा फायदेमंद समझा. बाद में ये नए-नए मुसलमान उन लुटेरों के साथ मिलकर अपने दूसरे हिंदू रिश्तेदारों की कन्याओं को उठाने लगे.
किसी कवि की दो पंक्तियाँ हैं, जो उस काल के हिंदू क्षत्रियों के चरित्र का सटीक चित्रण करती हैं-
जिनको थी आन प्यारी वो बलिदान हो गए,
जिनको थी जान प्यारी, मुसलमान हो गए I
विषय के विस्तार से बचते हुए, यहाँ, अपनी उस बात को ही और अधिक स्पष्ट करते हैं कि कैसे मुसलमानों ने ही हिन्दुओं में छुआछूत के कलंक को स्थापित किया. अल्लाह के 'दीन' को अपने 'ईमान' से दुनिया भर में पहुँचाने के अभियान पर निकले निष्ठुर कठमुल्लों ने हिंदू को अपनी राह का प्रमुख रोड़ा मान लिया था. इसलिए, उन्होंने अपने विश्वास के प्रति निष्ठावान हिंदू पर बेहिसाब जुल्म ढहाए. आततायी मुसलमान सुल्तानों के जमाने में असहाय हिंदू जनता पर कैसे-कैसे अत्याचार हुए, उन सबका अंश मात्र भी वर्णन कर पाना संभव नहीं है. मुसलमानों के अत्याचारों के खिलाफ लड़ने वाले क्षत्रिय वीरों की तीन प्रकार से अलग-अलग परिणतियाँ हुईं.
पहली परिणति-
जिन हिंदू वीरों को धर्म के पथ पर लड़ते-लड़ते मार गिराया गया, वे वीरगति को प्राप्त होकर धन्य हो गए. उनके लिए सीधे मोक्ष के द्वार खुल गए.
दूसरी परिणति-
जो भट्ट, पटेल, मलिक, चौधरी, धर (डार) आदि मौत से डरकर मुसलमान बन गए, उनकी चांदी हो गई. अब उन्हें किसी भी प्रकार का सामाजिक कष्ट न रहा, बल्कि उनका सामाजिक रुतबा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया. अब उन्हें धर्म के पक्के उन जिद्दी हिन्दुओं के ऊपर ताल्लुकेदार बनाकर बिठा दिया गया, जिनके यहाँ कभी वे स्वयं चाकरी किया करते थे. उन्हें करों में ढेरों रियायतें मिलने लगीं, जजिये की तो चिंता ही शेष न रही.
तीसरी परिणति-
हज़ार वर्षों से भी अधिक चले हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का यह सबसे अधिक मार्मिक और पीड़ाजनक अध्याय है.
यह तीसरे प्रकार की परिणति उन हिंदू क्षत्रियों की हुई, जिन्हें युद्ध में मारा नहीं गया, बल्कि कैद कर लिया गया. मुसलमानों ने उनसे इस्लाम कबूलवाने के लिए उन्हें घोर यातनाएँ दीं. चूँकि, अपने उदात्त जीवन में उन्होंने असत्य के आगे कभी झुकना नहीं सीखा था, इसलिए सब प्रकार के जुल्मों को सहकर भी उन्होंने इस्लाम नहीं कबूला. अपने सनातन हिंदू धर्म के प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें मुसलमान न बनने दिया और परिवारों का जीवन घोर संकट में था, अतः उनके लिए अकेले-अकेले मरकर मोक्ष पा जाना भी इतना सहज नहीं रह गया था.
ऐसी विकट परिस्थिति में मुसलमानों ने उन्हें जीवन दान देने के लिए उनके सामने एक घृणित प्रस्ताव रख दिया तथा इस प्रस्ताव के साथ एक शर्त भी रख दी गई. उन्हें कहा गया कि यदि वे जीना चाहते हैं, तो मुसलमानों के घरों से उनकी विष्टा (टट्टी) उठाने का काम करना पड़ेगा. उनके परिवारजनों का काम भी साफ़-सफाई करना और मैला उठाना ही होगा तथा उन्हें अपने जीवन-यापन के लिए सदा-सदा के लिए केवल यही एक काम करने कि अनुमति होगी.
१९ दिसम्बर १४२१ के लेख के अनुसार, जाफर मक्की नामक विद्वान का कहना है कि ''हिन्दुओं के इस्लाम ग्रहण करने के मुखय कारण थे, मृत्यु का भय, परिवार की गुलामी, आर्थिक लोभ (जैसे-मुसलमान होने पर पारितोषिक, पेंशन और युद्ध में मिली लूट में भाग), हिन्दू धर्म में घोर अन्ध विश्वास और अन्त में प्रभावी धर्म प्रचार।"
इस प्रकार, समय के कुचक्र के कारण अनेक स्थानों पर हजारों हिंदू वीरों को परिवार सहित जिन्दा रहने के लिए ऐसी घोर अपमानजनक शर्त स्वीकार करनी पड़ी. मुसलमानों ने पूरे हिंदू समाज पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की रणनीति पर काम किया और उन्होंने वीर क्षत्रियों को ही अपना मुख्य निशाना बनाया. मुस्लिम आतंकवाद के पागल हाथी ने हिंदू धर्म के वीर योद्धाओं को परिवार सहित सब प्रकार से अपने पैरों तले रौंद डाला. सभी तरह की चल-अचल संपत्ति पहले ही छीनी जा चुकी थी. घर जला दिए गए थे. परिवार की क्षत्रिय महिलाओं और कन्याओं पर असुरों की गिद्ध-दृष्टि लगी ही रहती थी. फिर भी, अपने कर्म सिद्धांत पर दृढ़ विश्वास रखने वाले उन आस्थावान हिन्दुओं ने अपने परिवार और शेष हिंदू समुदाय के दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी नियति को स्वीकार किया और पल-पल अपमान के घूँट पीते हुए अपने राम पर अटूट भरोसा रखा. उपासना स्थलों को पहले ही तोड़ दिया गया था, इसलिए उन्होंने अपने हृदय में ही राम-कृष्ण की प्रतिमाएँ स्थापित कर लीं. परस्पर अभिवादन के लिए वेद सम्मत 'नमस्ते' को तिलांजली दे डाली और 'राम-राम' बोलने का प्रचार शुरू कर दिया. समय निकला तो कभी आपस में बैठकर सत्संग भी कर लिया. छुप-छुप कर अपने सभी उत्सव मनाते रहे और सनातन धर्म की पताका को अपने हृदयाकाश में ही लहराते रहे. उनका सब कुछ खण्ड-खण्ड हो चुका था, परन्तु, उन्होंने धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को लेशमात्र भी खंडित नहीं होने दिया. धर्म परिवर्तन न करने के दंड के रूप में मुसलमानों ने उन्हें परिवारसहित केवल मैला ढोने के एकमात्र काम की ही अनुमति दी थी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही करते चले गए. कई पीढ़ियाँ बीत जाने पर अपने कर्म में ही ईश्वर का वास समझने वाले उन कर्मनिष्ठ हिन्दुओं के मनो में से नीच कर्म का अहसास करने वाली भावना ही खो गई. अब तो उन्हें अपने अपमान का भी बोध न रहा.
मुसलमानों की देखा-देखी हिन्दुओं को भी घर के भीतर ही शौच करने में अधिक सुविधा लगने लगी तथा अब वे मैला उठाने वाले लोग हिन्दुओं के घरों में से भी मैला उठाने लगे. इस प्रकार, किसी भले समय के राजे-रजवाड़े मुस्लिम आक्रमणों के कुचक्र में फंस जाने से अपने धर्म की रक्षा करने के कारण पूरे समाज के लिए ही मैला ढोने वाले अछूत और नीच बन गए.
उक्त शोधपरक लेख न तो किसी पंथ विशेष को अपमानित करने के लिए लिखा गया है और न ही दो पंथिक विचारधाराओं में तनाव खड़ा करने के लिए. केवल ऐतिहासिक भ्रांतियों को उजागर करने के लिए लिखे गये इस लेख में प्रमाण सहित घटनाओं की क्रमबद्धता प्रस्तुत की गयी है.
वर्ण और जाति में भारी अंतर है तथा यह लेख मूलतः छूआछूत के कलंक के उदगम को ढूँढने का एक प्रयास है.
मुसलमानों ने मैला ढोने वालों के प्रति अपने परम्परागत आचरण के कारण और उनके हिंदू होने पर उनके प्रति अपनी नफरत व्यक्त करने के कारण उन्हें अछूत माना तथा मुसलमान गोहत्या करते थे, इसलिए मुसलमानों से किसी भी रूप में संपर्क रखने वाले (भले ही उनका मैला ढोने वाले) लोगों को हिंदू समाज ने अछूत माना. इस प्रकार, दलित बन्धु दोनों ही समुदायों के बीच घृणा की चक्की में पिसते रहे.
इस लेख में कहीं भी हिंदू समाज को छूआछूत को बढ़ावा देने के आरोप से मुक्त नहीं किया गया है.
प्रमाण के रूप में कुछ गोत्र प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जो समान रूप से क्षत्रियों में भी मिलते हैं और आज के अपने अनुसूचित बंधुओं में भी. genome के विद्वान् अपने परीक्षण से सहज ही यह प्रमाणित कर सकते हैं कि ये सब भाई एक ही वंशावली से जुड़े हुए हैं.
उदाहरण- चंदेल, चौहान, कटारिया, कश्यप, मालवण, नाहर, कुंगर, धालीवाल, माधवानी, मुदई, भाटी, सिसोदिया, दहिया, चोपड़ा, राठौर, सेंगर, टांक, तोमर आदि-आदि-आदि.
जरा सोचिये, हिंदू समाज पर इन कथित अछूत लोगों का कितना बड़ा ऋण है. यदि उस कठिन काल में ये लोग भी दूसरी परिणति वाले स्वार्थी हिन्दुओं कि तरह ही तब मुसलमान बन गए होते तो आज अपने देश की क्या स्थिति होती? और सोचिये, आज हिन्दुओं में जिस वर्ग को हम अनुसूचित जातियों के रूप में जानते हैं, उन आस्थावान हिन्दुओं की कितनी विशाल संख्या है, जो मुस्लिम दमन में से अपने राम को सुरक्षित निकालकर लाई है.
क्या अपने सनातन हिंदू धर्म की रक्षा में इनका पल-पल अपमानित होना कोई छोटा त्याग था? क्या इनका त्याग ऋषि दधिची के त्याग की श्रेणी में नहीं आता?
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि जब किसी एक हिंदू का मतान्तरण हो जाता है, तो न केवल एक हिंदू कम हो जाता है, बल्कि हिन्दुओं का एक शत्रु भी बढ़ जाता है.
साभार- डॉ. मनोज शर्मा
"हिंदुओं के मध्य फैले रूढिगत जातिवाद और छूआछात के कारणवश खासतौर पर कथित पिछड़ी जातियों के लोग इस्लाम के साम्यभाव और भाईचारे की ओर आकृष्ट हुए और स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को ग्रहण किया।"
जिन लोगों ने अंग्रेजों द्वारा लिखे गए व स्वतंत्र भारत के वामपंथी 'बुद्धिजीवियों' द्वारा दुर्भावनापूर्वक विकृत किये गए भारतीय इतिहास को पढ़कर अपनी उपर्युक्त धारणाएँ बना रखीं हैं, उन्हें इतिहास का शोधपरक अध्ययन करना चाहिए. उपर्युक्त कथन के विपरीत, सूर्य जैसा जगमगाता हुआ सच तो यह है कि भारत के लोगों का इस्लाम के साथ पहला-पहला परिचय युद्ध के मैदान में हुआ था. भारतवासियों ने पहले ही दिन से 'दीन' के बन्दों के 'ईमान' में मल्लेछ प्रवृत्ति वाले असुरों की झलक को साफ़-साफ़ देख लिया था तथा उस पहले ही दिन से भारत के लोगों ने उन क्रूर आक्रान्ताओं और बर्बर लोगों से घृणा करना शुरू कर दिया था.
अतः, इस कथन में कोई सच्चाई नहीं है कि भारत के लोगों ने इस्लाम के कथित 'साम्यभाव और भाईचारे' के दर्शन किये और उससे आकर्षित होकर स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को ग्रहण किया.
असल में, हिंदुत्व और इस्लाम, दोनों बिलकुल भिन्न विचारधाराएँ हैं, बल्कि साफ़ कहा जाए तो दोनों एक दूसरे से पूर्णतया विपरीत मान्यताओं वाली संस्कृतियाँ हैं, जिनके मध्य सदियों पहले शुरू हुआ संघर्ष आज तक चल रहा है.
हाँ, इस्लामी आक्रमण के अनेक वर्षों बाद भारत में कुछ समय के लिए सूफियों का खूब बोलबाला रहा. सूफियों के उस 'उदारवादी' काल में निश्चित रूप से इस्लामी क्रूरता भी मंद पड़ गयी थी. परन्तु, उस काल में भी भारत के मूल हिंदू समाज ने कथित इस्लामी 'साम्यभाव' से मोहित होकर स्वेच्छापूर्वक इस्लाम को अपनाने का कोई अभियान शुरू कर दिया था, इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है.
हाँ, संघर्ष की इस लम्बी कालावधि में स्वयं समय ने ही कुछ घाव भरे और अंग्रेजों के आगमन से पहले तक दोनों समुदायों के लोगों ने परस्पर संघर्ष रहित जीवन जीने का कुछ-कुछ ढंग सीख लिया था. उस समय इस्लामिक कट्टरवाद अंततः भारतीय संस्कृति में विलीन होने लगा था.
यथार्थ में, भारत के हिन्दुओं को इस्लाम के कथित 'साम्यभाव और भाईचारे' का कभी भी परिचय नहीं मिल पाया. इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि मुसलमानों ने भारत के सनातन-हिंदू-धर्मावलम्बियों के साथ किसी दूसरे कारण से नहीं, बल्कि इस्लाम के ही नाम पर लगातार संघर्ष जारी रखा है. हिन्दुओं ने भी इस्लामी आतकवादियों के समक्ष कभी भी अपनी हार नहीं मानी और वे मुसलमानों के प्रथम आक्रमण के समय से ही उनके अमानवीय तौर-तरीकों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करते आ रहे हैं. महमूद गज़नबी हो या तैमूरलंग, नादिरशाह हो या औरंगजेब, जिन्ना हो या जिया उल हक अथवा मुशर्रफ, कट्टरपंथी मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं का संघर्ष पिछले 1200 वर्षों से लगातार चलता आ रहा है.
जिस इस्लाम के कारण भारत देश में सदियों से चला आ रहा भीषण संघर्ष आज भी जारी हो, उसके मूल निवासियों के बारे में यह कहना कि यहाँ के लोग उसी 'इस्लाम के साम्यभाव और भाईचारे की ओर आकृष्ट हुए', एक निराधार कल्पना मात्र है, जोकि सत्य से कोसों दूर है. भारत के इतिहास में ऐसा एक भी प्रमाण नहीं मिलता जिसमे हिंदू समाज के लोगों ने इस्लाम में साम्यभाव देखा हो और इसके भाई चारे से आकृष्ट होकर लोगों ने सामूहिक रूप से इस्लाम को अपनाया हो.
आइये, अब हिन्दुओं के रूढ़िगत जातिवाद और छुआछूत पर भी विचार कर लें. हिन्दुओं में आदिकाल से गोत्र व्यवस्था रही है, वर्ण व्यवस्था भी थी, परन्तु जातियाँ नहीं थीं. वेद सम्मत वर्ण व्यवस्था समाज में विभिन्न कार्यों के विभाजन की दृष्टि से लागू थी. यह व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर सीधे-सीधे कर्म (कार्य) पर आधारित थी. कोई भी वर्ण दूसरे को ऊँचा या नीचा नहीं समझता था. उदारणार्थ- अपने प्रारंभिक जीवन में शूद्र कर्म में प्रवृत्त वाल्मीकि जी जब अपने कर्मों में परिवर्तन के बाद पूजनीय ब्राह्मणों के वर्ण में मान्यता पा गए तो वे तत्कालीन समाज में महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए. श्री राम सहित चारों भाइयों के विवाह के अवसर पर जब जनकपुर में राजा दशरथ ने चारों दुल्हनों की डोली ले जाने से पहले देश के सभी प्रतिष्ठित ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के लिए बुलाया था, तो उन्होंने श्री वाल्मीकि जी को भी विशेष आदर के साथ आमंत्रित किया था.
संभव है, हिंदू समाज में मुसलमानों के आगमन से पहले ही जातियाँ अपने अस्तित्व में आ गयी हों, परन्तु भारत की वर्तमान जातिप्रथा में छुआछूत का जैसा घिनौना रूप अभी देखने में आता है, वह निश्चित रूप से मुस्लिम आक्रान्ताओं की ही देन है.
कैसे? देखिए-आरम्भ से ही मुसलमानों के यहाँ पर्दा प्रथा अपने चरम पर रही है. यह भी जगजाहिर है कि मुसलमान लड़ाकों के कबीलों में पारस्परिक शत्रुता रहा करती थी. इस कारण, कबीले के सरदारों व सिपाहियों की बेगमे कभी भी अकेली कबीले से बाहर नहीं निकलती थीं. अकेले बाहर निकलने पर इन्हें दुश्मन कबीले के लोगों द्वारा उठा लिए जाने का भय रहता था. इसलिए, ये अपना शौच का काम भी घर में ही निपटाती थीं. उस काल में कबीलों में शौच के लिए जो व्यवस्था बनी हुई थी, उसके अनुसार घर के भीतर ही शौच करने के बाद उस विष्टा को हाथ से उठाकर घर से दूर कहीं बाहर फेंककर आना होता था. सरदारों ने इस काम के लिए अपने दासों को लगा रखा था. जो व्यक्ति मैला उठाने के काम के लिए नियुक्त था, उससे फिर खान-पान से सम्बंधित कोई अन्य काम नहीं करवाते थे. स्वाभाविक रूप से कबीले के सबसे निकम्मे व्यक्ति को ही विष्ठा उठाने वाले काम में लगाया जाता था. कभी-कभी दूसरे लोगों को भी यह काम सजा के तौर पर करना पड़ जाता था. इस प्रकार, वह मैला उठाने वाला आदमी इस्लामी समाज में पहले तो निकृष्ट/नीच घोषित हुआ और फिर एकमात्र विष्टा उठाने के ही काम पर लगे रहने के कारण बाद में उसे अछूत घोषित कर दिया गया.
वर्तमान में, हिंदू समाज में जाति-प्रथा और छूआछात का जो अत्यंत निंदनीय रूप देखने में आता है, वह इस समाज को मुस्लिम आक्रान्ताओं की ही देन है. आगे इसे और अधिक स्पष्ट करेंगे कि कैसे?
अपने लम्बे संघर्ष के बाद चंद जयचंदों के पाप के कारण जब इस्लाम भारत में अपनी घुसपैठ बनाने में कामयाब हो ही गया, तो बाद में कुतर्क फ़ैलाने में माहिर मुसलमान बुद्धिजीविओं ने घर में बैठकर विष्टा करने की अपनी ही घिनौनी रीत को हिंदू समाज पर थोप दिया और बाद में हिन्दुओं पर जातिवाद और छुआछात फ़ैलाने के उलटे आरोप मढ़ दिए.
यह अकाट्य सत्य है कि मुसलमानों के आने से पहले घर में शौच करने और मैला ढोने की परम्परा सनातन हिंदू समाज में थी ही नहीं. जब हिंदू शौच के लिए घर से निकल कर किसी दूर स्थान पर ही दिशा मैदान के लिए जाया करते थे, तो विष्टा उठाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता. जब विष्टा ढोने का आधार ही समाप्त हो जाता है, तो हिंदू समाज में अछूत कहाँ से आ गया?
हिन्दुओं के शास्त्रों में इन बातों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि व्यक्ति को शौच के लिए गाँव के बाहर किस दिशा में कहाँ जाना चाहिए तथा कब, किस दिशा की ओर मुँह करके शौच के लिए बैठना चाहिए आदि-आदि.
प्रमाण-
नैऋत्यामिषुविक्षेपमतीत्याभ्यधिकमभुवः I (पाराशरo)
" यदि खुली जगह मिले तो गाँव से नैऋत्यकोण (दक्षिण और पश्चिम के बीच) की ओर कुछ दूर जाएँ."
दिवा संध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्र उद्न्मुखः I
कुर्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ च दक्षिणामुखः II (याज्ञ o १ I १६, बाधूलस्मृ o ८)
"शौच के लिए बैठते समय सुबह, शाम और दिन में उत्तर की ओर मुँह करें तथा रात में दक्षिण की ओर "
(सभी प्रमाण जिस नित्यकर्म पूजाप्रकाश, गीताप्रेस गोरखपुर, संवत २०५४, चोदहवाँ संस्करण, पृष्ठ १३ से उद्धृत किये गए हैं, वह पुस्तक एक सामान्य हिंदू के घर में सहज ही उपलब्ध होती है).
इस्लाम की विश्वव्यापी आँधी के विरुद्ध सत्वगुण संपन्न हिंदू समाज के भीषण संघर्ष की गाथा बड़ी ही मार्मिक है. 'दीन' के नाम पर सोने की चिड़िया को बार-लूटने के लिए आने वाले मुसलमानों ने उदार चित्त हिन्दुओं पर बिना चेतावनी दिए ही ताबड़तोड़ हमले बोले. उन्होंने हिंदू ललनाओं के शील भंग किये, कन्याओं को उठाकर ले गए. दासों की मण्डी से आये बर्बर अत्याचारियों ने हारे हुए सभी हिंदू महिला पुरुषों को संपत्ति सहित अपनी लूट की कमाई समझा और मिल-बाँटकर भोगा. हजारों क्षत्राणियों को अपनी लाज बचाने के लिए सामूहिक रूप से जौहर करना पड़ा और वे जीवित ही विशाल अग्नि-कुण्डों में कूद गयीं. क्षत्रियों को इस्लाम अपनाने के लिए पीड़ित करते समय घोर अमानवीय यंत्रनाएँ दीं गयीं. जो लोग टूट गए, वे मुसलमान बन जाने से इनके भाई हो गए और अगली लूट के माल में हिस्सा पाने लगे. जो जिद्दी हिंदू अपने मानव धर्म पर अडिग रहे तथा जिन्हें बलात्कारी लुटेरों का साथी बनना नहीं भाया, उन्हें निर्दयता से मार गिराया गया. अपने देश में सोनिया माइनो के कई खास सिपाहसालार तथा मौके को देखकर आज भी तुरंत पाला बदल जाने वाले अनेकानेक मतान्तरित मुसलमान उन्हीं सुविधाभोगी क्षत्रियों की संतानें हैं, जो पहले कभी हिंदू ही थे तथा जिन्होंने जान बचाने के लिए अपने शाश्वत हिंदू धर्म को ठोकर मार दी. उन लोगों ने अपनी हिफाज़त के लिए अपनी बेटियों की लाज को तार-तार हो जाने दिया और उन नर भेड़ियों का साथ देना ही ज्यादा फायदेमंद समझा. बाद में ये नए-नए मुसलमान उन लुटेरों के साथ मिलकर अपने दूसरे हिंदू रिश्तेदारों की कन्याओं को उठाने लगे.
किसी कवि की दो पंक्तियाँ हैं, जो उस काल के हिंदू क्षत्रियों के चरित्र का सटीक चित्रण करती हैं-
जिनको थी आन प्यारी वो बलिदान हो गए,
जिनको थी जान प्यारी, मुसलमान हो गए I
विषय के विस्तार से बचते हुए, यहाँ, अपनी उस बात को ही और अधिक स्पष्ट करते हैं कि कैसे मुसलमानों ने ही हिन्दुओं में छुआछूत के कलंक को स्थापित किया. अल्लाह के 'दीन' को अपने 'ईमान' से दुनिया भर में पहुँचाने के अभियान पर निकले निष्ठुर कठमुल्लों ने हिंदू को अपनी राह का प्रमुख रोड़ा मान लिया था. इसलिए, उन्होंने अपने विश्वास के प्रति निष्ठावान हिंदू पर बेहिसाब जुल्म ढहाए. आततायी मुसलमान सुल्तानों के जमाने में असहाय हिंदू जनता पर कैसे-कैसे अत्याचार हुए, उन सबका अंश मात्र भी वर्णन कर पाना संभव नहीं है. मुसलमानों के अत्याचारों के खिलाफ लड़ने वाले क्षत्रिय वीरों की तीन प्रकार से अलग-अलग परिणतियाँ हुईं.
पहली परिणति-
जिन हिंदू वीरों को धर्म के पथ पर लड़ते-लड़ते मार गिराया गया, वे वीरगति को प्राप्त होकर धन्य हो गए. उनके लिए सीधे मोक्ष के द्वार खुल गए.
दूसरी परिणति-
जो भट्ट, पटेल, मलिक, चौधरी, धर (डार) आदि मौत से डरकर मुसलमान बन गए, उनकी चांदी हो गई. अब उन्हें किसी भी प्रकार का सामाजिक कष्ट न रहा, बल्कि उनका सामाजिक रुतबा पहले से कहीं अधिक बढ़ गया. अब उन्हें धर्म के पक्के उन जिद्दी हिन्दुओं के ऊपर ताल्लुकेदार बनाकर बिठा दिया गया, जिनके यहाँ कभी वे स्वयं चाकरी किया करते थे. उन्हें करों में ढेरों रियायतें मिलने लगीं, जजिये की तो चिंता ही शेष न रही.
तीसरी परिणति-
हज़ार वर्षों से भी अधिक चले हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का यह सबसे अधिक मार्मिक और पीड़ाजनक अध्याय है.
यह तीसरे प्रकार की परिणति उन हिंदू क्षत्रियों की हुई, जिन्हें युद्ध में मारा नहीं गया, बल्कि कैद कर लिया गया. मुसलमानों ने उनसे इस्लाम कबूलवाने के लिए उन्हें घोर यातनाएँ दीं. चूँकि, अपने उदात्त जीवन में उन्होंने असत्य के आगे कभी झुकना नहीं सीखा था, इसलिए सब प्रकार के जुल्मों को सहकर भी उन्होंने इस्लाम नहीं कबूला. अपने सनातन हिंदू धर्म के प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें मुसलमान न बनने दिया और परिवारों का जीवन घोर संकट में था, अतः उनके लिए अकेले-अकेले मरकर मोक्ष पा जाना भी इतना सहज नहीं रह गया था.
ऐसी विकट परिस्थिति में मुसलमानों ने उन्हें जीवन दान देने के लिए उनके सामने एक घृणित प्रस्ताव रख दिया तथा इस प्रस्ताव के साथ एक शर्त भी रख दी गई. उन्हें कहा गया कि यदि वे जीना चाहते हैं, तो मुसलमानों के घरों से उनकी विष्टा (टट्टी) उठाने का काम करना पड़ेगा. उनके परिवारजनों का काम भी साफ़-सफाई करना और मैला उठाना ही होगा तथा उन्हें अपने जीवन-यापन के लिए सदा-सदा के लिए केवल यही एक काम करने कि अनुमति होगी.
१९ दिसम्बर १४२१ के लेख के अनुसार, जाफर मक्की नामक विद्वान का कहना है कि ''हिन्दुओं के इस्लाम ग्रहण करने के मुखय कारण थे, मृत्यु का भय, परिवार की गुलामी, आर्थिक लोभ (जैसे-मुसलमान होने पर पारितोषिक, पेंशन और युद्ध में मिली लूट में भाग), हिन्दू धर्म में घोर अन्ध विश्वास और अन्त में प्रभावी धर्म प्रचार।"
इस प्रकार, समय के कुचक्र के कारण अनेक स्थानों पर हजारों हिंदू वीरों को परिवार सहित जिन्दा रहने के लिए ऐसी घोर अपमानजनक शर्त स्वीकार करनी पड़ी. मुसलमानों ने पूरे हिंदू समाज पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की रणनीति पर काम किया और उन्होंने वीर क्षत्रियों को ही अपना मुख्य निशाना बनाया. मुस्लिम आतंकवाद के पागल हाथी ने हिंदू धर्म के वीर योद्धाओं को परिवार सहित सब प्रकार से अपने पैरों तले रौंद डाला. सभी तरह की चल-अचल संपत्ति पहले ही छीनी जा चुकी थी. घर जला दिए गए थे. परिवार की क्षत्रिय महिलाओं और कन्याओं पर असुरों की गिद्ध-दृष्टि लगी ही रहती थी. फिर भी, अपने कर्म सिद्धांत पर दृढ़ विश्वास रखने वाले उन आस्थावान हिन्दुओं ने अपने परिवार और शेष हिंदू समुदाय के दूरगामी हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी नियति को स्वीकार किया और पल-पल अपमान के घूँट पीते हुए अपने राम पर अटूट भरोसा रखा. उपासना स्थलों को पहले ही तोड़ दिया गया था, इसलिए उन्होंने अपने हृदय में ही राम-कृष्ण की प्रतिमाएँ स्थापित कर लीं. परस्पर अभिवादन के लिए वेद सम्मत 'नमस्ते' को तिलांजली दे डाली और 'राम-राम' बोलने का प्रचार शुरू कर दिया. समय निकला तो कभी आपस में बैठकर सत्संग भी कर लिया. छुप-छुप कर अपने सभी उत्सव मनाते रहे और सनातन धर्म की पताका को अपने हृदयाकाश में ही लहराते रहे. उनका सब कुछ खण्ड-खण्ड हो चुका था, परन्तु, उन्होंने धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को लेशमात्र भी खंडित नहीं होने दिया. धर्म परिवर्तन न करने के दंड के रूप में मुसलमानों ने उन्हें परिवारसहित केवल मैला ढोने के एकमात्र काम की ही अनुमति दी थी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी वही करते चले गए. कई पीढ़ियाँ बीत जाने पर अपने कर्म में ही ईश्वर का वास समझने वाले उन कर्मनिष्ठ हिन्दुओं के मनो में से नीच कर्म का अहसास करने वाली भावना ही खो गई. अब तो उन्हें अपने अपमान का भी बोध न रहा.
मुसलमानों की देखा-देखी हिन्दुओं को भी घर के भीतर ही शौच करने में अधिक सुविधा लगने लगी तथा अब वे मैला उठाने वाले लोग हिन्दुओं के घरों में से भी मैला उठाने लगे. इस प्रकार, किसी भले समय के राजे-रजवाड़े मुस्लिम आक्रमणों के कुचक्र में फंस जाने से अपने धर्म की रक्षा करने के कारण पूरे समाज के लिए ही मैला ढोने वाले अछूत और नीच बन गए.
उक्त शोधपरक लेख न तो किसी पंथ विशेष को अपमानित करने के लिए लिखा गया है और न ही दो पंथिक विचारधाराओं में तनाव खड़ा करने के लिए. केवल ऐतिहासिक भ्रांतियों को उजागर करने के लिए लिखे गये इस लेख में प्रमाण सहित घटनाओं की क्रमबद्धता प्रस्तुत की गयी है.
वर्ण और जाति में भारी अंतर है तथा यह लेख मूलतः छूआछूत के कलंक के उदगम को ढूँढने का एक प्रयास है.
मुसलमानों ने मैला ढोने वालों के प्रति अपने परम्परागत आचरण के कारण और उनके हिंदू होने पर उनके प्रति अपनी नफरत व्यक्त करने के कारण उन्हें अछूत माना तथा मुसलमान गोहत्या करते थे, इसलिए मुसलमानों से किसी भी रूप में संपर्क रखने वाले (भले ही उनका मैला ढोने वाले) लोगों को हिंदू समाज ने अछूत माना. इस प्रकार, दलित बन्धु दोनों ही समुदायों के बीच घृणा की चक्की में पिसते रहे.
इस लेख में कहीं भी हिंदू समाज को छूआछूत को बढ़ावा देने के आरोप से मुक्त नहीं किया गया है.
प्रमाण के रूप में कुछ गोत्र प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जो समान रूप से क्षत्रियों में भी मिलते हैं और आज के अपने अनुसूचित बंधुओं में भी. genome के विद्वान् अपने परीक्षण से सहज ही यह प्रमाणित कर सकते हैं कि ये सब भाई एक ही वंशावली से जुड़े हुए हैं.
उदाहरण- चंदेल, चौहान, कटारिया, कश्यप, मालवण, नाहर, कुंगर, धालीवाल, माधवानी, मुदई, भाटी, सिसोदिया, दहिया, चोपड़ा, राठौर, सेंगर, टांक, तोमर आदि-आदि-आदि.
जरा सोचिये, हिंदू समाज पर इन कथित अछूत लोगों का कितना बड़ा ऋण है. यदि उस कठिन काल में ये लोग भी दूसरी परिणति वाले स्वार्थी हिन्दुओं कि तरह ही तब मुसलमान बन गए होते तो आज अपने देश की क्या स्थिति होती? और सोचिये, आज हिन्दुओं में जिस वर्ग को हम अनुसूचित जातियों के रूप में जानते हैं, उन आस्थावान हिन्दुओं की कितनी विशाल संख्या है, जो मुस्लिम दमन में से अपने राम को सुरक्षित निकालकर लाई है.
क्या अपने सनातन हिंदू धर्म की रक्षा में इनका पल-पल अपमानित होना कोई छोटा त्याग था? क्या इनका त्याग ऋषि दधिची के त्याग की श्रेणी में नहीं आता?
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि जब किसी एक हिंदू का मतान्तरण हो जाता है, तो न केवल एक हिंदू कम हो जाता है, बल्कि हिन्दुओं का एक शत्रु भी बढ़ जाता है.
साभार- डॉ. मनोज शर्मा
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